कार्तिक पूर्णिमा गुरु नानक जयंती विशेष
सिक्ख धर्म के संस्थापक आदि गुरु नानक देव जी मानवीय कल्याण के प्रबल पक्षधर थे। जिन्होंने समकालीन सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों की विसंगतियों, विडम्बनाओं, विषमताओं धार्मिक आडम्बरों , कर्मकांडों, अंधविश्वासों तथा जातीय अहंकार के विरुद्ध लोक चेतना जागृत की तथा इसके साथ ही तत्कालीन लोधी एवं मुगल शासकों के बलपूर्वक मतान्तरण तथा बर्बर अत्यचारों के विरुद्ध प्रखर राष्ट्रवाद का निर्भिकतापूर्वक क्रांतिकारी शंखनाद किया।
उन्होंने विभिन्न उपमाओं, रुपकों, प्रतीकों एवं संज्ञाओं से परिपूर्ण अमृतवाणी से एक ओंकार सतनाम, आध्यात्मिक पवित्रता, सामाजिक समर्थतता, साम्प्रदायिक सद्वभाव, कौमी एकता, बंधुता, लैंगिक समानता, नारी सम्मान के साथ ही भेदभाव रहित समतामूलक समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर अपने स्वतंत्र दृष्टिकोण से हिन्दू धर्म को संगठित संघर्ष प्रदान किया।
गुरुनानक देव जी का जन्म 1469 में लाहौर के पास तलवंडी नामक स्थान में (जो अब ननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध है) हुआ था। इनके पिता पटवारी कालू मेहता एवं माता का नाम तृप्ता देवी था। वह बचपन से ही ईश्वरीय प्रतिभा से सम्पन्न दिव्यात्मा थे, जो ध्यान, भजन, चिंतन, सत्य अहिंसा, संयम और आध्यात्मिक विषयों में ही अधिक रुचि लेते थे। उनके जीवन की अनेक अलौकिक, असाधारण और चमत्कारिक घटनाएं है, जो उनकी कर्म भक्ति और ज्ञान साधना की महानता तथा अनासक्त भाव को प्रकाशित करती हैं।
पाठशाला में वे शब्द के साधक बन अपने समय से बहुत आगे भविष्य को पढ़ रहे थे, पराविद्या से अक्षरों की वर्णमाला में उन्हें परमात्मा की एकता एवं उनके स्वरुप का रहस्य दिखाई देता था। उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई को देख उनके गुरु और मुल्ला गुरु भी शिष्य बन गये। यज्ञोपवीत संस्कार के समय वे कहते हैं कि “जनेउ के लिए दया का कपास हो, उस दया रुपी कपास से संतोष रुपी सूत काता गया हो, साधना की गांठ हो, जैसे कर्मयोगी कृष्ण ने गीता में उद्घाटित किया आत्मा को आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता, पवन उड़ा नहीं सकता, उसी प्रकार जनेउ ऐसा हो जो न कभी टूटे, न कभी मैला हो, और न कभी नष्ट हो। जिसने इस रहस्य जो समझ लिया, वही संसार में धन्य है।”
चरवाहे का कार्य करते समय वृक्ष के नीचे सो जाते हैं तब वृक्ष की छाया सूर्य से निरपेक्ष हो जाती है। नानक जी का मन बच्चों के साथ खेलने कूदने में नहीं लगता। साधु संतों की संगति अच्छी लगती है। पिता कालू मेहता, नानक के स्वास्थ्य की चिंता से वैद्य को बुलाते हैं, नानक जी वैद्य से कहते हैं कि मेरे शरीर में कोई विकार नहीं है। मेरा दर्द उस परमात्मा से न मिल पाने, यानी वियोग से पैदा हुआ दर्द है। यदि इसकी कोई औषधि तुम्हारे पास हो तो ले आओ।
पिता, नानक जी को सच्चा सौदा करने के लिए कम कीमत पर वस्तुएं खरीदकर अधिक कीमत पर बेचने के लिए कहते हैं, किन्तु नानक पिता के दिये पैसों से भूखे प्यासे साधु संतों को रसद खरीदकर दे देते हैं। उनकी दृष्टि में भूखों को अन्न देना सच्चा सौदा है। सुल्तानपुर लोधी में नौकरी करते हुए वे घर जोड़ने की माया से विमुख सारी तनख्वाह गरीबों और जरुरतमंदों को बांट देते हैं। उनके मन में नकार बिलकुल नहीं है। इसलिए वे विवाह के लिए हाँ करते हैं। क्योंकि इसके लिए सामाजिक उत्तरदायित्व से पलायन न करते हुए गृहस्थ आश्रम में रहकर भी सच्चा धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन जिया जा सकता है। वे साधु होकर जन समाज में ही रहे, उनके सुख दुख में भाग लेकर उनसा ही जीवन व्यतीत करते रहे।
मोदी खाने में एक दिन आटा तोलते समय तेरा तेरा अर्थात ईश्वर का करते हुए सारा आटा ही तोल दिया। नानक जी नदी में स्नान करने जाते हैं तो तीन दिन बाद एकाएक प्रगट होकर कहते हैं कि न कोई हिन्दू है, ना कोई मुसलमान। मैं इंसान और इंसान के बीच कोई फ़र्क नहीं मानता। ईश्वर मनुष्य की पहचान उसके अच्छे गुणों से करता है, न कि उसके हिन्दू या मुसलमान होने के कारण।
एक काजी ने नानक को मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने का आदेश दिया। मस्जिद में गये जरुर लेकिन नमाज नहीं पढ़ी। शासक दौलत खाँ ने नमाज नहीं पढ़ने के लिए नानक से पूछा तो नानक ने कहा कि मैं नमाज किसके साथ पढ़ता, आप भी तो नमाज नहीं पढ़ रहे थे। आपका तो ध्यान कंधार में घोड़े खरीदने में था। वही काजी चिंता में डूबे हुए थे कि कहीं घोड़े का नवजात आंगन के कुंए में न गिर जाए। पांच वक्त की नमाज के बारे में पूछने पर नानक जी कहते हैं कि “उनकी पहली नमाज सच्चाई है, ईमानदारी की कमाई दूसरी नमाज है, खुदा की बंदगी तीसरी नमाज है, मन को प्रवित्र रखना उनकी चौथी नमाज है और सारे संसार का भला चाहना उनकी पांचवी नमाज है। जो ऐसी नमाज पढ़ता है, वही सच्चा मुसलमान है।
गुरु नानक देव जी ने सदैव इस बात पर बल दिया कि हम सब मिल जुलकर रहें, किसी का अहित न करें और जरुरतमंदों की हर संभब मदद करें। ईमानदारी से परिश्रम कर अपनी आजीविका कमाएं, मिल बांट कर खाएं एवं मर्यादापूर्वक ईश्वर का नाम जपते हुए, आत्म नियंत्रण रखें। किसी भी तरह के लोभ अथवा लालच को त्यागकर परिश्रम और न्यायोचित तरीके से कर्मठतापूर्वक धन कमाएं। उन्होंने सही विश्वास, सही आराधना और सही आचरण की शिक्षा दी।
हमारे प्रेरणा पुंज गुरु नानक जी ने उस निराकार प्रभु की जय जयकार करते हुए, यही प्रार्थना की कि वे भ्रमर की तरह प्रभु के चरण कमलों पर मधु की अभिलाषा से मंडराते रहें, वे प्रभु की महानता का वर्णन करने में असमर्थ हैं, उनकी दृष्टि में शब्द गुरु और आत्मा शिष्य है। यही जीवन का सौंदर्य है। शब्द के बिना अंधविश्वास एवं पाखंड नष्ट नहीं होता और न ही अहंकार से मुक्ति मिलती है। जातीय अहंकार की दूषित मानसिकता के संकीर्ण गलियारों में भटकता हुआ भ्रमित समाज, समतामूलक समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता।
कहने को तो यह देश संतो, महात्माओं, धर्माचार्यों का देश हैं। जहां पेड़ पौधों, पशु-पक्षी और यहाँ तक कि पत्थरों की भी पूजा की जाती है, किन्तु यह कैसा दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभाष है कि समाज के अंतिम छोर पर खड़े हुए दीन, हीन, अछूत व्यक्ति को छूने से पवित्रता भ्रष्ट हो जाती है। यह मिथ्या विश्वास किसी भी सभ्य समाज के प्रगतिशील होने का संकेत कैसे हो सकता है? नि:संदेह “कीरत करो, नाम जपो और वंड छको।” तथा दसवंद का अमुल्य मंत्र एवं पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब हमारे जीवन उच्च आदर्शों, मुल्यों की प्रेरक धरोहर है।
उन्होंने अंतिम समय में भाई लेहणा को कठिन परीक्षा के बाद बिना किसी भेदभाव, पूर्वाग्रह के बजाय योग्यता के आधार पर गुरपद प्रदान कर एक स्वस्थ परम्परा का शुभारंभ किया। आज हम मंदिरों में उन मूर्तियों का ध्यान कर रहे हैं, जिन्हें हमने ही बनाया है। किन्तु ध्यान कब करेंगे, जिसने हमें बनाया है। नि:संदेह ईश्वर सर्वज्ञ, शास्वत, सत्य है जो सृष्टि से पहले भी था, आज भी है और प्रलय के बाद भी रहेगा।
आलेख
जय गुरुनानक देव🙏🙏🙏