प्रकृति के साथ मानव का जुड़ाव जन्मजात है, वह किसी न किसी रुप में प्रकृति के साथ जुड़ा रहना चाहता है। हिन्दू धार्मिक मान्यताएँ प्रकृति के साथ जुड़ी हुई हैं। सनातन धर्म प्रकृति के अनुरुप आचरण करना एवं जीना सिखाता है। प्रकृति के अनुरुप जीवन यापन करने के लिए आयुर्वेद जैसे ग्रंथ की रचना हुई, जिसमें ॠषियों द्वारा अनुभूत ज्ञान का अभिलेखीकरण है।
बारहमास त्यौहार मनाए जाते हैं एवं हमारे त्यौहार भी प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं। त्यौहारों एवं धार्मिक कर्मकांडों में वृक्षों को अत्यधिक महत्व दिया गया है। हमारी संस्कृति में ग्राम्य वृक्ष एवं वन वक्षों का पृथक वर्गीकरण किया गया है। इन्हीं ग्राम वृक्षों में आंवले के वृक्ष को भी स्थान दिया गया है।
जो चार युग माने गये हैं, इनमें त्रेतायुग के आरंभ होने की तिथि कार्तिक शुक्ल नवमी को माना गया है :
आचार्य चरक ने आंवला को मनुष्य का कायाकल्प करने वाली औषधि बताया है। आचार्य च्वयन ने त्रिफ़ला (हरड़, बहेड़ा और आंवला के यौगिक मिश्रण से अवलेह तैयार किया जो सर्वकालिक पुष्टिदायक औषधि है तथा इसे पुन: यौवन को प्राप्त करने वाली कहा गया। यह वर्तमान में च्वयनप्राश कहलाती है।
आयुर्वेद के अनुसार हरीतिकी (हरड़) और आँवला दो सर्वोत्कृष्ट औषधियाँ हैं। इन दोनों में आँवले का महत्व अधिक है। चरक के मत से शारीरिक अवनति को रोकनेवाले अवस्थास्थापक द्रव्यों में आँवला सबसे प्रधान है। प्राचीन ग्रंथकारों ने इसको शिवा (कल्याणकारी), वयस्था (अवस्था को बनाए रखनेवाला) तथा धात्री (माता के समान रक्षा करनेवाला) कहा है।
विज्ञान कहता है कि आँवले के 100 ग्राम रस में 921 मि.ग्रा. और गूदे में 720 मि.ग्रा. विटामिन सी पाया जाता है। आर्द्रता 81.2, प्रोटीन 0.5, वसा 0.1, खनिज द्रव्य 0.7, कार्बोहाइड्रेट्स 14.1, कैल्शियम 0.05, फॉस्फोरस 0.02, प्रतिशत, लौह 1.2 मि.ग्रा., निकोटिनिक एसिड 0.2 मि.ग्रा. पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें गैलिक एसिड, टैनिक एसिड, शर्करा (ग्लूकोज), अलब्यूमिन, आदि तत्व भी पाए जाते हैं।
प्रति वर्ष कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आमला (आंवला) नवमी, आरोग्य नवमी, अक्षय नवमी, कुष्मांड नवमी का त्यौहार मनाया जाता है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे आरोग्य मुख्य कारण है। आंवला सेवन मनुष्य को निरोग रखता है।
मान्यता है कि आंवला नवमी के दिन प्रात:काल में आंवले के रस से मिश्रित जल में स्नान करना चाहिए, ऐसा करने से आरोग्य के साथ नकारात्मक ऊर्जा भी समाप्त हो जाती है तथा शारीरिक पवित्रता के साथ सकारात्मकता में भी वृद्धि होती है।
जनसामान्य में प्रचलित कथा है कि एक बार लक्ष्मी जी पृथ्वी पर भ्रमण करने आई, रास्ते में उन्हें भगवान विष्णु और शिव की पूजा एक साथ करने की इच्छा हुई, लक्ष्मी जी ने विचार किया कि विष्णु एवं शिव की पूजा एक साथ कैसे हो सकती है? तभी उन्हें ख्याल आया कि तुलसी एवं बेल का गुण एक साथ आंवले में पाया जाता है।
तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय है और बेल शिव को। आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक मानकर लक्ष्मी ने आंवले के वृक्ष की पूजा की, पूजा से प्रसन्न होकर विष्णु एवं शिव प्रकट हुए। माता लक्ष्मी ने उन्हें आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन पकाकर खिलाया और इसके बाद स्वयं भोजन किया। तभी से इस परम्परा का प्रारंभ माना जाता है।
आंवला नवमी के दिन ही भगवान विष्णु ने कुष्माण्डक दैत्य को मारा था, इस दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने कंस का वध करने से पहले तीन वन की परिक्रमा की थी। आज बभी लोग अक्षय नवमी को मथुरा-वृदांवन की परिक्रमा करते हैं। संतान प्राप्ति के लिए भी इस नवमी का विशेष महत्व है। इस दिन कथा श्रवण, दान पुण्य किया जाता है।
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