ब्राह्मणडीह ग्राम जिला महासमुन्द छ ग की प्राचीन जमींदारी सुअरमार अक्षांश 20°58’31.49 देशांश 82°27’25.46 में जोंक नदी एवम उसकी सहायक कांदाजरी नदी के दोआब व राष्ट्रीय राजमार्ग 243 पर माँ पाटमेश्वरी मन्दिर स्थित है।
यहां दो तालाबो का समूह रहा, वर्तमान ब्रह्म ताल (27 एकड़) का निर्माण सम्भवतः कलचुरि काल मे हुआ था। तालाब के नीचे जंगल रोड से लगे स्थान पर श्मशान के अवशेष वर्तमान में मौजूद हैं इससे इस बात की पुष्टि होती है कि यहाँ पूर्व में कोई ग्राम की स्थापना रही हो। 18 वी शताब्दी सुअरमार जमीदारी का उत्कर्ष काल रहा है। जमीदार ठाकुर सनमान सिंह ने न्याय शासन व्यवस्था काफी अच्छी थी जिसकी जानकारी रायपुर गेजेटियर में मिलती है।
सुअरमार जमीदारी का नामकरण भवानी पटना के महाराजा द्वारा दिया गया था व राज्य का अंग था किंतु लम्बे समय तक नही रहा ,अपितु कलचुरि राजा रतनपुर की अधीनता स्वीकारनी पड़ी। रतनपुर शासक ने देख-रेख व मदद के लिए बलभद्र शुकुल के पूर्वज को नियुक्त किया ।
कलचुरि के कमजोर होने के चलते भवानी पटना महाराजा ने पं सत्यानन्द उपाध्याय को नियुक्त किया। उसके पुत्र गजाधर प्रसाद लेबड़ा से सुअरमार में स्थायी रूप से बसने के उद्देश्य से सुअरमार जमीदारी के मातगुड़ा, सिवनी ग्राम में कुछ दिन रहे।
तत्कालीन जमीदार ठा उमरावसिंह ने पं गजाधर जी के इच्छानुरूप खदरहि जंगल मे ब्रह्मदेय भूमि दे कर ब्राह्मणडीह नामकरण किया। अपने सेवको के साथ 500 एकड़ भूमि को खेती के लिए तैयार किया। ग्राम स्थापना के साथ ग्राम ठाकुर देव तथा पटना की कुल देवी पाटमेश्वरी की स्थापना सन 1843 में पीपल वृक्ष के नीचे की ।
सन 1971 में विशाल पीपल वृक्ष के गिरने से स्थापना स्थल क्षतिग्रस्त हो गया। पुनः गजाधर परिवार ने 24/5/1985 को मन्दिर निर्माण कर माता की पुनर्स्थापना की। मन्दिर जीर्ण होने पर 2018 में उपासकों ने निर्णय लिया कि माता का मंदिर निर्माण किया जाय, सभी के अथक सहयोग से लगभग 8.5 लाख की लागत से मन्दिर निर्माण सम्भव हो सका ।
दिनाँक 13 मार्च 2020 को विधिवत पूजा के साथ मन्दिर का द्वितीय जिर्णोद्धार एवम तृतीय स्थापना का कार्य सम्पन्न हुआ। माँ पाटमेश्वरी के बारे में अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार प्राचीन देश की राजधानी मगध ( पटना) की इष्ट देवी मानी जाती है।
दक्षिण कोसल में पाटमेश्वरी स्थापना के सम्बंध में इतिहासकार कहते हैं कि कालाहाण्डी के नागवंशी शासक जो छोटे नागपुर के वंशज माने जाते हैं, 13 वी शताब्दी में इसकी माणिक्य देवी के रूप में स्थापना की। कालाहाण्डी थुवामल साहित्य के रचयिता पदमन सिंह ने नागवंश चरित्रम में इसका वर्णन किया है। (दक्षिण कोसल का सांस्कृतिक इतिहास, इतिहास विद जीतमित्र सिंह देव की पुस्तक पृष्ठ 206-207)।
पटनागढ़ में लगभग 1360 ई में चौहान शासको का शासन स्थापित हुआ प्रो जे के साहू के अनुसार चौहान रणथंभोर राजस्थान के राजपूत थे। इसकी स्थापना रमइदेव ने की। रमइदेव ने पटना में विद्यमान अष्टमल्लिकों के शासन का तख्ता पलट कर चौहान वंश के शासन की स्थापना की।
विजय के पश्चात उन्होंने पटनागढ़ के दुर्ग के भीतर पटनेश्वरी देवी की स्थापना की। चूंकि रमइदेव आशापुरी देवी (शाकम्भरी) का भक्त था जो सम्पूर्ण चौहानों की अधिष्ठात्री देवी थी, उसे पटना की अधिष्ठात्री देवी के रूप में स्थापित किया। (वैजलदेव रचित प्रबोध चन्द्रिका ग्रन्थ) उन्होंने पटना गढ़, बलांगीर और सम्बलपुर, लेबड़ा में मन्दिर का निर्माण कराया।
इन मंदिरों का द्वार दक्षिण दिशा की ओर है, ताकि उसमे मुखाकृति का आभास हो। (शिवप्रसाद दास की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ सम्बलपुर) देवी के पूजा के लिए पांच छोटे-छोटे ग्राम देउल गांव, कलंगापाल्ली, दियादुमर, उचवली और घुघटींपाली को दान दिया, आज भी पुजारी लाभ उठा रहे हैं। चौहान वंश के शाक्त मन्दिरो में पटनेश्वरी एवम समलई है।
चूंकि पटना के शासक द्वारा सुअरमार पर अपना आधिपत्य स्थापित किया तो उन्होंने पं गजाधर प्रसाद को यहाँ भेज कर इष्ट देवी की स्थापना की। पं गजाधर प्रसाद पटनेश्वरी (पाटमेश्वरी ) के परम भक्त व उपासक थे , बताया जाता है कि मां की कृपा से ही उनकी वंश वृद्धि हुई, उन्होंने माता पाटमेश्वरी (पटनेश्वरी) अपभ्रंश के रूप में पुकारते हैं। सुअरमार एवम नर्रा जमीदारी भी अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजा करती हैं।
नोट:- यह लेख दक्षिण कोसल का सांस्कृतिक इतिहास लेखक जीतमित्र सिंह देव के पुस्तक एवम सम्बलपुर गेजेटियर व अन्य ग्रन्थो के आधर पर लिया गया है।
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