लोक साहित्य वाचिका परम्परा के माध्यम से एक कंठ से दूसरे कंठ में रच-बस कर अपने स्वरूप को विस्तार देता है। फिर व्यापकरूप में लोक को प्रभावित कर लोक का हो जाता है। यही लोक साहित्य कहलाता है। लोक साहित्य में लोक कथा, लोकगीत, लोकगाथा, लोकनाट्य, लोकोक्तियाँ और लोक पहेलियाँ, लोक रंजन के साथ-साथ लोक चेतना को जागृत कर लोक को उर्जा देती है। लोक साहित्य में लोक गाथा का विशिष्ट स्थान हैं।
छत्तीसगढ़ में अनेक लोक गाथाएं गाई जाती है। अन्य प्रदेशों में गाई जाने वाली लोक गाथाओं के साथ ही यहाँ स्थानीय लोक गाथाएं भी है, जिनमें पात्र, परिवेश, घटना स्थल और घटनाएं सब कुछ स्थानीय है। ऐसी ‘‘लोकगाथाओं में कुंवर अछरिया’’ लोकगाथा प्रमुख है। जिसमें स्थानीयता का रंग चटक और सम्मोहक हैं। ‘कुँवर अछरिया’ लोक गाथा का संबंध छत्तीसगढ़ राज्य के कबीरधाम जिला के सहसपुर लोहारा अंतर्गत सिंघनगढ़ नामक स्थान हैं। सिघनगढ़ जिला मुख्यालय कबीर धाम ये दक्षिण दिशा में 40 कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं। एक तरह से सिंघनगढ़ राजनादगांव, कबीर धाम व बेमेतरा जिला के अंतिम छोर का सीमावर्ती ग्राम हैं। चैत्र कृष्ण की तेरस तिथि को यहाँ तीन दिनों का विशाल मेला भरता हैं। जिसमें हजारों लोग आकर ‘कुँवर अछरिया देव’ का दर्शन कर धन्य-धन्य होते हैं।
कुँवर अछरिया मेला
कुँवर अछरिया का नाम आते ही स्मृतियों का सागर लहराने लगता हैं। कुँवर अछरिया से जुड़ी बचपन की यादें साकार हो जाती हैं। बात उन दिनों की हैं, जब मैं प्राथमिक शाला का विद्यार्थी था। तब कुँवर अछरिया में निसंतान दम्पत्ति संतान प्राप्ति की कामना लेकर बकरे की बलि देते थे। फिर सपरिवार बकरे को पकाकर खा जाते थे। बड़ी भीड़ होती, सैकड़ों मूक प्राणियों की जान जाती थी। देवता के नाम पर कोई इसका विरोध करने का साहस नहीं करता। मेंले में चिरकुट नाच (कठपुतली नृत्य) ढेलुवा, रहचूली, सर्कस बड़ी संख्या में आते। बीड़ी कंपनिया अपने प्रचार के लिए नाचा करती। कुँवर अछरिया का नाम सुनकर मेरा बाल मन वहाँ जाने के लिए उतावला हो गया। इसी समय हमारे काका जी के द्वारा कुँवर अछरिया में बकरे की बलि दी गई, क्योंकि वे निसंतान थे। रात करीब तीन बजे गंडई टिकरी पारा से बैलगाड़ी में सवार होकर मेंला स्थल पहुंचे। कर्रा नदी के इस पार बईरगाँव के आम बगीचे में सभी लोग ठहरे। असंख्य बैल गाड़ियाँ चारों तरफ थी, तब आज की तरह न सड़क की सुविधा और न ही बस आवागमन न की। मेरे बाल मन के लिए नया अनुभव था।
गस्ती के पेड़ के नीचे दो प्रतिमाएं इष्ट देव खोड़हर दुबे, खोड़हर की फांदी में गूंथी हुई, तेंदूसार की लाठियाँ, नोई और कसेली तब भी थी, कुछ परिवर्तन के साथ आज भी हैं। इसी स्थान पर पंडरिया के श्री तुंगन यादव (जो अब स्वर्गीय हो चुके हैं) पूरी यादव वेशभूषा में लाल पगड़ी व नीले रंग का यादव बंडी पहने बैठे थे। पूरी तरह से यादवी संस्कृति का परिचय मिल रहा था। क्योंकि कुंवर अछरिया की गाथा पूरी तरह से यादव से जुड़ी हुई हैं। तब मैं कुंवर अछरिया लोक गाथा से अपरिचित था। यादव होने के बावजूद यादवी गौरव-गरिमा से अंजान था मेरा बालमन। एक किनारे पर वध-स्थल था। जहाँ पर बकरों की बलि दी जाती थी। रक्त की धार बह रही थी। आदमी कितना निर्मम और स्वार्थी होता हैं। अपने हित कामना के लिए मूक पशु की बलि देकर अपनी जय चाहता हैं। अपने परिवार का संवर्धन और नाम चाहता हैं। तब मेरा बालमन इस सोच से दूर और अन्य बच्चों की तरह अनजान था। उस समय वहाँ नदी का पानी पीने लायक नहीं होता था। नदी में धोई गई बकरे की बोटियों के टुकड़ों के लिए ऊपर गिद्ध मंडराते थे। कौंवे उड़ कर बोटियाँ झपट लेते। पीने के लिए पानी के लाले पड़ते थे।
आम की धनी छाँव के नीचे खाना बनाने का जुगाड़ हुआ। खाना बनते तक हमजोली बच्चो के साथ आम गिरातें और नमक के साथ चटकारे लेकर बड़े मजे से खाते। पत्तल बिछा, पंगत लगी, तब मैं मांसाहारी था। बड़े चाव से खाया बकरे का माँस। फिर खाना खाने के बाद सब मेला घूमने गए नदी के उस पार। चिरकुट नाच देखा। लालटेन लेकर कठपुतली का नाच वाला दृश्य आज भी मन में कौंतुहल जगाता हैं। सिघनगढ़ का शंकरकंद आजभी बहुत ही प्रसिद्ध है। केंर्विटन दाई से उबला शकरकंद लिया, आहार भर खाया। फिलफिली ली और शाम तक सभी घर लौट आए।
मिडिल स्कूल में आया तो फिर कुंवर अछरिया जाने की इच्छा हुई। पर कोई संगी-साथी नहीं। पारा-मुहल्ले से किसी के साथ जाने का संयोग नहीं बना। उस समय भी मेले जाने वालों की कमी नहीं थी। इस समय कुछ हाफटेन बसें गंडई से कुंवर अछरिया के लिए चलती थी, जो दुर्ग से आती थीं। मोहगाँव तक कच्ची सड़क बन गई थी। एक रूपये का जुगाड़ किया। 50 पैसे आने का 50 पैसा जाने का। क्योंकि तब एक व्यक्ति का गंडई से कुंवर अछरिया का किराया एक रूपये था। मैं ठहरा बच्चा मेरा हाफ टिकट। मोहगाँव के बाद हॉफटन बस खेतों को पार करती हुई, बइरगाँव तक आती-जाती थी। उस समय जीवदया मंडल छुईखदान द्वारा बकरे की बलि न करने के लिए प्रचार-प्रसार किया जा रहा था। पर लोग कहाँ मानने वाले थे। बलि प्रथा बदस्तूर जारी थी। उनकी बातें सुनकर मुझे भी लगा कि ये ठीक कह रहें हैं। क्योंकि तब तक मैं मांसाहार छोड़ चुका था। बिना कुछ खाये, बिना कुछ खरीदे मैं मेला घूमता रहा। गाँव के कुछ परिचित मिले, उन्होंने साथ चलकर खाना खाने के लिए कहा। मैंने मना कर दिया, क्योंकि तब मैं मांसाहार छोड़ दिया था। तीन-साल के अंतराल में मेले की रौनकता काफी बड़ गई थी। किन्तु बलि प्रथा वैसे ही जारी थी। मुझे लगा कि कुछ लोग यहाँ कुंवर अछरिया के नाम पर पिकनिक मनाने भी आते है। पर उन्हें रोके कौन? घंटा भर घूमने के बाद में उसी हाफटेन से वापस गंडई घर आ गया। कुंवर अछरिया की यह मेरी दूसरी मात्रा थी।
हाईस्कूल में आया तब साहित्य के प्रतिरूचि जागी। छोटी-छोटी कविताएं लिखना शुरू किया। स्कूल के अध्यापक श्री दिनेश पाण्डेय और श्री मिथलेश मिश्र लिखने के लिए प्रोत्साहित करते। उनका मार्गदर्शन मिला तो छोटे-छोटे लेख भी लिखना शुरू किया। इसी समय जीव दया मंडल छुईखदान का बलि बंद करने का प्रयास रंग लाने लगा था। तब मैंने भी एक लेख लिखा जो राजनांदगांव सं प्रकाशित साप्ताहिक छत्तीसगढ़ युग में प्रकाशित हुआ। जिसकी अच्छी और स्वस्थ प्रतिक्रिया हुई। कुछ लोगों को मिर्ची भी लगी। उस लेख का सार यह था कि “मूक पशु की बलि से यदि संतान की प्राप्ति होती है तो बलि देने वालों को चाहिए कि वह खुद की बलि चढ़ाएं। शायद इससे भगवान ज्यादा प्रसन्न हों। इससे अनेक परिवार को और अधिक जन-धन का लाभ हों।’’
जीव दया मंडल छुईखदान के लगातार प्रयास और अंचल के लोगों की जागरूकता से कुंवर अछरिया मेला में धीरे-धीरे बकरे की बलि प्रथा बंद होती गई। किन्तु आज भी लोग मेला स्थल से दूर लुका चोरी बकरे की बलि देते हैं। इसी तारतम्य में यह भी उल्लेख करना अनुचित न होगा कि इसी तरह से बेमेतरा जिले के सिद्धि मंदिर में विगत 8-10 वर्षो से होली के बाद से तेरस तक बकरे की बलि देने की प्रथा शुरू हो गई है। जो मानवता की दृष्टि से कुप्रथा ही कही जायेगी। पता नहीं क्यों मनुष्य अंधविश्वास में पड़कर धार्मिक आस्था की आड़ लेकर जीव हिंसा को प्रश्रय देता हैं।
साहित्य सृजन के साथ-साथ जब शोध कार्य की ओर अग्रसर हुआ तो अनेको बार मुझे सिंघनगढ़, कुंवर अछरिया जाना पड़ा। तब कुंवर अछरिया के उज्जवल पक्ष से परिचित हुआ। हुआ यूं कि जब मैं ‘‘पंडवानी कथा गायन’’ पर पी.एच.डी. उपाधि के लिए इंदिरा कला संगीत विश्व विद्यालय खैरागढ़ से शोध कार्य कर रहा था, तब अनेक पंडवानी गायकों से सात्क्षकार के लिए सम्पर्क किया। इसी सिलसिले में प्रसिद्ध पंडवानी गायक श्री प्रहलाद निषाद से मिलने सिंघनगढ़ गया तो कह जानकर आश्चर्य हुआ कि जिस कुंवर अछरिया के नाम पर पहले बकरे की बलि दी जाती थी वह एक लोक गाथा का नायक है, जिसका नाम की कुंवर अछरिया हैं। कुंवर अछरिया की लोक गाथा बाँस गीतों के माध्यम से गाई जाती हैं। इस लोक गाथा के भी चंदैनी (लोरिक चंदा) लोक गाथा की तरह यादवी संस्कृति का वृहद वर्णन हैं। तब मैंने पंडवानी पर शोध कार्य पूर्ण होने के बाद ‘‘कुंवर अछरिया’’ लोक गाथा पर शोधात्मक कार्य करने का मन बनाया। जिसमें आशातीत सफलता मिली। कुंवर अछरिया का पुरातात्विक महत्व भी सामने आया क्योंकि कुंवर अछरिया एक धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक केन्द्र होने के साथ-साथ पुरातात्विक महत्व का भी स्थल हैं।
कुंवर अछरिया मेला स्थल ग्राम सिंघनगढ़ से लगा हुआ है। सिंघनगढ़ की जितनी प्रसिद्ध कुंवर अछरिया मेला के कारण है, उतनी ही प्रसिद्ध यहाँ के सुप्रसिद्ध पंडवानी गायक श्री प्रहलाद निषाद और यहाँ के सुप्रसिद्ध प्रगतिशील, उन्नत कृषक श्री घासी राम निषाद के कारण भी हैं। प्रहलाद निषाद जी ने अपने पंडवानी गायन से छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किया है। छत्तीसगढ़ से बाहर अन्य पड़ोसी प्रदेशों में भी पंडवानी गायन कर छत्तीसगढ़ की माटी का मान बढ़ा रहें हैं। ये वेदमति शैली के गायक हैं। ये पंडवानी पुरोधा स्व. झाड़ू राम देवांगन से प्रभावित रहे। इनके पंडवानी गायन में झाड़ू राम देवांगन जी छाप दिखाई पड़ती हैं। प्रहलाद निषाद अभी अपने 14 वर्षीय पुत्र गुलशन निषाद को पंडवानी गायन में दक्ष कर रहे हैं। श्री घासी राम निषाद उन्नति शील कृषक के साथ ही कुशल हारमोनियम वादक हैं। प्रहलाद निषाद की पंडवानी पार्टी में हारमोनियम वादन करते हैं। पूरे कबीर धाम जिले में घासी राम निषाद उन्नत कृषक के रूप जाने जाते हैं। इन्हें कृषि के क्षेत्र में शासन की ओर से सम्मान प्राप्त हुआ हैं। ये अपनी तरह अन्य कृषकों को भी प्रशिक्षित कर प्रगति का रास्ता दिखा रहे है। सिंघनगढ़ ग्राम अब कला-संगीत के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में भी आगे आ रहा हैं। श्री अशोक गुप्ता जी कुशल बैंजो वादन हैं। जो विभिन्न नाचा मंडलियों व कला मंचों में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कवि-गीतकार भाई बोधन राम निषाद राज विनायक सिंघनगढ़ में ही शासकीय उच्चत्तर माध्यमिक शाला में व्याख्याता के पद पर पदस्थ हैं। इन्हीं के मार्ग दर्शन में उभरती हुई कवयित्रि कुमारी चित्रा श्रीवास साहित्य के क्षेत्र में अपना रास्तागढ़ रही हैं। और भी अनेकानेक संभवानाएं इस क्षेत्र दिखाई पड़ रही हैं। जिससे सिंघनगढ़ का नाम दूर-दूर तक प्रचारित हो रहा हैं। कुमारी वर्षा गुप्ता भी लिख रही हैं।
कुँवर अछरिया की लोकगाथा
आइए अब बात करें कुँवर अछरिया लोक गाथा की। कुँवर अछरिया लोक गाथा पूरे छत्तीसगढ़ में बांस गीत के माध्यम से गाई जाती है। इस लोक गाथा को मैंने ग्राम सोमई कला, तहसील साजा जिला बेमेतरा के बाँस गीत गायक गोर्वधन यादव से सुनकर ध्वन्यांकित किया फिर उसे लिप्यांतरित किया। जिसमें रागी ढेलऊ यादव और बाँसिन (बांसवादक) विजय यादव का सक्रिय सहयोग मिला। पहले ये अपने ही गाँव के आसपास किसी पर्व विशेष, विवाह या छट्ठी में बाँस गीत गायन करते थे। मार्गदर्शन व सहयोग मिलने पर इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली।
इंदिरा कला संगीत वि. विद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष और मेरे शोध निर्देशित डॉ. रमाकांत श्रीवास जी ने अपने मेजर रिसर्च प्रोजेक्ट में इन्हें भरपूर स्थान दिया। तत्पश्चात अमेरिका के लोकविद् राज खन्ना ने कुँवर-अछरिया लोक गाथा को ध्वन्यांकित किया। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र नई दिल्ली के चित्रकुट महोत्सव में भी गोवर्धन यादव और साथियों को आमंत्रित किया गया। जहाँ इन्होंने उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन कर छत्तीसगढ़ी लोक कला का सम्मान बढ़ाया।
कुँवर अछरिया लोक गाथा काफी लम्बी हैं। उसका सारांश ही मैं यहॉं प्रस्तुत कर रहा हूँ- लियो शहर का राजा राऊत और सिंघलद्वीप (सिंघनगढ़) का राजा चौधरी दोनो यादव हैँ और गोचारण के लिए कोटरी छापर जंगल में जाते हैं। प्रथम गोचरण के विवाद में दोनों मार-काट पर उत्तर आते हैँ। इस अप्रिय घटना से भगवान श्री कृष्ण को चिंता होती हैं कि दोनों जातीय भाई एक दूसरे के प्राण लेने पर उतारू हैं। अतः वे ब्राहमण रूप में आकर दोनों को समधी बना देते हैं। पर आश्चर्य कि बात यह कि दोनों राजा निसंतान थे।
श्री कृष्ण की कृपा से राजा राऊत के घर पुत्री व राजा चौधरी के घर पुत्र का जन्म होता हैं। लड़की का नाम सांवर कैना व लड़के का नाम कुँवर अछरिया, दोनों का बाल विवाह छट्ठी कार्यक्रम के पहले ही सम्पन्न हो जाता है। विवाह में राजा बांझ राऊत अपनी बेटी सांवर कैना को दहेज में बंगड़ी गाय देता है। इससे नाराज होकर दुल्हा कुँवर अछरिया नाराज होकर बंगड़ी गाय के पीछे-पीछे वन को चला जाता।
दैवी कृपा से बांझ गाय बछड़े को जन्म देती है। जिसे कुँवर अछरिया शर्त के मुताबिक पकड़ कर भगवान शंकर को सौंप देता हैं। यही बछड़ा भगवान शंकर का नंदी बैल बनता हैं।
युवा होने पर सॉंवर कैना को अपने पति कुंवर अछरिया की सुध आती हैं। वह तोते के माध्यम अपना संदेश भेजती हैं। इधर कोसागढ़ का राजा कनवा दिगम्बर, कुंवर अछरिया की मृत्यु का समाचार फैलाकर सांवर कैना से विवाह करना चाहता हैं। ठीक समय पर कुंवर अछरिया आकर कनवा दिगम्बर को मार डालता हैं। कनवा दिगम्बर की याचना पर कुंवर अछरिया उसे ‘‘सांहड़ा देव’’ के रूप में एक दिन पूजित होने का वरदान देता है। इस लोक गाथा में यह उल्लेखित है कि गॉंवों में सांहड़ा देव की पूजा गोवर्धन पूजा के दिन ही होती हैं। इस तरह कुँवर अछरिया अपनी पत्नी सांवर कैना के साथ हँसी-खुशी से रहता हैं।
तदन्तर कुँवर अछरिया अपने दो भांजे परसु और परसोत्तम के विवाह लिए अपनी पत्नी सांवर कैना के साथ कोसागढ़ के लिए प्रस्थान करता हैं। इसी बीच साँवर कैना अपने भांजों को उलाहना देकर अपमानित करती हैं। इसलिए वह नीम पेड़ के नीचे पत्थर बन जाती है। और कुँवर अछरिया गस्ती पेड़ के नीचे पत्थर बन जाता हैं। इस लोक गाथा में और भी अनेकानेक घटनाएं हैं। जिसमें इस तरह से यादवी संस्कृति का वर्णन हैं।
लोक गाथा का अंतिम अंश-
लीम के पेड़ में ददा ग, लीम के पेड़ में न
पथरा लहुटय दाई मोर पथरा लहुटय न।
साँवर कैना दाई मोर दऊँरी ल बोहे न
ये गस्ती के तरी में ददा पथरा सीला होगे न
मोर कुँवर अछरिया भाई पथरा सीला होगे न।
रागी – वही दिन ले बड़े भईया परसू-परसोत्तम ल धरे-धरे कुँवर अछरिया अउ साँवर कैना दऊँरी ल बोहे सिंघनगढ़ के भाँठा म हवय ग। लीम के झाड़ के खाल्हें में बइठे हे। इंखर खांध में अपन परसू-परसोत्तम भांचा ल बोहे बइठे हे। खोड़हर अउ नोई ल धरे ओहा बइठे हे गस्ती के तरी में।
लोक गाथा कुँवर अछरिया में वर्णित यह दृश्य आज भी दिखाई देता हैं। सिंघनगढ़ के श्री भोलाराम प्रजापति की बाड़ी में एक नारी प्रतिमा है जो प्राचीन हैं। तथा गस्ती पेड़ के नीचे भी दो प्राचीन प्रतिमाएं हैं जो राज पुरूषों की हैं। लोग इसकी आज भी कुँवर अछरिया देव के रूप में पूजा करते हैं। गस्ती पेड़ के नीचे खोड़हर देव, कसेली, नोई फांदी में लटकती लाठियाँ मौजूद हैं। ये तो अर्वाचीन हैं, लेकिन यह तो तय है कि वे मूर्तियाँ जिन्हें पूजते हैं वे अत्यंत प्राचीन हैं। पुरातत्प महत्व की हैं।
कुँवर अछरिया का पुरातात्विक महत्व
कुँवर अछरिया मेला स्थल गंडई की सुरही नदी की सहायक कर्रा नदी के किनारे स्थित हैं। यह भी उल्लेखनीय हैं कि सुरही नदी के उद्गम से लेकर शिवनाथ नदी स्थल तक बहाव में समानांतर दोनो 5-7 कि.मी. के दायरे में अनेक पुरातात्विक महत्व के स्थल हैं। कर्रा नदी पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं।
मेला स्थल पर एक प्राचीन शिव मंदिर हैं। कुछ प्राचीन मूर्तियों के अवशेष गर्भ गृह में हैं। बाहर दरवाजे पर काले पत्थर में उत्कीर्ण गणेश जी की भव्य प्रतिमा हैं। जो कुछ-कुछ खंडित स्थिति में हैं। यही पर एक प्राचीन जलहरी है जो काले पत्थर से बनी किन्तु इसमें मूल शिवलिंग स्थापित नहीं हैं। पूर्वाभिमुख यह शिव मंदिर निर्माण की दृष्टि से मराठा कालीन जान पड़ता हैं। पास में ही बेल का पेड़ हैं। गणेश प्रतिमा व जलहरी इस मंदिर की प्राचीनता के सिद्ध करते हैं।
इस शिव मंदिर से उत्तर दिशा की ओर लगभग 200 मीटर की दूरी पर गस्ती पेड़ के नीचे कुँवर अछरिया देव की रंग-रोगन युक्त दो प्रतिमाएं। ये दोनो ही प्रतिमाएं किसी राज पुरूष की हैं। एक पश्चिमाभिमुख व दूसरी उत्तराभिमुख हैं। दोनों आसनस्थ और करबद्ध हैं। इन मूर्तियों में कुछ और छोटी-छोटी आकृतियाँ भी उत्कीर्ण हैं। किन्तु वर्षो से लगातार आइल पेंट से पुताई कर देने के कारण इनकी पहचान नहीं पाती। इनकी प्राचीनता खो गई है। मुझे लगता है कि अवश्य ही ये दोनों राजपुरूष है और इनका यहाँ शासन रहा होगा, जिन्होंने शिव मंदिर का निर्माण कराया होगा। इन मूर्तियों से यदि रंग-पेंट हटा दिया जाय, तो संभव है कोई लेख आदि उत्कीर्ण हो। पर आस्था के सामने प्रमाणिकता का आधार बौना हो जाता हैं। इस स्थान को परकोटे से घेर कर कुछ पक्के निर्माण व देवी-देवताओं की स्थापना कर सजाने-संवारने का प्रयास किया गया हैं, जिसके कारण इस स्थान का पुरातात्विक महत्व क्षीण हो गया हैं।
धन कोड़ा देवता
कुँवर अछरिया की इस मूर्ति की पश्चिम दिशा में कुछ दूरी पर नारी प्रतिमा स्थापित है जो खंडित अवस्था में हैं। पहले यहाँ नीम का वृक्ष था, जो अब नहीं है। यह नारी प्रतिमा भी प्राचीन है, जो लोक में साँवर कैना के रूप में पूजित हैं। कर्रा नदी की उत्तर दिशा में बइरगाँव नामक ग्राम हैं। बइरगाँव और मोहगाँव की सीमा पर ‘‘धन कोड़ा देवता’’ हैं। यहाँ पर भी प्राचीन महत्व की अनेक प्रतिमाएं, शिलाखण्ड यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। यह स्थान टीलानुमा हैं। संभव है खुदाई होने पर किसी मंदिर का यहाँ अवशेष मिले। चूंकि यहाँ जलहरी रखी हुई है। इसलिए यहाँ निश्चित रूप से शिव मंदिर रहा होगा। जो धराशायी हो गया हो।
‘‘धन कोड़ा देवता’’ के संबंध में यहाँ यह जनश्रुति प्रचलित है कि यहाँ खुदाई करने से धन की प्राप्ति होती है। यहाँ कुछ गड्ढे भी दिखाई देते हैं। जो शायद धन प्राप्ति की लालसा में खो दे गए हों। कहा जाता है कि एक बार सिंघनगढ़ के मंडल स्व. श्री साखाराम साहू का भैंसा धनगोड़ा के तरफ आया और अपने सींग से स्वभाव अनुसार मिट्टी खोदने लगा तो उसके सींग में बटलोही (हंडा) फ़ँस गया। जिसमें सोने के सिक्के थे, लब से लोगों ने जाना कि यहाँ धन गड़ा हुआ है। तभी से इस स्थान का नाम धनगोंड़ा देवता पड़ गया।
कुँवर अछरिया की पूर्व दिशा में ग्राम चिल्फी के पास झिपनिया बांध का निर्माण हुआ हैं। लोग बताते हैं कि जब यहाँ निर्माण के लिए खुदाई हुई तो अनेक प्राचीन मूर्तियाँ खंडित अवस्था में प्राप्त हुई हैं, जिन्हें एक स्थान पर इकट्ठा करके रखा गया हैं। इसी प्रकार शासकीय उच्चत्तर माध्यमिक शाला सिंघनगढ़ में प्रस्तर की दो प्रतिमाएं हैं। जिन्हें लोग बैगा-बैगिन के रूप में पूजते हैं। शादी ब्याह में देवतला की हल्दी चढ़ाते हैं। लोक पर्वो पर इनकी पूजा करते हैं।
कुँवर अछरिया लोक गाथा में वर्णित स्थल जैसे लिमो शहर गंडई के पास स्थित बड़ा गाँव हैं। सिंघलद्वीप स्वयं में सिंघनगढ़ हैं। कोटरी छापर चारागाह धनगांव के पास स्थित हैं। कोसागढ़ से साम्य रखता गांव को समंदा है। जो लोक आस्था और लोक मान्यता को मजबूत करते हैं। कुँवर अछरिया लोक गाथा पर लोक मंड़ई पत्रिका का वार्षिक विशेषताएं निकाला गया है। जिसे लोक मंड़ई के संस्थापक श्री दलेश्वर साहू विधायक डोंगरगांव के मार्गदर्शन व लोकविद् प्रसिद्ध आलोचक जयप्रकाश साव के संपादन में प्रकाशित किया गया हैं। जिसमें डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. गोरेलाल चंदेल, डॉ. जीवन यदु, डॉ. पीसी लाल यादव व लोक संस्कृति मर्मज्ञों के महत्वपूर्ण आलेख शामिल हैं। इसे कुँवर अछरिया लोकगाथा के नाम से छापा गया है। जिसमें गोवर्धन यादव ढेलऊ यादव व विजय यादव द्वारा गाई गई लोक गाथा का मूल छत्तीसगढ़ी के साथ हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित है।
हमारे दिन बहुरेंगे, फूल की तरह खिलेंगे।
नए विश्वासों के साथ, कुँवर अछरिया में मिलेंगे।।