छत्तीसगढ़ राज्य कृषि प्रधान राज्य है। कार्तिक मास के लगते ही खेतों में लहलहाती और सोने सी दमकती धान की बालियां लोक जनजीवन में असीम ऊर्जा और उत्साह का संचार करती है। पावन पर्व दीपावली में जैसे दीप घर आंगन में जलाए जाते हैं। वैसे ही खुशियों और समृद्धि के दीप लोकजीवन को आलोकित करता है।
शहरों में जहां भौतिक सुख सुविधाएं प्रदान करने वाली वस्तुएं खरीदकर और कृत्रिम विद्युत प्रकाश से दीपावली मनाई जाती है वहीं गांवों में दीपावली अन्न के रुप में लक्ष्मी के शुभ आगमन और ग्राम्य देवी देवताओं और गौमाता के पूजन का पर्व है। लगातार 5 दिन तक हर्षोल्लास के साथ संपन्न होने वाले दीपावली पर्व के पंचम दिवस छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में मातर पर्व मनाने की परंपरा है। मातर के दिन आसपास के परिजनों और ग्रामीणों को भी आमंत्रित किया जाता है। इस दिन भाई दूज भी मनाया जाता है।
मातर का अर्थ
मातर शब्द संस्कृत के प्रथमा विभक्ति बहुवचन शब्द मातर: का लोकभाषा में प्रचलित शब्द है जिसका आशय माता या जननी है। मातर पर्व के दिन ग्राम्य देवी, शीतला माता, धन की देवी लक्ष्मी, गौ माता, अन्नपूर्णा माता की पूजा होती है। छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में घर परिवार में माता, पत्नी, पुत्री, बहन, बेटी, गाय, भैंस, अन्न, जेवर, जायदाद, भोजन, गोबर और गृहस्थी के उपयोग में आने वाले बर्तनों से लेकर सफाई के काम में आने वाले झाड़ू तक लक्ष्मी के रुप में सम्मान पाती है।
छत्तीसगढ़ की लोकमान्यता अद्भुत है। यहां रात को घर में झाड़ू नहीं लगाते, झाड़ू पर पैर नहीं रखते, खलिहान में फसल आने पर वहां जूते चप्पल पहनकर नहीं जाते, धान की कोठी में खुले पैर चढ़कर अनाज निकाला जाता है। गुरुवार को लक्ष्मी का दिन माना जाता है इसलिए गुरुवार को धान नहीं बेचते और ना ही इस दिन बेटी बिदा की जाती है।
यहां निवासरत कृषक और रावत जाति के लोग मातर पर्व के दिन मातृशक्ति का निमंत्रण देकर ग्रामीण विधि अनुसार पूजा करते हैं। यादव कुल के वंशज रावतों के द्वारा सभी माताओं की आराधना की जाती है। रंग बिरंगे परिधानों में सजकर निकले राऊत नाच नर्तकों का दल दोहा का उद्घोष करते गांव की गलियों में जब निकलता है तो दृश्य देखने लायक होता है। वीर रस, श्रृंगार रस, करुण रस और हास्य रस से सराबोर दोहा की छटा देखिए –
दिन देवारी मोर आगे भईया
मैं खइरखा में लऊठी भांजंव।
लान दे तेंदूसार के लउठी भईया
मैं पुरखा के मातर जागंव।।
तेंदूसार के लउठी भईया, सेर सेर घीव खाय।
जेकर पीठ में गरजे लउठी, कुहर कुहर जीव जाय।।
पूजा करे पुजेरी रे संगी, धोवा धोवा चांउर चढ़ाई।
पूजा होथे मोर मातर के, जे गोरस दूध पिलाई।।
पातर पान बंबूर के, केरा पान दलगीर हो।
पातर मुंह के छोकरी, बात करे बड़ धीर हो।।
सबके लउठी चिंगिर चांगर, मोर लउठी कुसवा हो।
धर बांध के डौकी लानेंव, वहू ला लेगे मुसवा हो।।
सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहे गणेश।
पांच देव मिल रक्षा करे, ब्रम्हा विष्णु महेश।।
यहू जनम अउ वहू जनम, लेवंव जनम अहीर हो।
चिखला कांदो में माड़ी गड़े, गोरस भीजैं शरीर हो।।
बइरी सन्मुख देख के काबर जी डराय हो।
परान हथेली मा राउत के, छाती रहय अड़ाय हो।।
कारज धीरे होथे संगी, काहे होत अघीर हो।
समे आए रूख-राई फरय, कतको सींच नीर हो।।
जइसे के तंय लिए-दिए, तइसे देबो असीस हो।
गाय गाय तोर कोठा भरय,जुग जियव लाख बरिस हो।।
राऊत दोहा संत महात्माओं के दृष्टांत पर आधारित होने के साथ ही कुछ लोगों की तात्कालिक रचनाएं भी होती है जिनमें छंदबद्धता नहीं होती है।
मातर परब और तैयारी
ग्रामीण क्षेत्रों में क्षेत्रीय विशेषता अनुसार मातर पर्व के रुप में कुछ अंतर हो सकता है लेकिन मूल में सभी जगह मातृशक्ति की ही पूजा की जाती है। जिस गांव में रावतों की संख्या ज्यादा होती है वे गोवर्धन पूजा की रात को गांव के गौठान में इकट्ठे होकर सांहडादेव के बाजू में ग्राम्य देवी देवता को स्थापित कर रातभर गंधर्व बाजा के ताल में दोहा वाचन करते हैं। सवेरे पूजा अर्चना के पश्चात गौ माता की पूजाकर और खिचरी का भोग लगाकर गौठान में उपस्थित ग्रामीणों को कद्दू की सब्जी, खीर, चावल और बड़ा, चौसेला मिश्रित खिचड़ी का प्रसाद बांटा जाता है। गौ माता में सभी देवी देवताओं का वास होता है। अतः उनको अर्पित किया भोजन सभी देवताओं को प्राप्त हो जाता है। ऐसी लोकमान्यता भी है। प्राचीन शास्त्रों में भी उल्लेखित है –
भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि पीत्वा तोयं जलाशयात् ।
दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
वेदों में कहा गया हैः- गावो विश्वस्य मातरः।
अर्थात् गाय सम्पूर्ण विश्व की माता है।
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुख:
‘गौएँ सभी प्राणियों की माता कहलाती हैं। वे सभी को सुख देने वाली हैं।’
कहीं कहीं मातर के दिन सर्वप्रथम गांव की शीतला माता और अन्य ग्राम्य देवी देवताओं को आमंत्रित कर गांव की गुड़ी में स्थापित किया जाता है। शीतला मंदिर के ध्वज (बैरक या डांग)और गांव में निवासरत ढीमर और केंवट जाति के घरों से मड़ई को लाकर स्थापित कर पूजन अर्चन किया जाता है। तत्पश्चात गांव के गौधन को एक स्थान पर खिचड़ी खिलाकर गौग्रास वाली खिचड़ी को प्रसाद के रुप में बांटा जाता है।
वन्य क्षेत्रों में दईहान की परंपरा देखने में आती है। यहां मातर का पर्व विशिष्ट तरीके से मनाई जाती है। जो ग्वाले गौचारण के लिए दईहान में रहते हैं इस दिन अपने मालिकों को आमंत्रित कर बुलाते हैं। फिर अपनी ईष्ट देवी देवताओं का पूजन कर गौमाता को सोहई बांधते हैं। दोहा के उद्घोष करते सोहाई बंधन करते हैं। कुम्हड़ा के फल को गायों और मवेशियों के बीच फेंक दिया जाता है। जो उनके पैरों से ठोकर खाकर फूट जाता है। उसी कुम्हड़े को पकाकर सब्जी बनाई जाती है जिसे खिचड़ी में मिलाकर प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है। इस दिन पशु मालिक ग्वाले का सम्मान वस्त्र,अनाज और धन राशि देकर करते हैं। कहीं कहीं पशु मालिकों द्वारा चरवाहों को मद्यपान भी करवाया जाता है।
नर्तकों की वेशभूषा और साज बाज
राऊत नृत्य करने वाले राऊत लोग सिर पर चमकीला साफा बांधते हैं। छींटदार रंगीन कपड़े के ऊपर सदरी (जैकेट) और विशिष्ट अंदाज में धोती पहनते है। मोर पंख और कौड़ी से सजे साजू धारण करते हैं। कमर पर घांघरा और पैरों में घुंघरू बांध कर नृत्य किया जाता है। हाथों में आकर्षक तेंदू की लाठियां लेकर अरे…रे…रे…के उद्घोष के संग लगातार दोहा वाचन चलता है। साथ में पारंपरिक वाद्य यंत्र मोहरी, दफड़ा, निशान (गुदुम), दमऊ और घोलघोला बजाने वाले वादकों का दल होता है। जो दोहा के लय अनुसार वादन करते चलते हैं। पहले गंधर्व जाति के लोग इन पारंपरिक वाद्य यंत्रों को बजाते थे लेकिन वर्तमान में पारंपरिक वाद्य यंत्र लुप्त हो रहे हैं और इनके स्थान पर बैंड पार्टी में प्रयुक्त वाद्य यंत्रों और केसियो आर्गन जैसे इलेक्ट्रॉनिक वाद्य यंत्रों का उपयोग होने लगा है।
मातर मडई
छत्तीसगढ़ के गांव गांव में होने वाले मडई (छोटा मेला) की शुरुआत मातर पर्व से हो जाता है। मातर पर्व के अवसर पर आयोजन ग्राम में बाजार सजता है और आसपास के ग्रामीण मडई का आनंद लेते हैं।
अंखरा विद्या का प्रदर्शन
अखाड़ा या अंखरा विद्या को एक तरह का छत्तीसगढ़िया मार्शल आर्ट कहा जा सकता है। जिसमें लाठी का प्रयोग शस्त्र के रुप में किया जाता है। रावत जाति के लोगों के द्वारा इस कला का प्रदर्शन किया जाता है। लाठी भांजना एक विशिष्ट कला है जिसमें आत्मरक्षा और प्रहार करने की कला सिखाई जाती है। शौर्य और साहस से भरे से विधा के जानकार लोगों की संख्या अब बहुत कम हो गई है लेकिन मातर पर्व में कहीं कहीं आज भी इस कला का प्रदर्शन किया जाता है। हैरतअंगेज और रोमांचक कारनामा देखकर दर्शक तालियां बजाने पर मजबूर हो जाता है। फरी(एक प्रकार का ढाल) और फुलेता (तेंदू की सजावट वाली लाठी) के माध्यम से अखरा कला का प्रदर्शन किया जाता था। वर्तमान में पानी से भरा हंडा दांत से उठाना,सीने पर पत्थर तोड़ना और ट्यूब लाईट आदि चबाना जैसे अन्य साहसिक कारनामों को भी शामिल कर लिया गया है।
गौ को माता के रुप में पूजने वाले भारतवर्ष और हमारे छत्तीसगढ में भी गौवंश की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। गौपालन को निकृष्ट और अलाभकारी कार्य समझे जाने के कारण गौ की दुर्गति हो रही है। मशीनीकरण के इस दौर में कृषि कार्य पूर्णतः यांत्रिक होने के कारण गौपालन में कमी आ रही है। लेकिन विचार करने योग्य बात है कि भविष्य में जब गौवंश ही नहीं रहेगा तो गोवर्धन पूजा और मातर पर्व जैसे लोकपर्व भी विस्मृत कर दिए जायेंगे। इसलिए हम सबको गौरक्षा और गौपालन के लिए आगे आना चाहिए।
आलेख
अब्बड़ सुग्घर हमर परम्परा ह मन ल गरब हे अपन परम्परा अऊ संस्कृति उप्पर जय छत्तीसगढ़ महतारी