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डिडिनेश्वरी माई मल्हार : छत्तीसगढ़ नवरात्रि विशेष

छत्तीसगढ़ राज्य का सबसे प्राचीनतम नगर मल्हार, जिला मुख्यालय बिलासपुर से दक्षिण-पश्चिम में बिलासपुर से शिवरीनारायण मार्ग पर बिलासपुर से 17 किलोमीटर दूर मस्तूरी है, वहाँ से 14 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में जोंधरा मार्ग पर मल्हार नामक नगर है। यह नगर पंचायत 21• 55′ उत्तरी अक्षांश और 82• 22′ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। मल्हार, कौशांबी से दक्षिण पूर्वी समुद्र तट की ओर जाने वाले प्राचीन मार्ग भरहुत, बांधवगढ़, अमरकंटक, मल्हार, सिरपुर होते हुए जगन्नाथ पुरी पर स्थित है।

मल्हार में समय-समय पर हुए उत्खनन एवं स्वर्गीय श्री गुलाब सिंह ठाकुर जी और स्वर्गीय श्री रघुनंदन प्रसाद पांडे जी को मल्हार से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि मल्हार का इतिहास ईसा पूर्व एक हजार साल पहले से कलचुरी-मराठा काल तक का क्रमशः है जिसे प्रथम काल – ईसा पूर्व 1000 से मौर्य काल के पूर्व तक, दूसरा काल- मौर्य काल से सातवाहन-कुषाण काल तक ईसापूर्व 325 से 300 ईस्वी तक , तीसरा काल शरभपुरीय तथा सोमवंशी काल 300 से 650 ईसवी तक, चौथा काल- परवर्ती सोमवंशी काल 650 से 900 ईसवी तक, पांचवा काल- कलचुरी काल 900 से 13वीं शताब्दी तक और फिर बाद का छठाकाल के रूप में हम परवर्ती कलचुरी काल को निर्धारण कर सकते हैं।

कलचुरियों के बाद मराठा और अंग्रेजों का भी शासन इस क्षेत्र में रहा। जिसे उतनी मान्यता नहीं दी जाती है। कलचुरी वंश के अंतिम शासक रघुनाथ सिंह जी को 1742 ईस्वी में नागपुर का रघुजी भोसले ने अपने सेनापति भास्कर पंत के नेतृत्व में इस क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया था ।

मल्हार अपनी शिल्पकला और विविधकलाओं के लिए विश्व प्रसिद्ध रहा है। यह नगर शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्म की शिल्प कला के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ भारतवर्ष की सबसे प्राचीनतम विष्णु जी की चतुर्भुजी प्रतिमा है। जिसमें ब्राम्ही लिपि में लेख है। जो ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की है। मल्हार जहाँ भव्य शिल्प कला के लिए प्रसिद्ध रहा है, वहीं अपनी सुक्ष्मकलाओं के लिए भी प्रसिद्ध रहा है, पर मल्हार अपने जिस शिल्पकला के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है ,उनमें से एक है, मल्हारवासिनी माँ डिडिनेश्वरी देवी की प्रतिमा।

माँ डिडिनेश्वरी

माँ डिडिनेश्वरी एक लोकोत्तर प्रभावशाली दिव्य प्रतिमा है। वह मल्हार के कुछ अज्ञात साधकों के माध्यम से रचनात्मक कार्यों तथा उनके उन्नयन हेतु प्रेरणा स्वरूप, स्वप्न में आकर कभी-कभी मार्गदर्शन दिया करती हैं। 4X 2X1 फीट की माँ, काले ग्रेनाइट पत्थर पर निर्मित है। इस प्रतिमा को डॉक्टर गोमती प्रसाद शुक्ला जी, सहायक संचालक शिक्षा, रायगढ़ ने मल्हार महोत्सव 1988 की स्मारिका के अपने आलेख में चौथी शताब्दी की प्रतिमा माना है। इसका बाद में पुरातत्त्वविदों ने खंडन करते हुए इसे कलचुरी कालीन प्रतिमा माना है। परंतु यह सर्वमान्य है कि यह पुरातत्त्वविदों ने इसे विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिमा माना है।

अंजलिबद्ध, ध्यानावस्थित, प्रशांतमुद्रा में अत्यंत आकर्षण की पूंजिभूत राशि, इसकी विशेषताएँ हैं। इस देवी की दोनों बाजू में 3-3 और नीचे में भी तीन देवियों का अंकन हैं। देवी प्रतिमा के बारे में विद्वानों में मत भिन्नता है। कुछ विद्वान इसे दुर्गा का ही रूप मानते हैं । तो कुछ विद्वानों ने इन्हें शिव की परित्यक्ता सुत स्वीकार किया है। कुछ मनिषियों ने इन्हें बुद्ध की पत्नी यशोधरा माना है किंतु देश के अनुरूप दुर्गा (महामाया) का रूप ही अधिक तर्कसंगत लगता है। यह गोमती प्रसाद शुक्ल जी ने माना है।

कलचुरी शासकों की आराध्या देवी रुप में भी इनकी प्रसिद्धि है। मान्यता है कि मल्हार नगर को राजा वेणु ने बसाया था। कुछ विद्वानों ने इसी कारण से राजा वेणु कि अराध्या के रूप में , इष्टदेवी के रूप में भी माना है। इन्हीं की कृपा से राजा वेणु का यश लोक में व्यापक हुआ और उनकी तपः ज्योति, देव लोक तक पहुँची। राजा वेणु के यश से मल्हार में स्वर्ण वर्षा हुई थी । उस घटना की पुष्टि यहाँ के कृषकों द्वारा यदा कदा स्वर्ण प्राप्ति से होती है।

महाभारत में उल्लेखित दुर्गा के सहस्त्रों नामों में से एक यह एक नाम है। जो अपभ्रंश रूप में प्रसिद्ध हो गया है। ग्रामीण अंचल में कुँवारे लड़कों को डड़वा या डीड़वा कहा जाता है। उसी तरह कुँवारी लड़कियों को डिड़वी, डिंडिन, या डिंडन कहा जाता है। मल्हार में यह निषाद समाज में और अन्य समाजों में प्रचलित शब्द है और चूँकि इस देवी का निषाद समाज द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया था तो उनकी आराध्या देवी शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्विनी रूप में यह पार्वती की प्रतिमा डिडिनेश्वरी रूप में प्रसिद्ध हो गयी। तपोमुद्रा में यह स्पष्ट है कि यह तपस्यारत पार्वती की प्रतिमा है । यद्यपि पार्वती जी की तपोभूमि हिमालय है। फिर भी शिव की आराधना के निमित्त या किसी-किसी मनौती के अभिप्राय से इस स्थल पर तपस्विनी एवं महामाया पार्वती की मूर्ति की स्थापना किया होगा।

डिण्डिम उग्रनाद का पर्याय है। भगवान शंकर का डमरू भी डिण्डिम ध्वनिवाला है। अतः शिव के साहचर्य से डिण्डिमनाद या अनहद नाद की स्वामिनी पार्वती हुई। कालांतर में यह शब्द विकृत होकर डिण्डन हो गया। मल्हार के इस मंदिर परिसर में उत्खनन कार्य होने से परिसर में पुरातत्व अवशेष प्राप्त हुआ था। इससे इस स्थल पर एक विशालकाय मंदिर होने का भी पता चला है। जो काल के गर्त में समा गया है। इस मंदिर का प्रणाला उत्तर दिशा में मिला था। इस पर मकर बना हुआ है, जो एक कुंड में जाकर समाप्त होता है।

माँ डिडिनेश्वरी

पहले, मल्हार में, राज्य सरकार द्वारा संरक्षित एकमात्र स्मारक था। जिसे 18 अप्रैल 1991 की एक त्रासदी घटित हो जाने के कारण इस देवी प्रतिमा को चोरों द्वारा चुराकर इस प्रतिमा को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी के नंबर के एक सफेद रंग की वैन के माध्यम से मैनपुरी ले जाया गया था। जिसे सरसों के खेत में गड्ढा खोदकर गाड़ दिया गया था।

जिसे तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सुशील मोदी और पुलिस अधीक्षक संत कुमार पासवान और थाना प्रभारी मंडावी जी के सजगता से दिनांक 19 मई 1991 को बरामद किया गया। उसे बिलासपुर सिविल लाइन थाने में दर्शन हेतु रखा गया। उसे दिनांक 7 जून 1991 पूरे क्षेत्र के लोगों के द्वारा पदयात्रा करते हुए कीर्तन भजन और करमा नृत्य करते गाते-बजाते, गाने-बाजे की धून में मूर्ति को पुनः मल्हार लाकर प्राण प्रतिष्ठित किया गया। इस घटना का मैं प्रत्यक्षदर्शी था। और नाच भी रहा था। तब से परिसर में 1-4 का नगर सैनिक सुरक्षा हेतु तैनात किया गया है ।

सन् 2000 ईस्वी से मंदिर का जीर्णोद्धार किया जा रहा है। जो धीरे-धीरे पूर्णता की ओर अग्रसर है। इसे नए स्वरूप ,उड़ीसा के कारीगरों के द्वारा दिया जा रहा है । इससे मंदिर की कलात्मकता में वृद्धि हुआ है । मंदिर की सुंदरता बढ़ाने के लिए राजस्थान से लाए गए गुलाबी पत्थरों को तराश कर मंदिर के दीवारों का निर्माण किया गया है । अब यह छत्तीसगढ़ शासन द्वारा ‘लोक न्यास ट्रस्ट माँ डिडिनेश्वरी मंदिर’ के माध्यम संचालित किया जा रहा है। साल में दोनों ही नवरात्रियों में यहाँ घी और तेल का भी मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। जिसकी संख्या हजारों में होती हैं।

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेज अधिकारियों द्वारा इस प्रतिमा को उठाने का अनेक बार प्रयास हुआ था। पर उस समय उन लोगों को तत्काल शारीरिक पीड़ा होने लगी थी। जिस कारण वे इस प्रतिमा को नहीं ले जा सके थे। इस कारण से इसकी सुरक्षा हो सकी थी।

डिडिनेश्वरी का एक नाम मल्लिका भी है। ‘मल्लालपतन’ जो ‘मल्लिकापत्तन’ का परिवर्तित नाम है। उस समय यह नगर विशाल वैभवशाली नगर के रूप में अवस्थित था और उस समय यह देवी नगर की अधिष्ठात्री देवी थी। जिसके कारण इस देवी का एक नाम मल्लिका भी है। अनेक साधकों का मत है कि मल्हार एक सिद्धशक्तिपीठ भी है। यहाँ रात्रि में विश्राम करने पर पायल और घुंघरु के मंदस्वर झंकृत होते हैं। इस सत्य का साक्षात्कार राधोगढ़ के साधक ‘बाबादीप’, कामाख्या के साधक रामजी मिश्र और मुंगेर के युवा तांत्रिक बलराम तिवारी ने प्रत्यक्ष किया है। जिसकी पुष्टि स्थानीय पुजारी श्री चौबे जी भी करते हैं।

मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं, पर मूर्ति शिल्पशास्त्र के अनुसार डिडिनेश्वरी माई (डिड़िनदाई) की प्रतिमा कलचुरी काल की 10-11वीं शताब्दी की ही है। देवी 4 फीट की ऊंचाई की गहरे काले रंग की ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित पद्मासन मुद्रा में तपस्या करती हुई, राजकन्या होने का एहसास कराती है। तो सिर के पीछे स्थित प्रभामंडल होने से उन्हें देवी के रूप में प्रकट करती है। सिर पर मुकुट, कानों में कुंडल, गले में हार, भुजाओं में बाजूबंद, पैरों में पायल, ललाट में बिंदी आदि सोलह श्रृंगार की हुई दिव्य अलौकिक प्रतिमा हैं।

जिसे ध्यान से देखने पर सुबह बालिका दोपहर में युवती और रात्रि में महिला की आभा लिए स्पष्ट प्रतीत होती है। पादपृष्ठ में दोनों जानुओं के नीचे सिंह निर्मित होने से इसे कुमारी (पार्वती) की, शिव को पति रूप में प्राप्त करने की पार्वती की प्रतिमा प्रतीत होती है, जिसने भगवान शिव को पति रूप में पाने तपस्या की।

इसीलिए यह मान्यता है कि कोई भी युवती अपने लिए इच्छितवर की प्राप्ति चाहती हैं वो इनके दर्शन और मनौती बाँधती हैं और मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित कराती हैं, जिससे उसे इच्छितवर की प्राप्ति हो जाती है।

आलेख

श्री हरिसिंह क्षत्री
मार्गदर्शक – जिला पुरातत्व संग्रहालय कोरबा, छत्तीसगढ़ मो. नं.-9407920525, 9827189845

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