स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ भी कभी पीछे नहीं रहा है। छत्तीसगढ़ के साथ ही पूरे देश के आंदोलन में इस भूमि के सिपाही सपूत सक्रिय रूप से भाग लेते रहे लेकिन उनका समुचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका है। 1856-57 में सोनाखान के वीर सपूत नारायण सिंह ने अंग्रेज सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था और आगे भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ के अन्यान्य लोगों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है जिसका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका है।
नारायणसिंह:-
1857 में अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध पूरे देश में आजादी के लिए सशस्त्र क्रांति हुई थी लेकिन आपसी तालमेल और कुछ राजा महाराजाओं के असहयोग के कारण वह असफल हो गया और ब्रिटिश अधिकारी और पाश्चात्य इतिहासकारों ने इसे एक सामान्य सैनिक विद्रोह माना था। उस काल में छत्तीसगढ़ में भी सैन्य क्रांति की शुरूवात हुई थी जिसका नेतृत्व ब्रिटिश कालीन बिलासपुर (वर्तमान बलौदाबाजार) जिलान्तर्गत सोनाखान के जमींदार नारायणसिंह ने किया था। जनमानस ने नारायणसिंह की निर्भिकता और क्षेत्र में उत्पात मचा रहे खंखार शेर का शिकार करके मुक्ति दिलाने के कारण उन्हें ‘‘वीर‘‘ नायक मानने लगा। तब से उन्हें वीर नारायणसिंह कहा जाने लगा।
इतिहास के पन्नों में सन् 1856-57 के आकाल को ‘भुइयां अकाल‘ कहा जाता है। चारों ओर त्राहि त्राहि हो रही थी। अनेक लोग राहत कार्य के रूप में तालाब खुदवाने लगे थे और मजदूरी के रूप में अनाज देते थे ताकि परिवार भूखा न रहे। हमारे घर में मुझे डिप्टी कमिश्नर के द्वारा खेदूराम साव के नाम अपने मालगुजारी गांव हसुवा, टाटा और लखुर्री में तालाब खुदवाकर लोगों को भूखों मरने से बचाने के लिए प्रशस्ति पत्र दिया गया था। संभव है छत्तीसगढ़ के गांवा में तालाब खुदवाकर लोगों को राहत पहुंचाया गया होगा। बहरहाल, ऐसे समय में अंग्रेजों के दमनात्मक रवैया से त्रस्त सोनाखान के जमींदार रामाराय और उनके पुत्र नारायण सिंह ने महाजनों से कर्ज लेकर लोगों को बांटने लगे थे। उनके उपर महाजनों का कर्ज बहुत बढ़ गया था जिसके कारण भविष्य में कोई उन्हें कर्ज देने को तैयार नहीं था इसलिए जबरदस्ती करने लगे। महाजनों ने जब अंग्रेज सरकार से इस सम्बंध में शिकायम की तब उन्हें गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया गया। इसके पूर्व भी सोनाखान के जमींदार ने अंग्रेजों के विरूद्ध बगावत की थी। लेकिन जेल में उनकी भेंट स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों से हुई जिन्हें अंग्रेज सरकार के द्वारा द्वेषवश जेल में डाल दिया गया था। तब वह कुछ लोगों की सहायता से जेल से फरार हो गया। जेल से उनके फरार होने से अंग्रेज सरकार सकते में आ गया। फिर उन्हें किसी तरह गिरफ्तार करने की योजना बनाई गई। इस बात की आशंका नारायणसिंह को थी कि उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज सेना कभी भी सोनाखान में हमला कर सकती है। इसलिए उन्होंने लगभग 500 लोगों की सेना लेकर सोनाखान के जंगल में मोर्चा बंदी कर ली थी और अपने पुत्र गोविंदसिंह समेत परिवारजनों को सुरक्षित स्थान में भेज दिया था। अंग्रेज के इस सैन्य अभियान में सोनाखान के आसपास के जमींदारों से मद्द की और मोर्चा बंदी की। जमींदारों की सैन्य सहायता से लड़ी गई इस लड़ाई में नारायण सिंह के अस्त्र शस्त्र खत्म हो गये इसी समय ब्रिटिश अधिकारियों के द्वारा जंगल में आग लगवाने के कारण नारायणसिंह ने आत्म समर्पण कर दिया। अत्यंत सुरक्षा व्यवस्था में उन्हें रायपुर लाया गया और जेल में पुनः डाल दिया गया।
छत्तीसगढ़ के इतिहासकार डॉ. रामकुमार बेहार ने छ.ग. राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर के द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘‘छत्तीसगढ़ का इतिहास‘‘ में लिखा है कि 02 दिसंबर 1857 को आत्म समर्पण किये नारायणसिंह को भारी सुरक्षा व्यवस्था में रायपुर लाया गया और 05 दिसंबर 1857 को डिप्टी कमिश्नर इलियट के सम्मुख पेश किया। उसके उपर मुकदमा चलाया गया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।‘‘ अंत में 10 दिसंबर 1857 को रायपुर को फांसी पर चढ़ा दिया गया।
छ.ग. राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर के द्वारा प्रकाशित डॉ. श्रीराम धुप्पड़ की पुस्तक ‘दुर्ग जिले के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास में उन्होंने लिखा है कि निःसंदेह नारायणसिंह जमींदार के रूप में महाजनों का कर्जदार था लेकिन आकाल में जनता की भलाई के लिए उन्होंने अनाज की मांग की लेकिन नहीं मिलने पर उन्हें महाजनों की कोठी को लूटने का उपक्रम करना पड़ा। अंग्रेज सरकार की नजरों में यह जुर्म था मगर इसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं था। लेकिन इस अपराध के बदले ब्रिटिश अधिकारियों ने उसके प्रति जो रूख अपनाया वह अनैतिक ही नहीं प्रत्युत घोर पाश्विक भी था। क्रांकि के इतिहासकारों का तो यह भी मत है कि नारायण सिंह को जनता की सहायता करने के लिए प्रशंसा का पात्र बनाया जाना था किंतु इसके विपरीत ब्रिटिश अधिकारियों ने पक्षपात और प्रतिशोधपूर्ण नीति अपनायी और फांसी पर चढ़ा दिया जो उचित नहीं था।
बैरिस्टर छेदीलाल:-
ठाकुर छेदीलाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे केवल स्वतंत्रता संग्राम और राजनीति तक सीमित नहीं थे बल्कि वे एक उच्च कोटि के अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाज सेवक और धर्मपरायण थे। वे महात्मा गांधी की विचारधारा से अत्यंत प्रभावित थे। इसी कारण वे हमेशा महात्मा गांधी के कंधा से कंधा मिलाकर चलते थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ और अकलतरा क्षेत्र के दीन हीन, दलित शोषित और पीड़ित लोगों के लिए अनेक समाज सुधार कार्य करते हुए उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जनजागृति लाने के लिए लोकमान्य तिलक जी ने जिस प्रकार महाराष्ट्र में ‘‘गणेशोत्सव‘‘ की शुरूवात की और गणेश उत्सव की आड़ में स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति तय की जाती थी ठीक उसी प्रसार उन्होंने अकलतरा में रामलीला की शुरूवात की थी। इसका आयोजन वे स्वंय करते थे। इसके लिए उन्होंने एक नाटक मंडली बनाई और कलकत्ता के कालाकारों के सहयोग से रामलीला का आयोजन करने लगे। उस समय मनोरंजन के कोई साधन नहीं था ऐसे में रामलीला को देखने बहुत अधिक संख्या में छोटे बड़े सभी लोग आने लगे थे। अकलतरा के रामलीला की तर्ज पर शिवरीनारायण में नाटक और नरियरा में रासलीला का आयोजन होने लगा था। इस आयोजन के पीछे मनोरंजन के साथ साथ स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लोगों में जन जागृति जगाना प्रमुख था।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक सेनानियों के प्रेरणास्रोत छत्तीसगढ़ के एक छोटे से कस्बे अकलतरा के सम्पन्न परिवार में जन्में ठाकुर छेदीलाल के छात्र जीवन से महाप्रयाण तक की गाथाएं बड़े बुजुर्गों के द्वारा भाव विभोर होकर सुनाते हैं। अपने सद्कर्मो, त्याग और बलिदान के द्वारा न केवल मातृभूमि के ऋणो से मुक्ति पाई बल्कि क्षेत्र की जनता और समाज को एक नई दिशा दे गये थे। उनकी विलक्षण व्यक्तित्व और प्रतिभा से प्रभावित होकर पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, बल्लभभाई पटेल संत विनोबा भावे और नेता जी सुभाषचंद्र बोस प्रभावित थे। ऐसे व्यक्तित्व से हमारा प्रदेश निःसंदेह गौरवान्वित है।
सन 1914 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर जब वे स्वदेश लौटे तब उन्होंने यहां अंग्रेजों के अत्याचार, दमन से आक्रांत जनता त्राहि त्राहि कर रही है और जिस तरह से महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू विलायत से बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त करके स्वदेश लौटकर सुखी जीवन जीने के बजाये स्वतंत्रता संग्राम के समर में कूद पड़े थे, उसी प्रकार बैरिस्टर छेदीलाल भी कूद पड़े। शुरू में उन्होंने जरूर वकालत की, अध्यापन कार्य किया मगर उन्हें ये रास नहीं आया और देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे सेनानियों के साथ हो गये। उन्होंने देश की आजादी के लिए राष्ट्रीय परिपेक्ष्य के साथ साथ अपने छत्तीसगढ़ के लोगों में जन जागृति फैलाने और उनके सामाजिक उत्थान के लिए कार्य करने लगे थे। वे छत्तीसगढ़िया अस्मिता के पोषक थे। सन 1939 में जबलपुर के त्रिपुरी कांग्रेस की बैठक में स्वागत संगीत से लेकर मनोरंजन तक में छत्तीसगढ़िया कलाकारों को आगे कर दिया था। उनकी गीत, संगीत से पूरी सभा भाव विभोर हो गई थी। वरिष्ठ अधिवक्ता साधुलाल गुप्ता के अनुसार सन् 1949-50 में बिलासपुर के सुधाराम साव के बगीचे में ठाकुर साहब ने एक बैठक रखकर छत्तीसगढ़िया अस्मिता की सुरक्षा के लिए छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए संगठित होने के लिए आव्हान किया। इस बैठक में ठाकुर छेदीलाल के अलावा खूबचंद बघेल, द्वारिकाप्रसाद तिवारी,साधुलाल गुप्ता, ठाकुर प्यारेलाल सिंह आदि उपस्थित थे। आगे चलकर खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ महासंघ बनाकर इस आंदोलन को आगे बढ़ाया था।
1916 में लोकमान्य तिलक के द्वारा होमरूल लीग की स्थापना की गई और बिलासपुर में भी नवयुवकों को जागृत करने के लिए एक सेवा समिति का गठन किया गया। लीग स्थापना के सम्मेलन में पंडित रविशंकर शुक्ल, ई. राघवेन्द्र राव, हरिसिह गौर और बैरिस्टर छेदीलाल उपस्थित थे। 1919 में ब्रिटिश सरकार जब रोलेक्ट एक्ट पास किया तो सम्पूर्ण देश के साथ साथ छत्तीसगढ़ में भी इसका विरोध किया गया था। इसमें बैरिस्टर छेदीलाल का प्रमुख योगदान था। ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन‘‘ में भाग लेने के कारण बैरिस्टर छेदीलाल को कई बार जेल जाना पड़ा था। 1921 में गढ़वाल क्षेत्र भीषण आकाल की चपेट में आ गया था जिसके निवारण के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय ने ठाकुर छेदीलाल को वहां भेजा था। वहां जाकर उन्होंने लोगों की खूब सेवा की और सामाजिक सदभाव बनाये रखा। इसी प्रकार 25 सितंबर 1926 को महात्मा गांधी बिलासपुर आये थे तब उनका स्वागत सत्कार बैस्टिर साहब ने किया था। वे छत्तीसगढ़ में सहकारिता आंदोलन के प्रणेता थे। उन्होंने पूरे छत्तीसगढ़ में संभागीय और जिला स्तरीय कृषि और औद्योगिक प्रदर्शनी का आयोजन करके गौंटिया, मालगुजार, जमींदार और राजा महाराजाओं को इसके बारे में चर्चा करके प्रोत्साहित किया जाता रहा है। डिस्ट्रिक्ट कौंसिल बिलासपुर के चेयरमेन रहते ठाकुर छेदीलाल ने चांपा में यहां के जमींदार के सहयोग से 16, 17 और 18 मार्च 1928 को जिला स्तरीय कृषि एवं औद्योगिक प्रदर्शन का आयोजन किया था जिसका उद्घाटन कमिश्नर बिलासपुर ने किया था। तीन दिवसीय इस आयोजन में विभिन्न प्रकार की परिचर्चा, वादविवाद, कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी, के अलावा पारितोषिक वितरण किया गया था। अनेक उल्लेखनीय कार्य करते हुए उन्होंने अंत में 18 सितंबर 1956 में महाप्रयाण किया।
डॉ. ई. राघवेन्द्र राव:-
बिलासपुर के गोंड़पारा मुहल्ले में नागन्ना बाबू के घर 04 अगस्त 1889 को ई. राघवेन्द्र राव का जन्म हुआ। चांटापारा स्कूल से प्रायमरी और मीडिल पास करके म्युनिसिपल हाई स्कूल बिलासपुर से मेट्रिक पास हुआ तब किसी ने कल्पना नहीं की रही होगी कि यह बालक एक दिन भारतीय स्वाधीनता के लिए संघर्षरत होकर देशभक्ति के उत्कृष्ट आचरण का अनुपम उदाहरण बनेगा ? 1909 में मेट्रिक परीक्षा पास करके उच्च शिक्षा के प्रयाग पहुंचे लेकिन बाद में हिस्लॉप कालेज नागपुर में भर्ती हो गये। फिर बैरिस्टरी की शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैंड जाना पड़ा। वहां अध्ययनकाल में अनेक भारतीयों के संपर्क में आये। इनमें ठाकुर छेदीलाल, वीरसावरकर, व्ही. व्ही. गिरी और मुकुन्दीलाल प्रमुख थे। 1914 में बैरिस्टर बनकर वे स्वदेश लौटे और बिलासपुर आ गये। उस समय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथ में राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर थी। श्री राव देश की राजनीति में रूचि लेने लगे। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन बिलासपुर नगरपालिका के अध्यक्ष पद से आरंभ किया। इस पद पर वे 1916 से 1927 तक बने रहे साथ ही वे डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के अध्यक्ष पद पर लगातार आठ वर्षों तक रहे। इस दरम्यान उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कार्य किया और लोकप्रिय हो गये।
मध्यप्रदेश शासन के पूर्व मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष श्री राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल के अनुसार श्री ई. राघवेन्द्रराव मेघावी, प्रतिभाशाली, बुद्धिमान, सक्षम एवं विलक्षण व्यक्ति थे। वे उज्वल चरित्रवान सतपुरूष थे। उन्होंने जीवन की अल्प अवधि में ही दूसरों की अपेक्षा शीघ्र उच्च पदों को सुशोभित ेिकया। कुछ लोग मानते हैं कि देशभक्ति धरना प्रदर्शन, जेल जाने, बड़ी बड़ी समाओं में भाषण देने से ही होता है मगर राव साहब स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी थे, ऐसे सेनानी जो सिर पर कफन बांधकर आगे बढ़ते रहे, न धन की चाह थी न यश की। उच्च पदों पर रहते हुए उन्होंने अपने लिए धन संग्रह नहीं किया बल्कि लोगों की सेवा में बांटते ही रहे।
बिलासपुर के बार रूम में ई. राघवेन्द्र राव के चित्र का अनावरण करते हुए तत्कालीन मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने कहा था कि 1915 से मेरा श्री राव से परिचय है और हम दोनों मिलकर इस प्रांत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन करते रहे। उन्होंने जीवन पर्यन्त अपने हृदय में स्वाधीनता की ज्वाला को बुझने नहीं दिया। उनका आंदोलन प्रांत व्यापी था।
लोकमान्य तिलक के स्वर्गवास होने के बाद स्वाधीनता संग्राम की बागडोर महात्मा गांधी ने सम्हाल ली थी। तब से ई. राघवेन्द्र राव महात्मा गांधी के अनुयायी हो गये। 1920 में जब महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तब श्री राव ने वकालत छोड़ दी। उसी वर्ष वे सी. पी. हिन्दी भाषा महाकोशल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और जब तक कांग्रेस में रहे तब तक अध्यक्ष ही रहे। आगे चलकर वे देशबंधु चितरंजनदास और मोतीलाल नेहरू के स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये। 1926 में राव साहब सी. पी. के विधान सभा के सदस्य चुने गये। 1927 में श्री राव के राजनीतिक जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव आया। उन्होंने सोचा कि अंग्रेज शासन का अंध विरोध करने के बजाये देश हित में अनुक्रियाशील सहयोग ;त्मेचवदेपअम बव.वचतंजपवदद्ध के माध्यम से कार्य करना अधिक लाभदायी होगा। ऐसे सहयोग से शासन के तंत्र और सत्ता से लाभ उठाकर अपने देश वासियों की आवश्यकता एवं मांगें पूरी की जा सकती है और उनके दुख दर्द मिटाकर उनको सुकुन प्रदान किया जा सकता है। फिर 38 वर्ष की उम्र में वे प्रांत के मुख्यमंत्री बने और शिक्षा विभाग भी उन्हीं के पास था। इस पद पर वे 1930 तक रहे। यद्यपि वे शासन के महत्वपूर्ण अंग थे फिर भी 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार कर साहस, दुढ़ निश्चय और स्वतंत्र व्यक्तित्व का प्रमाण दिया। 1930 में वे सी. पी. के राज्यपाल के गृह सदस्य नियुक्त हुए। इस पद पर वे 7 वर्षों तक रहकर जनसेवा की। उनके प्रयास से सी. पी. के किसानों को कर्ज से मुक्ति मिली। उनके ही प्रयास से नागपुर में उच्च न्यायालय की स्थापना हुई थी। आगे चलकर ई. राघवेन्द्र राव सी. पी. के गवर्नर बनाये गये। उस समय उनकी मंशानुरूप् गवर्नर हाउस के सोफा व गद्दे और परदे आदि निकाल कर उसकी जगह खादी के वस्त्रों का उपयोग किया गया। स्वयं भी खादी व गांधी टोपी पहने। गवर्नर हाउस में यूनियन जैक का अंग्रेजी झंडा फहराता रहा मगर उनके सिर पर गांधी टोपी और शरीर पर खादी वस्त्र शोभा पाता रहा। उन दिनों खादी वस्त्र और गांधी टोपी को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था मगर राव साहब अडिग रहे। इस कारण वे ‘‘गांधी टोपी और खादी धारी गवर्नर‘‘ के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हुए।
1939 में भारत के सचिव के सलाहकार बनकर वे लंदन गये। तब उन्होंने भारतीय सुरक्षा समस्याओं का विशेष अध्ययन किया और भाषावार प्रांतों के पुनर्गठन की योजना तैयार की। अंतिम समय में वे वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में प्रतिरक्षा मंत्री बने। इस प्रकार उन्होंने देश व देशवासियों की सेवा करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे और 15 जून 1942 को की अल्प अवस्था में दिल्ली में उनका स्वर्गवास हो गया।
डॉ. ई. राघवेन्द्र राव देश और प्रदेश के उन देशभक्तों में से हैं जिनका मूल्यांकन सही ढंग से नहीं हो सका है। उन्होंने जीवन भर राष्ट्र हित को सार्वेपरि माना और राष्ट्र के लिए जीते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। ब्रिटिश सरकार के यूनियन जैक तले गवर्नर के रूप में यदि कोई श्वेत खादी धारी और गांधी टोपी वाला कुर्सी पर बैठने का साहस किया है तो वे डॉ. ई. राघवेन्द्र हैं।
गजाधर साव:-
मुंगेली जिलान्तर्गत मुंगेली लोरमी रोड में एक छोटा सा श्री गजाधर साव का मालगुजारी गांव है। यहां उनका छोटा साव परिवार रहता था। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए उन्होंने मुंगेली में भी एक घर बनवा लिया था। यहां उनके परिवार का बालानी चौंक में एक राधाकृष्ण का मंदिर भी बनाया गया बिलासपुर जिलान्तर्गत एक तहसील मुख्यालय था। लेकिन अंग्रेजों की दासता से देश की जनता त्रस्त हो गई थी और हर तरह से अंग्रेजों की नीतियों का विरोध कर रही थी। इसके लिए कांग्रेस जैसा संगठन बना जिसके बेनर तले हर जगह विरोध के स्वर निकलने लगे थे। मंुगेली का देवरी गांव भी इससे अछूता नहीं था। देवरी के मालगुजार श्री गजाधर साव भी अपने मित्र सहयोगियों के साथ इस आंदोलन में कूद पड़े। गजाधर साव को 1905 में बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में सभी बड़े नेता जानने लगे। 1917 में होमरूल आंदोलन के समय वे बिलासपुर शाखा के प्रमुख प्रतिनिधि थे। 1921 में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार प्रसार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। 26 मार्च 1931 में कांग्रेस के करांची अधिवेशन में कांग्रेस के अपने गांव के दलित शोषित लोगों को लेकर पहुंचे थे और वहां अपने क्षेत्र की बात रखी जिससे कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सरदार बल्लभ भाई पटेल उनके कार्यों से बहुत प्रभावित हुए और मंच से ‘छत्तीसगढ़ का तेज तर्रार नेता‘ कहकर संबोधित किया। जनवरी 1932 में मुंगेली में विदेशी समान बेचने वाले एक दुकान में पिकेटिंग करने पर अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें तीन माह का कारावास और 125 रूपये का अर्थदंड सुनाया गया। सामाजिक सुधार और दलित शोषत वर्ग के अछूतोद्धार के प्रति भी गजाधर साव बहुत जागरूक थे। 1917 में मुंगेली के एक बड़ी सभी में पंडित सुंदरलाल शर्मा के द्वारा दलित शोषित वर्ग के अस्पृस्य समझे जाने वाले लोगों को जनेऊ धारण कराया गया। उनके इस कार्य से प्रभावित होकर उन्होंने भी ऐसे लोगों को जनेऊ धारण कराया और अपने मुंगेली के पैत्रिक राधाकृष्ण मंदिर में उन्हें प्रवेश कराया।
22 नवंबर से 28 नवंबर 1933 तक एक सप्ताह महात्मा गांधी जी की छत्तीसगढ़ यात्रा बहुत प्रभवशाली और प्रेरणादायी रही। वे इस क्षेत्र में अस्पृस्यता निवारण के क्षेत्र में हो रहे कार्यों से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने इस कार्य के लिए पंडित सुंदरलाल शर्मा की प्रशंसा की बल्कि उन्हें अपना गुरू निरूपित किया था। तब यहां दलित शोषित वर्ग के लिए ‘सतनामी आश्रम‘ संचालित था जिसके बाबा रामचंद्र संचालक थे। उस समय इस क्षेत्र में गुरू अगमदास, राजमहंत नैनदास महिलांग, राजमहंत अंजोरदास कोसले, राजमहंत विशालदास, विजयशंकर दीक्षित, शंकरराव गनोदवाले और देवरी के गजाधर साव आदि समाज सुधारक के रूप में बहुत सक्रिय थे। यहां का किसान आंदोलन कांग्रेस के आंदोलन के साथ शुरू हुआ था जिसमें यहां के दलित और शोषित वर्ग के लोगों का पूरा समर्थन था।
16 दिसंबर 1936 को पंडित जवाहरलाल नेहरू मुंगेली आये तब गजाधर साव ने उनसे आग्रह किया कि वे आगर नदी के पुल को पैदल पार कर नगर प्रवेश करें। लेकिन नेहरू जी उनकी बात नहीं माने तब वे उनके माटर गाड़ी के सामने लेट गये। तब झल्लाकर वे कहने लगे कि या तो इस पागल आदमी को पुल से नीचे फेंक दो या फिर उसके उपर मोटर गाड़ी को चला दो। फिर भी जब गजाधर साव ने अपनी जिद नहीं छोड़ी तब वे मोटर गाड़ी से नीचे उतर कर उनके साथ आगर नदी के पुल को पैदल पार करके नगर प्रवेश किया।
1917 में मुंगेली में दलित और शोषित वर्ग को द्विजोचित अधिकार दिलाने के लिए एक विशाल सम्मेलन गजाधर साव के मेहनत का ही प्रतिफल था। मुंगेली तहसील और देवरी के वे त्यागी पुरूष अपने किस्म के एक ही नेता थे। वे कांग्रेस के हर अधिवेशन में जाते थे और वहां दलित शोषत वर्ग के किसानों, उनकी अस्पृस्यता निवारण और गौहत्या रोकने की आवाज जरूर उठाते थे। कभी उपवास करते, कभी बड़े नेताओं के सामने धरना देते, उनके मोटर गाड़ियों के सामने लेटकर आंदोलन करते थे। क्षेत्र के दलित शोषित और गरीबों के प्रति उनमें गजब की तड़पन थी। वे अपना सब कुछ उनके लिए न्योछावर कर दिये। वे उन्हीं के लिए जिये और उन्हीं के लिए मरे। देवरी में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, किसान संगठन बनाया, उन्हें जनेऊ धारण कराया और मंदिर प्रवेश कराया। चरखा संघ की स्थापना की, स्वयं भी खादी कपड़े पहने और दूसरों को भी खादी पहनने की प्रेरणा दी। 1923 के सत्याग्रही में गजाधर साव और गनपति लाल बैस मुंगेली तहसील के प्रथम सत्याग्रही थे। वे अनेकों बार जेल गये। फिर भी वे सरल, सजग और लोकोद्ध सदानंद लाल,ार में अग्रणी रहे। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी त्यागी संस्मरण हमेशा हमें प्रेरणा देती रहेगी।
ऐसे अनेक मुंगेली तहसील में स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे जिनके नाम पुराना बस स्टैंड मुंगेली में एक शिलालेख में दर्ज है जिनमें बान्दु उर्फ बंदर, सदाशिव, कालीचरण शुक्ल, रामदयाल, नारायण राव, रघुपतराव, हीरालाल दुबे, सदानंद लाल, अवधराम, ददना सोनार, कन्हैयालाल, मथुराप्रसाद सोनार, गंगा प्रसाद, हरीराम, उदयशंकर, रामबुझास, भीखा जी, बल्देव सिंह, रामचरण, बाबूलाल केशरवानी, द्वारिका प्रसाद केशरवानी, छोटेलाल, सरजू प्रसाद, देवदत्त भट्ट, शिवलाल, भाईराम सेंगवा, भवानी शंकर, रघुबर प्रसाद, श्यामलाल, सिद्धगोपाल, अध्योध्या प्रसाद, झाड़ूराम, मल्लूराम तमेर, रामगोपाल, बंशीधर तिवारी, गनपतलाल, भागवत प्रसाद क्षत्री, गजानंद, रामचंद्र साव आदि।
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