मानव ने धरती पर जन्म लेकर सबसे पहले नभ में चमकते हुए गोले सूर्य को देखा। धीरे-धीरे उसने सूर्य के महत्व समझा और उसका उपासक हो गया। सूर्य ही ब्रह्माण्ड की धुरी है। जिसने अपने आकर्षण में सभी ग्रहों एवं उपग्रहों को बांध रखा है। इसका व्यवहार किसी परिवार के मुखिया की तरह ही है जो सभी परिजनों को स्नेह का समान वितरण करता है।
प्राचीन पुरातात्विक अवशेषों एवं अभिलेखों से ज्ञात होता है कि धरती की सभी सभ्यताओं में सूर्य की उपासना प्रमुखता से होती थी। यूनान, मिश्र की सभ्यताओं से लेकर सिंधू घाटी की सभ्यता तक सूर्य प्रथम पूज्य हैं।
राजाओं ने अपने कुल को अमरता प्रदान करने के लिए सूर्य के साथ जोड़ा और सूर्यवंशी कहलाए तथा विश्व की अनेको सभ्यताओं में भिन्न-भिन्न नामों से जाने वाले सूर्य की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। सूर्य मानव सभ्यता के लिए उर्जा का प्रथम स्रोत है, जब धरती अंधकार में डूब जाती है, तब सूर्य ही धरती पर आकर उजाला फ़ैलाता है, प्रकाश करता है।
वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे।
सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक, सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है।
छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है।
सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है।
पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है।
अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
भगवान भास्कर की पूजा सिर्फ अपने देश में नहीं, बल्कि दुनिया के कई मुल्कों में अलग-अलग नाम, मान्यता और अपनी-अपनी परंपराओं के अनुसार होती है। प्राचीन इतिहास को खंगालें, तो हिंदू बौद्ध धर्म के अलावा यूनान, मिस्र, एजटेक (सेंट्रल मैक्सिको), चीन, तुर्की और इंका (दक्षिण अमेरिका) सभ्यता में भी सूर्य की पूजा होती थी।
वर्तमान में पेरू, उरुग्वे, अर्जेंटीना, जापान आदि देश सूर्य को अपना राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उपयोग करते हैं। वेद की ॠचाओं में ओ3म् सूर्यो ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा कह कर सूर्य की आराधना की गई है।
मित्र, मिहिर, सविता आदि शब्द सूर्य के पर्याय हैं। भारत के अलावा जापान, रुस, कोरिया, इंग्लैंड मैक्सिको में भी सूर्य मंदिर हैं। भारत में कोणार्क उड़ीसा, मार्तण्ड काश्मीर, झालरापाटण राजस्थान , रनकपुर राजस्थान , ओसियो राजस्थान , मोधेरा गुजरात इत्यादि अनेक स्थानों पर प्राचीन सूर्य मंदिर प्राप्त होते हैं।
पूर्वांचल के साथ अन्य प्रदेशों में सूर्य देवता की उपासना के लिए छठ पर्व मनाया जाता है। यह प्राचीन काल से चली आ रही सूर्योपासना की परम्परा ही है जो मानव को सूर्य के साथ संबद्ध करती है तथा सूर्य देव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व भी माना जा सकता है।
आलेख