छत्तीसगढ़ भारत के हृदय भाग में पूर्व की ओर उत्तर से दक्षिण एक पट्टी के रूप में स्थित है। यह क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का नवाँ बड़ा राज्य है। जनसंख्या की दृष्टि से यह देश का सत्रहवाँ राज्य है। इसका कुल क्षेत्रफल 135,194 वर्ग किलोमीटर है। जनसंख्या 2,55,40,196 है।
छत्तीसगढ़ प्राचीन सोलह जनपदों के कोसल जनपद का दक्षिणी प्रदेश था इसलिए इसे दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता रहा है। ब्रिटिश काल में यह राज्य मध्यप्रांत और बरार का हिस्सा था। सन् 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के फलस्वरूप मध्यप्रदेश के रूप में अस्तित्व में आया। मध्यप्रदेश से विभक्त होकर इस प्रदेश ने 1 नवंबर 2000 को एक नवीन संरचना को प्राप्त किया है।
संपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में पहाड़ों और जंगलों के बीच बड़े-बड़े मैदानी इलाकों में धान के खेत लहराते हैं, जो इसकी परंपराओं और विकास को पोषित करते हैं। समूचे क्षेत्र में धान की पैदावार के कारण यह धान के कटोरे के रूप विख्यात है। यहाँ की 85 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर अलंबित है।
छत्तीसगढ़ के 43.78 प्रतिशत क्षेत्र में कृषि कार्य होता है। धान प्रमुख फसल है, जो कि कुल खाद्यान्नों का लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र में बोया जाता है। छत्तीसगढ़ के आर्थिक विकास में धान की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है।
यहाँ की मिट्टी धान की खेती के लिए उपयोगी है। डोरसा, कन्हार, मटासी मिट्टी जल अवशोषित करने में सक्षम होती है। संपूर्ण क्षेत्र में औसत वर्षा 1400 मि.मि. है। इसमें से 90 प्रतिशत वर्षा दक्षिणी मानसून से जून से लेकर सितंबर तक होती है। समतल भूमि, पर्याप्त जल स्रोत, सिंचाई की पर्याप्त सुविधा धान की खेती के लिए बेहद अनुकूल है।
कालांतर से ही धान छत्तीसगढ़ का प्रमुख खाद्यान्न रहा है। इसी कारण ‘धान’ यहाँ के लोकजीवन और परंपराओं में सर्वत्र व्याप्त है। धान न केवल प्रमुख भोज्य पदार्थ है बल्कि यह लोकजीवन का अभिन्न अंग है। यह जन्म से मृत्यु पर्यन्त लोक के साथ-साथ यात्रा करता है। प्रत्येक देश और उसके राज्यों की अलग-अलग परंपराएँ होती हैं जिससे उसकी एक पहचान बनती है।
प्रश्न उठता है कि परंपराएँ क्या हैं ? परंपराएँ कोई बनी बनाई वस्तु नहीं है, यह मनुष्य के हृदय और बुद्धि के निरंतर विकास और परिष्कार का गतिमान क्रम है। इसी विकासक्रम के अनुभवों से मानवीय मूल्यों का विकास होता है।
परंपराएँ किसी भी समाज देश के लिए वह निधि है जो उसकी बौद्धिकता का परिचय देती है। यह लोकजीवन का प्रमुख आधार होती है। किसी क्षेत्र की परंपराओं को जानना या समझना हो तो वहाँ के लोकजीवन का दर्शन करना होगा। परंपराओं को समझने के लिए लोकजीवन और लोकमानस को समझना अत्यावश्यक है।
परंपराएँ हृदय के आंतरिक पक्ष के अतिरिक्त बाह्य पक्ष का भी प्रदर्शन करती हैं। इसमें मनुष्य के मानवीय व्यवहार के साथ-साथ उसके रहन-सहन आदि की अंतरंग भूमिका भी प्रगट होती है। यहाँ की भौगोलिक स्थिति, जंगल, जमीन और उससे जुड़े हुए उत्पाद परंपराओं का मूलाधार है। यहाँ की परंपराओं में विविधता को भी इसके सांस्कृतिक संदर्भ में देखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ की परंपराओं को सबल और सक्षम बनाए रखने के लिए पर्वों का प्रमुख स्थान है। पर्वों में यहाँ की संस्कृति झलकती है। इन पर्वां, उत्सवों व परंपराओं का सीधा संबंध यहाँ की प्रमुख फसल धान से है। ये पर्व देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग रूपों से आंचलिक संस्कृति के प्रभाव के साथ मनाए जाते हैं किंतु कुछ ऐसे स्थानीय पर्व हैं जो कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में ही मनाए जाते हैं।
ये सभी पर्व और परंपराएँ मानव मन में सांस्कृतिक चेतना का उल्लास भर देते हैं। जिस प्रकार हम नदी के प्रवाह को बाँध कर नहीं रख सकते उसी प्रकार परंपराओं को भी नहीं बाँधा जा सकता। परंपराएँ प्रवाह में चलने वाली चीज है जिसे किसी परिधि में बाँध कर नहीं रखा सकता। हाँ, किन्तु इसमें वातावरण का प्रभाव अवश्य दिखता है। युग का प्रभाव वातावरण में और वातावरण का प्रभाव ‘लोक’ में देखा जा सकता है जो कि लोक में प्रदर्शित होती हैं, वही परंपराओं का स्वरूप है।
छत्तीसगढ़ में भोजन और धान- जैसा कि छत्तीसगढ़ को ‘धान का कटोरा’ कहा गया है। सही में कहा जाय तो धान और धान से बने उत्पाद छत्तीसगढ़ियों के हृदय का स्पंदन है। यहाँ की लगभग सभी परंपराओं का धान से अन्तर्संबंध बना हुआ है।
यहाँ के लोगों का मुख्य भोजन धान से संबंधित है। भात, धुसका, बासी, बोरे, पेज,अंगाकर, फरा, मुठिया और चीला का स्थान सबसे ऊपर है। ये सभी चावल से बनते हैं। इसके अतिरिक्त चौसेला, अरसा, गोटर्रा-भजिया आदि अनेक तरह के स्वादिष्ट व्यंजन चावल से बनाये जाते हैं।
जब धान की नई फसल आती है, तो लोग उसके चावल का विविध उपयोग करते हैं। छत्तीसगढ़ में बनने वाले चावल के पापड़ और मुरकू का स्वाद अपने आप में लाजवाब होता है। ऐसा कोई छत्तीसगढ़िया नहीं होगा जो इन विशिष्ट व्यंजनों से अपरिचित हो।
‘बासी’ छत्तीसगढ़ के मूलनिवासियों का प्रमुख भोजन है। यह भात का ही रूपांतरित स्वरूप है। रात में भोजन के बाद बच जाने पर पके भात को पानी में डुबा दिया जाता है। पूरी रात उसे डूबे रहने देते हैं, दूसरे दिन सुबह उसमें मठा (छाछ), दही मिलाकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।
यह छत्तीसगढ़ के सामान्य लोगों का प्रमुख और महत्वपूर्ण भोजन है क्योंकि यह स्वास्थ्यवर्धक सिद्ध होता है। वर्तमान में चाय एवं अन्य अत्याधुनिक खाद्य पदार्थ आ जाने व शहरी प्रभाव के कारण यह छत्तीसगढ़ियों के भोजन से बाहर होते जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में भी लोग अब बासी से दूर होते दिख रहे हैं। छत्तीसगढ़ियों को छप्पन भोग खिला दें, किन्तु भात न परोसा जाए तो उन्हें संतुष्टि नहीं मिलती।
छत्तीसगढ के पर्व और धान-छत्तीसगढ़ में धान का संबंध भोजन, पकवान, पर्व, रीति-रिवाज आदि इन सब के अतिरिक्त कुछ ऐसे अन्य क्रियाकलापों में भी झलकता है, जो व्यावहारिक रूप में अनिवार्य दृष्टिगोचर होता है। इसका संबंध सीधे-सीधे हमारी परम्पराओं से होता हैं। वर्षा ऋतु के पदार्पण के साथ ही छत्तीसगढ़ अंचल में त्यौहारों की धूम मच जाती है। सावन में ‘हरेली‘ पर्व मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में पेड़ और प्रकृति की हरियाली की अपनी विशिष्ट भूमिका है। ‘हरेली‘ छत्तीसगढ़ी मानस की बासंती परम्परा का मौन प्रतीक और साक्षी है उस सनातन सत्य का जिसका साक्षात्कार हमारे ऋषि-मुनियों ने किया है।
इस दिन किसान अपने कृषि औजारों (हल, बक्खर, कुदाल, रापा, चटवार, आदि) को धोकर लाता है और उसकी पूजा करता है क्योंकि वह जब धान की खेती करता है, तो अपने इन सभी औजारों से सहयोग लिया होता है। जिनके सहयोग से हम किसी कार्य को संपादित किए हों और उसके लिए हमारे मन में कृतज्ञता के भाव न हो, यह कैसे संभव है ? छत्तीसगढ़ की यह परंपरा कृतज्ञता के भाव की अभिव्यक्ति है।
पोला का पर्व मानवीय संवेदना का जीवन्त उदाहरण है। पोला के पर्व के आने तक धान की फसल गर्भ धारण किए हुए होते हैं जिसे आंचलिक भाषा में ‘पोटरी’ आना भी कहा जाता हैं। इस दिन को कृषक बड़े उल्लास के साथ मनाते हैं। ठेठरी, खुरमी, सोहारी,बड़ा जैसे अनेक सुंदर और स्वादिष्ट पकवान बनते हैं।
चावल का चीला भी बनाया जाता है। कृषक अपने घर में पूजा अर्चना कर थाली में पूजा की सामग्री और पकवान लेकर खेतों की ओर चल पड़ता है। उस पकवान में चावल का बना हुआ चीला अवष्य होता है। वह अपने प्रमुख खेत में जा कर पूजा अर्चना करता है। गर्भधारण किए हुए धान की फसल को व्यंजनों का भोग भी लगता है।
जैसे हम अपनी बेटियों को जब वह पहली बार गर्भधारण करती हैं तब उसे ‘सधौरी’ खिलाते हैं। इसी तरह कृषक धान को बेटी मानकर उसे सुंदर भोजन का भोग कराता है इसीलिए इस पर्व को ‘गर्भही तिहार’ के नाम से भी जाना जाता है। यह परंपरा कृषि संस्कृति का उच्चतम परिदृश्य प्रस्तुत करता है और छत्तीसगढ़िया ‘मन’ को विश्व पटल में अभिव्यक्त करता है।
छत्तीसगढ़ में तीजा का त्यौंहार बेटियों के संम्मान से जुड़ा हुआ पर्व है। इस दिन बेटियों को आदरपूर्वक लिवा कर लाया जाता है। बेटियाँ इस दिन का बेसब्री से इंतजार करतीं हैं। वे भाइयों की प्रतीक्षा करती हैं कि उनका भाई आए और उन्हें लिवा कर ले जाए। भाई का लिवाने के लिए आना उनके लिए एक सम्मान और संतोष का कारण बनता है।
बेटियाँ इस दिन (भादो मास के शुक्ल पक्ष के तृतीया) अपने पति के दीर्घायु होने की कामना के साथ उपवास करती हैं। वे उपवास की शुरूआत ‘करूभात’ खाकर करती हैं। ‘करूभात’ का अर्थ-‘भात और करेले‘ की सब्जी से है। इस उपवास में अनिवार्य रूप से करूभात खाना होता है। इस प्रकार यह पर्व भी किसी न किसी रूप में धान से सरोकार रखता है।
खमरछठ पर्व का छत्तीसगढ़ की परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान है। खमरछठ को हलषष्ठी भी कहते हैं। यह त्यौहार भादो महीने के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन माताओं के द्वारा बच्चों के दीर्घायु की कामना को लेकर व्रत रखा जाता है।
पुत्रवती माताएँ इस दिन जुते हुए खेतों के अन्न ग्रहण नहीं करतीं। इसके स्थान पर पड़ती भूमि में स्वतः उगे हुए धान से बने चावल का भोजन करती हैं। इसे ‘पसहेर’ कहा जाता है। पूजा की सामग्री में अन्य अनाज के साथ ‘लाई’ का महत्वपूर्ण स्थान है। लाई धान को परंपरागत ढ़ग से भूनकर बनाया जाता है। इस तरह छत्तीसगढ़ की समग्र परंपरा में धान का विषेष स्थान है।
छत्तीसगढ में नवाखाई का पंरपराओं में विशेष स्थान है। नवाखाई का मतलब है-नये अन्न को भोजन के रूप में खाने की शुरूआत करना। भारतीय परंपरा में जब भी किसी चीज का हम उपभोग करते हैं, तो उसे देव आराधना के साथ करते हैं। नवाखाई को अलग-अलग समुदाय के लोग अलग-अलग दिवस में मनाते हैं।
बस्तर के आदिवासी समुदाय के लोग इस पर्व को भादो मास में मनाते हैं। धान की नई फसल आने की शुरूआत हो जाती है। नए धान के चावल से खीर बनती हैं। पूजा अर्चना के पश्चात नए चावल से बने खीर को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। बस्तर में ही सवर्ण समुदाय के लोग इस पर्व को राजा के साथ दशहरे के दिन मनाते हैं। इसी प्रकार मध्य छत्तीसगढ़ में इस पर्व को दशहरे के आसपास मनाया जाता है।
दीपावली भारतीय परंपरा का सबसे बड़ा पर्व है। इस पर्व को छत्तीसगढ़ में उत्सवपूर्वक ढ़ंग से मनाया जाता है। इस दिन लोक-व्यवहार और पूजा विधान में धान का उपयोग किया जाता है। दीपावली के दिन प्रतीकात्मक रूप में प्रत्येक घर में गोवर्धन पूजा की जाती है। गाय के गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है।
गोवर्धन को सजाने के लिए मेमरी और सीलिहारी के साथ धान की बाली का उपयोग किया जाता है। कुछ लोग गाय के गले में धान के पौधों से रस्सी बनाकर बाँधते हैं। चावल के आटे से चौक पूरते हैं। गौरा-गौरी सजाने के लिए भी धान की सुनहरी बालियों का उपयोग करते है। लक्ष्मी-पूजन के समय सुंदर पके हुए धान की सुनहरी बालियों का झालर बनाकर उसकी पूजा की जाती है। बाद में इसे चिड़ियों के चुगने के लिए घर-आँगन में टाँग दिया जाता है।
छत्तीसगढ़ की परंपराएँ औपचारिकता मात्र नहीं है बल्कि इसमें भावों की प्रधानता और प्रकृति का पोषण भी है, जीव-जन्तु का संरक्षण भी। उत्कृष्ट विचारों से ओतप्रोत छत्तीसगढ़ की परंपराओं का कृषि और वन की संस्कृति से भी गहरा संबंध है। कृषि उपज में धान का लोकजीवन में सर्वत्र सरोकार है।
यादव समाज के लोग दीपावली के दिन प्रत्येक कृषक के घर गायों को ‘सोहाई’ बाँधने के लिए जाते हैं, तब उन्हें दान स्वरूप ‘सूपा’ में धान दिया जाता है। वह उसी धान में गाय का गोबर लोटाकर आशीष स्वरूप कोठी (अन्न भंडार) में थाप देता है।
‘छेरछेरा’ का पर्व दानशीलता के भाव को अभिव्यक्त करता है। जिस समाज में देने का भाव हो, वह कितना उदार समाज होगा। छेरछेरा का पर्व पूस पुन्नी के दिन मनाया जाता है। जब किसान संपन्नता से युक्त होता है। धान की फसल कट चुकी होती है। सभी की ‘कोठी’ धान से लबालब होती है। सभी के अंदर संपन्नता के भाव होते हैं।
इस दिन छोटे-बड़े सभी एक दूसरे के घर मांगने के लिए जाते है और लोग एक दूसरे को प्रसन्नता के साथ दान करते हैं। देने के लिए किसान परिवार में धान ही होता है। वे देकर अन्नदान करने के भाव से अभिभूत होते हैं। अन्नदान का द्रव्यों में अपना अलग स्थान है।
अक्ती अर्थात् पंरापरा में वर्ष का अन्तिम दिन और नए वर्ष की शुरूआत। परंपरानुसार छत्तीसगढ़ में इस दिन कृषि पर्व की नई शुरूआत होती है। इस दिन गाँव के लोग ठाकुर दाई में इक्टठा होते हैं। अपने घर से ‘बीजहा’ धान ले जाते हैं।
चाहे धान किसी भी प्रजाति का क्यों न हो, पूरे गाँव के लोगों के द्वारा लाए गए धान को एक साथ मिलाकर हैं और उसकी पूजा अर्चना करते हैं। पूजा के पश्चात गाँव के प्रमुख लोग सभी कृषक को एक-एक दोना धान देते हैं जिसे लोग देवकृपा से युक्त बीज मानकर अपनें खेतों में बोनी की शुरूआत करते हैं।
छत्तीसगढ के संस्कारों में धान-भारतीय परंपरा में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यान्त सोलह संस्कारों का उल्लेख है। ये संस्कार छत्तीसगढ़ की परंपरा में विद्यमान हैं। इन परंपराओं में जन्म, विवाह और मृत्यु विशेष उल्लेखनीय हैं। विवाह संस्कार में धान का कई संदर्भों में उपयोग किया जाता है।
ओली भरने, अंजुरी भरने के लिए चावल का उपयोग किया जाता है। साथ ही जब दूल्हे-दुल्हन को तेल हल्दी लगाया जाता है उस समय माँ या माँ के सदृश्य रिश्तेदारों के समक्ष बैठता है, उस समय पीढ़े के दोनों ओर थोड़ा-थोड़ा चावल रखकर बैठता है।
यही नहीं दूल्हा बारात के लिए प्रस्थान करता है तब वह अपने घर से ‘भार’ मारते हुए निकलता है। चावल से भार मारा जाता हैं। विवाह संस्कार के रस्मों में चावल या धान से बने ‘लाई’ का भी उपयोग किया जाता है। मृत्यु संस्कार में धान का महत्वपूर्ण स्थान है। जब अर्थी उठाई जाती है तब मृतक के ऊपर धान में सिक्कों को उसके ऊपर सींचते ले जाते हैं ।
पूजा पद्धति में धान-छत्तीसगढ़ की पूजा पद्धति में धान का उपयोग अनेक अवसर पर किया जाता है। चौक पूरने के लिए धान या चावल के आटे का उपयोग किया जाता है। कलश के ऊपर ‘मलवे’ में धान रखकर उसके ऊपर दीप प्रज्ज्वलित करने की परंपरा है।
पूजा में दान स्वरूप पुरोहित को धान देने की परंपरा है। दान देने की परंपरा में अन्नदान को विशेष स्थान है। छत्तीसगढ़ में अन्न का निकटतम अर्थ धान से है। अन्नदान कर आम छत्तीसगढ़िया संतोष और सुख का अनुभव करता है।
ग्रामीण कामगारों को मजदूरी का भुगतान-छत्तीसगढ़ के गाँवों की अपनी अलग परांपरिक पहचान है। ग्रामीण सहयोगात्मक भाव से कार्य संपादित करते हैं। नाई, लुहार, धोबी, समुदाय, राऊत, बैगा, कोटवार आदि ग्रामीण कामगार के रूप में कार्य करते हैं।
समुदाय विशेष के लोगों को कार्य विशेष को संपादित करने दायित्व दिया जाता है और उन्हें मजदूरी में धान दिया जाता है। इसे ‘जेवर’ कहते है। ‘जेवर’ वार्षिक होता है। वर्षभर कार्य करने की मजदूरी का प्रतिफल स्वरूप दिया जाता है। यह वर्षों से परंपरा में है और आज भी यह प्रचलन में है।
विनिमय में धान- धान छत्तीसगढ़ का सबसे प्रमुख उत्पाद होने के कारण विनिमय का प्रमुख साधन रहा है। कालांतर में तो लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ एक दूसरे को देकर लेन-देन से करते रहें। बाद में वस्तु क्रय करने के लिए धान प्रमुख साधन बना।
धान देकर किसी वस्तु का क्रय-विक्रय किया जाना परंपरा में आ गया। गाँवों में सब्जी-भाजी तक खरीदने के लिए धान उपयोग करते थे किन्तु आज बाजारवाद के प्रभाव के कारण यह परंपरा विलुप्त-सा होता जा रहा है।
छत्तीसगढ़ की परंपरा का जब बारीकी से अध्ययन करते हैं तो ऐसा लगता है कि समूचा छत्तीसगढ़ धान में ही जीता है। धान यहाँ के लोगों के लिए सम्पन्नता का प्रतीक और जीवन का आधार है।
उपभोग में नहीं धान का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। यहाँ के जनजीवन में धान को जीवनरेखा के रूप में देखा सकता है। परंपरा में जन्म से मृत्यु तक हर जगह धान की उपयोगिता दिखती है। आम छत्तीसगढ़ियों का जीवन धान से ही धन्य होता है।
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