भारत भिन्न-भिन्न मान्यताओं एवं परम्पराओं का देश है, इस विशाल देश को संस्कृति ही एक सूत्र में बांधकर रखती है। संस्कृति की अजस्र धारा सभी प्राणियों को अपने पीयूष से सिंचित कर पुष्पित पल्लवित कर पोषण प्रदान करती है। हमारी संस्कृति प्रकृति के साथ एकाकार है। प्रकृति के बिना हम संस्कृति की कल्पना भी नहीं कर सकते। यही संस्कृति मनुष्य को ज्ञान प्रदान कर सभ्य बनाती है।
हमारी संस्कृति में पृथ्वी को भी स्त्री रुप में ही माना गया है। भगवान विष्णु वराह अवतार धारण कर पृथ्वी का उद्धार करते हैं और शास्त्रों में भू देवी उद्धार के नाम से जाना जाता है। जब पृथ्वी को स्त्री के रुप में माना जाता है तो उसके साथ उसी रुप में व्यवहार किया जाता है।
प्रकृति आराधना का पर्व
पृथ्वी का भू देवी के रुप में पूजन किया जाता है। आरण्यक जब गृह बनाते हैं तो भूमिहार देवता का पूजन कर उससे गृह के लिए उपयुक्त भूमि मांगते हैं जो गृहस्थ के लिए मंगलकारी हो और इसी मंगल की आकांक्षा से समस्त देवी देवताओं का आराधन किया जाता है। हमारे लगभग सभी त्यौहार प्रकृति के साथ ही जुड़े हुए हैं।
ओड़िसा तथा सीमांत छत्तीसगढ़ के कौड़िया और फ़ूलझर राज में कृषकों द्वारा भूमि दहनो पर्व मनाया जाता है। यह पर्व तब मनाया जाता है जब सूर्य का मिथुन राशि में प्रवेश होता है। इस समय ज्येष्ठ माह से आषाढ माह में प्रविष्ट करने पर पृथ्वी के ताप में परिवर्तन होता है जो बीजों के अंकुरण के उपयुक्त होता है। इस समय यदि पृथ्वी पर कोई बीज बोया जाए तो वह निश्चित ही अंकुरित होता है।
ॠतुमति वसुंधरा
मान्यता है कि इस समय वसुंधरा ॠतुमति होती है। रजस्वला होने के पश्चात जिस तरह एक स्त्री गर्भाधान के लिए तैयार हो जाती है उसी तरह सूर्य के मिथुन राशि में प्रवेश करने पर भूमि भी बीजारोपरण के लिए तैयार हो जाती है। इसलिए भूमि की इस गर्मी बीजारोपण के लिए उपयुक्त मानकर भूमि दहनो त्यौहार मनाया जाता है।
प्राचीन जगन्नाथ संस्कृति
तोषगाँव निवासी लोक संस्कृति के जानकार श्री विद्याभूषण सतपथी बताते हैं कि “रज संक्रांति पर्व का मनाना इतना प्राचीन है जितनी प्राचीन जगन्नाथ संस्कृति है। श्रीक्षेत्र के राजा विद्याबसु एवं चंद्रचूड़ के समय से यह पर्व मनाया जा रहा है।”
“इस पर्व के दिन तोषगांव का महल परिवार जमीन पर पैर नहीं रखता एवं उस दिन चूल्हा नहीं जलाया जाता, पुर्व दिन का बनाया भोजन ही किया जाता है। कोई सामान्य व्यक्ति भी ऐसा कार्य नहीं करता जिससे पृथ्वी को आघात पहुंचता हो। कृषि कार्य से लेकर सभी कार्य बंद होते हैं।”
रज संक्राति-भूमि दहनो
“यह पर्व चार दिनों का मनाया जाता है। चार दिनों के इस पर्व में कई दिलचस्प गतिविधियां होती है। पहले दिन को पहिली रज, दूसरे दिन को मिथुन संक्रांति, तीसरे दिन को भूमि-दहनो और चौथे दिन को वसुमति स्नान कहा जाता है। इस पर्वं में तीन दिन सूर्य को जल का अर्घ्य दिया जाता है तथा पृथ्वी को पहले दिन जल, दूसरे दिन परवल का रस एवं तीसरे दिन मीठे दूध का अर्पण किया जाता है।”
पर्व के पहले दिन सुबह जल्दी उठकर महिलाएं नहाती हैं। बाकी के 2 दिनों तक स्नान नहीं किया जाता है। फिर चौथे दिन पवित्र स्नान कर के भू देवि की पूजा और कई तरह की चीजें दान की जाती है। चंदन, सिंदूर और फूल से भू देवि की पूजा की जाती है। एवं कई तरह के फल चढ़ाए जाते हैं। इसके बाद उनको दान कर दिया जाता है। इस दिन कपड़ों का भी दान किया जाता है। लड़कियाँ मेंहदी लगाती हैं और झूले झूलती हैं।
जिस तरह एक रजस्वला स्त्री तीन दिन के बाद चौथे दिन स्नानादि कर पवित्र होती है उसी तरह माना जाता है कि पृथ्वी (लक्ष्मी) भी चौथे दिन जब वसुमति स्नान कर पवित्र होती है तब घरों में कढाई चढती है और विभिन्न पकवान बनाए एवं भगवान को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है तथा सभी लोग मिलकर उत्सव मनाते हैं। यह परम्परा सदियों से चली आ रही है।
पृथ्वी लक्ष्मी का ही एक रुप
पृथ्वी को लक्ष्मी का ही एक रुप माना जाता है क्योंकि वह जीवन यापन के लिए धन धान्य प्रदान करती है। इसके पश्चात किसान अपने खेतों में जाकर होम धूप देकर देवों स्मरण कर खेतों में बीजारोपण करते है तथा अच्छी फ़सल की कामना करते हैं। जहां एक ओर आज भी स्त्री के रजस्वला होने को छुपाया जाता है वहीं यहां पृथ्वी के रजस्वला होने के सार्वजनिक उत्सव के रुप में मनाया जाता है। इस पर्व के जरिए प्रथम वर्षा का स्वागत किया जाता है।
आज से वंसुधरा ऋतुमति हो रही है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हर स्त्री ॠतुमति या रजस्वला होती है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में झूले बंधते हैं, सजते हैं। कन्याएँ झूले झूलती है और ढेर सारे पकवान घर घर में बनते हैं तथा वसुंधरा के ॠतुमति होने के इस पर्व को प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 जून से 17 जून तक धूम धाम से मनाया जाएगा।
बढ़िया लेख।