बस्तर का प्रवेश द्वार केशकाल आपको तब मिलेगा जब आप बारा भाँवर (बारह मोड़ों) पर चक्कर काटते हुए पहाड़ पर चढेंगे। केशकाल क्षेत्र में अनेक प्राकृतिक झरने, आदि-मानव द्वारा निर्मित शैलचि़त्र, पत्थर से बने छैनी आदि प्रस्तर युगीन पुरावशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। साल वृक्षों का घना जंगल, ऊँची- ऊँची पहाड़ियाँ, नदी, झरने, जलप्रपात गुफाओं को देखकर ऐसा लगता है, मानो प्रकृति ने बस्तर को अपने हाथों से सँवार कर संसार को विशेष उपहार दिया है।
तिरथगढ़, चितरकोट जलप्रपात, कुटुमसर की गुफा जैसे कुछ दर्शनीय स्थल तक पर्यटक पहुँचते है। लेकिन कुछ अल्पज्ञात गुफा एवं जलप्रपात हैं, जहाँ आवागमन की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण पर्यटक नही पहुँच पाते। बहुत सारे झरने, जलप्रपात व गुफाएँ बस्तर वनाँचल में विद्यमान हैं जो बाहरी दुनिया से आज भी अनजान ही हैं। बस्तर के जंगलों और पहाड़ों में विद्यमान इन झरनों. जलप्रपातों एवं गुफाओं की विस्तृत सर्वे तथा शोध किया जाय तो एक पुस्तक में समेटना संभव नही हो पायेगा।
बस्तर के ऐसे ही अल्पज्ञात श्रेणी के स्थलों में से एक प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक स्थल है ग्राम बड़डोंगर। राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित विकास खण्ड मुख्यालय फरसगाँव के पश्चिम दिशा में लगभग 16 कि.मी. दूर ग्राम बड़ेडोंगर स्थित है। भैंसा दोंद डोंगरी, महादेव डोंगरी, भण्डारिन डोंगरी, भुरसी डोंगरी, कोकोड़ी डोंगरी, रनबीर डोंगरी आदि पहाड़ियों से घिरा हुआ है। ये पहाड़ियाँ बड़ेडोंगर को एक प्राकृतिक किला का स्वरुप दिए हुए हैं।
जंगल की हरियाली ओढ़े, खेतों की धानी हरियल परिधान में लिपटे ग्राम बड़ेडोंगर की सुन्दरता में बूढ़ा सागर, गंगा सागर, मुकदर सागर, डंडई बंधा, पण्डरा बंधा,संवसार बंधा, शीतला तालाब, गणेश तालाब, केंवड़ा तालाब आदि कुल सात आगर सात कोरी (एक सौ सैंतालिस) तालाब चार चाँद लगाते हैं।
यहाँ की किसी भी पहाड़ी में चढ़कर नयनाभिराम मनोरम दृश्य का आनंद लिया जा सकता है। इन सभी तालाबों, गुफाओं और पहाड़ियों से अनेक मान्यताएं एवं जनश्रुतियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें सबसे प्रमुख है महिषाद्वन्द्व पहाड़ी, जहाँ महिषासुर का वध हुआ था। महादेव डोंगरी में नन्दी की प्रस्तर प्रतिमा के साथ शिवलिंग स्थापित है। पहाड़ी की चोटी पर चट्टानों के बीच एक प्राकृतिक जल कुण्ड है,जो गर्मी के मौसम में भी कभी नही सूखता।
भण्डारिन डोंगरी में भण्डारिन माता विराजमान हैं। गणेश तालाब में गणेश जी स्थापित हैं। ताल गुडरा में प्राचीन कलात्मक मंदिर के ध्वंसावशेष है, जिसे नकटी देवरली कहा जाता है। रणबीर बाबा, मलयारिन माता आदि मंदिरों में प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं। बाजार स्थल में बांडा बाघ की प्रस्तर प्रतिमा स्थापित है, तो शीतला मंदिर के पास एक ही स्थान पर लगभग तीन दर्जन सती स्तंभ एवं योद्धा स्मृति स्तंभ कतारबद्ध हैं, मानों मूर्तियों की बाड़ लगा दी गई हो।
पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी पर महिषासुर नामक एक महाप्रतापी राक्षस हुआ करता था। वह देवताओं को पराजित कर स्वर्ग का अधिपति बन बैठा। प्रताड़ना से संतप्त देवताओं में हाहाकार मच गया, तब उनकी सहायता के लिए माँ दुर्गा का अवतरण हुआ। माँ दुर्गा एवं महिषासुर के बीच नौ दिन नौ रात तक घोर द्वन्द्व युद्ध हुआ, और अन्ततः महिषासुर मारा गया। महिषासुर किस स्थान पर मारा गया? किसी ग्रंथ में स्पष्ट उल्लेख नही मिलता।
पौराणिक कथाओं एवं लोक मान्यताओं के अनुसार महिषासुर राक्षस का वध महिषाद्वन्द्व पहाड़ी में ही हुआ था। इसलिए आदि काल से ग्रामीण इस पहाड़ी को भैंसा दोंद डोंगरी (महिषाद्वन्द्व पहाड़ी) के नाम से सम्बोधित करते हैं । महिषासुर राक्षसका वध स्थल होने के कुछ प्रमाण भी इस पहाड़ी में मिलते हैं। पहाड़ी के तलहटी पर एक चट्टान में भैंसा खोज (भैंसा के पैर के निशान) हैं, वहीं पहाड़ी के शीर्ष चट्टान पर माँ महिषासुर मर्दिनी के पद चिन्ह अँकित हैं।
नीचे से ऊपर तक पहाड़ के चट्टानों में पड़े गडढों को युद्ध स्थल होने का प्रमाण बताया जाता है। यहाँ महिषासुर मर्दिनी का मंदिर भी है जो काकतीय वंश के राजाओं की कुलदेवी माई दन्तेश्वरी के रुप में प्रचारित है। पहाड़ी के नीचे झोपड़ीनुमा मंदिर में एक खड्ग रखा हुआ है। मान्यता है कि माँ महिषासुर मर्दिनी ने इसी खड्ग से महिषासुर का वध किया था। नवरात्रि के अवसर पर नौ दिन नौ रात तक एक जोगी तपस्वी बन कर इसी मंदिर में निराहार बैठता है।
उपलब्ध अभिलेखों से ज्ञात होता है कि राजा पुरषोत्तम देव ने प्रणाम की मुद्रा में, लेटकर भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन हेतु पुरी तक यात्रा की थी। राजा पुरषोत्तम देव की भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान जगन्नाथ ने पुरी के राजा को स्वप्न में आदेश दिया कि मेरा प्रिय भक्त बस्तर से आया है उसे रथ भेंटकर, रथपति की उपाधि से स्म्मानित करें।
राजा पुरषोत्तमदेव रथ लेकर पुरी से वापस बस्तर आया तब से 75 दिनों तक चलने वाला विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा का शुभारंभ हुआ। यह बहुत कम लोगों को ही ज्ञात होगा कि, तब बस्तर की राजधानी बड़ेडोंगर में थी, और राजा पुरषोतम देव ने बड़ेडोंगर से ही पुरी तक की कठिन यात्रा की थी। बड़ेडोंगर में अब भी रथयात्रा का आयोजन प्रतीकात्मक रुप में किया जाता है।
बस्तर की राजधानी बड़ेडोंगर से बस्तर ग्राम और बस्तर से जगदलपुर हो गई। जगदलपुर आवागमन की आधुनिक सुविधा से सम्पन्न नगर है, इसलिए जगदलपुर का बस्तर दशहरा प्रसिद्ध हो गया। और आवागमन के आधुनिक साधन न होने के कारण बड़ेडोंगर उपेक्षित हो गया। किन्तु रियासत काल से आज तक बस्तर राज्य में सम्पन्न होने वाले सभी उत्सव एवं रस्मो-रिवाज में बड़ेडोंगर का विशिष्ट स्थान है। चाहे राज्याभिषेक हो, होली पर्व हो, चाहे विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा हो, सभी अप्रत्यक्ष रुप से बड़ेडोंगर से ही संचालित होते हैं।
बड़ेडोंगर से दुर्गाष्टमी के बोना जातरा का प्रसाद बाहर रैनी के रथ में बिना चढ़ाये, कुम्हड़ाकोट से रथ वापस राजमहल नहीं लाया जाता। बस्तर महाराजा का राज्याभिषेक आज भी बड़ेडोंगर के गादी पखना में ही होता है, जगदलपुर के राजमहल में नही । अतः बड़ेडोंगर को धार्मिक आस्था इतिहास एवं प्राकृतिक सुन्दरता का त्रिवेणी संगम कहा जाय, तो अतिशयोक्ति नही होगी। बड़ेडोंगर बस्तर का प्रमुख ऐतिहासिक स्थल है, जहाँ शोध पश्चात इसके ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व को प्रकाश में लाया जा सकता है।
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