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जानिए दानवीर भामाशाह कौन थे

29 अप्रैल 1547 में सुप्रसिद्ध दानवीर और राष्ट्रसेवी मेवाड़ के भामाशाह का जन्म

दासत्व के अंधकार से भरी लंबी रात्रि के बीच यदि भारत में राष्ट्रभाव पल्लवित हो रहा तो इसके पीछे वे असंख्य विभूतियाँ हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित करके इस दीप को जलाये रखा। कुछ ने प्राण दिये कुछ ने जाग्रति अभियान चलाये और कुछ ने संघर्ष के साधन उपलब्ध कराये। इतिहास प्रसिद्ध दानवीर भामाशाह ऐसे ही महादानी हैं। जिन्होने विषम परिस्थितियों में मेवाड़ के सुरक्षा संघर्ष के लिये अपार धनराशि उपलब्ध कराई।

अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिये मेवाड़ का संघर्ष इतिहास प्रसिद्ध है। स्वत्व के ऐसे संघर्ष का उदाहरण संसार में नहीं मिलता। यह संघर्ष किसी एक शासक, किसी एक आक्रांता अथवा एक पीढ़ी तक सीमित नहीं रहा। अपितु सैकड़ों साल चला है। दिल्ली सल्तनत के हर शासक ने मेवाड़ पर हमला बोला।

गुजरात और मालवा के सुल्तानों से संघर्ष हुआ वह अलग। सतत संघर्ष से मेवाड़ उजड़ गया था। सैन्य शक्ति क्षीण हो गई थी। संघर्ष आगे बढ़ाने के साधन भी नहीं बचे थे। पर मेवाड़ ने समर्पण नहीं किया था। विषम और विपरीत परिस्थिति में भी हार नहीं मानी।

मुगल बादशाह अकबर के निरंतर हमलों के बीच महाराणा प्रताप ने वन में रहकर छापामार युद्ध की रणनीति बनाई पर सैनिकों के भोजन और युद्ध सामग्री जुटाने का संकट था। इस समस्या के समादान के लिये दानवीर भामाशाह सामने आये और इतनी धनराशि भेंट की जिससे संघर्ष निरंतर हुआ।

ऐसे महान दानवीर भामाशाह का जन्म 29 अप्रैल 1547 को रणथंभौर में हुआ था कुछ इतिहासकार उनके जन्म का वर्ष 1542 भी मानते हैं। लेकिन उनके और महाराणा प्रताप की आयु में आठ वर्ष का अंतर था। इसलिये यह वर्ष 1547 ही ठहरता है।

इनके पिता भारमल मेवाड़ के प्रधान कोषपाल थे। वे राणा संग्राम सिंह के राज्यकाल में नियुक्त किये गये थे। चित्तौड़ राज परिवार का संबंध पीढ़ियों से रहा। महाराणा राज परिवार के प्रत्येक शासनकाल में प्रधान कोषपाल पद इसी परिवार के पास ही रहा।

खजाने के गुप्त धन का पता प्रधान कोषपाल के अतिरिक्त किसी को नहीं होता था। गुप्त खजाने का पता पूछने के लिये मुगल सैनिकों ने परिवार को घोरतम यातनायें दी, इस यातना में अनेक परिवार जनों के बलिदान हुये लेकिन खजाने का पता किसी को न मिला।

भामाशाह संघर्ष के दिनों में राणा प्रताप के साथ थे। जब उन्होंने देखा कि साधनों की दृष्टि से महाराणा प्रताप असहाय अवस्था में आ गये तब भामाशाह जी ने सारा गुप्त धन उन्हें समर्पित कर दिया। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि इतना गुप्त धन सुरक्षित था। इस धन से राणा प्रताप ने पुनः संघर्ष आरंभ किया। वह इतना धन था जिससे छै माह तक सेना का संचालन हो सका।

यह संघर्ष और भामाशाह की दानवीरता इतिहास में अमर है। इस परिवार के सदस्य आगे भी प्रधान कोषपाल रहे। भामाशाह के पुत्र जीवाशाह, महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह के शासनकाल में। जीवाशाह के पुत्र अक्षयराज, अमर सिंह के पुत्र राणा कर्ण सिंह के शासनकाल में प्रधान कोषपाल रहे।

आगे भी यह परंपरा निरंतर रही। महाराणा स्वरूप सिंह एंव फतेह सिंह ने इस परिवार के लिए सम्मान स्वरुप दो बार राजाज्ञाएँ निकाली कि इस परिवार के मुख्य वंशधर का सामूहिक भोज के आरंभ होने के पूर्व तिलक किया जाये।

दानवीर भामाशाह की हवेली चित्तौड़गढ तोपखाना के पास स्थित है। उनकी समाधि उदयपुर, राजस्थान में राजाओं के समाधि स्थल के मध्य बनी है। सुप्रसिद्ध उपान्यसकार कवि हरिलाल उपाध्याय द्वारा ‘देशगौरव भामाशाह’ नामक ऐतिहासिक उपान्यस लिखा।

महाराणा मेवाड फाऊंडेशन द्वारा प्रतिवर्ष राजस्थान में मेरिट में आने वाले छात्रों को दानवीर भामाशाह पुरस्कार दिया जाता है। श्री अटल बिहारी वाजपेई जी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत सरकार ने वर्ष 2000 में भामाशाह जी की स्मृति में तीन रुपये का डाक टिकट जारी किया। लोक जीवन में उनकी कथाएँ राजस्थान ही नहीं पूरे भारत के घर घर में सुनाई जातीं है।

आलेख

श्री रमेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल, मध्य प्रदेश

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