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क्राँतिकारियों का मिलन केन्द्र था यह आश्रम

12 दिसंबर 1896 : सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबा राघवदास का जन्म

संत राघवदास स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, दार्शनिक और एक ऐसे आध्यात्मिक कार्यकर्ता थे। जिनका पूरा जीवन समाज की सेवा और सामाजिक समरसता के लिए समर्पित रहा। उनका आश्रम क्राँतिकारियो और अहिसंक आँदोलनकारी दोनों की गतिविधि स्थल था। वे ऐसे साहसी संत थे जिन्होंने जेल से सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की अस्थियाँ लेकर अपने आश्रम में उनका स्मारक बनाया जिसे अंग्रेजों ने तोड़ा और इनकी गिरफ्तारी हुई।

ऐसे क्राँतिकारी संत बाबा राघव दास जी का जन्म 12 दिसंबर 1896 को महाराष्ट्र पुणे नगर में हुआ था। इनके पूर्वज कोंकणस्थ ब्राह्मण थे और पुणे आकर बस गये थे। पिता श्री शेशप्पा उस क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यवसायी थे और माता श्रीमती गीता देवी आध्यात्मिक स्वभाव की महिला थीं। इनके बचपन का नाम राघवेन्द्र था। कुल छै भाई बहनों में ये सबसे छोटे थे लेकिन पाँच वर्ष की आयु में अकेले रह गये।

क्षेत्र में प्लेग फैला और 1901 में परिवार के सदस्यों की मृत्यु हो गई। केवल दो बड़ी बहने बचीं थीं। दोनों विवाहित थीं और अपने अपने घरों में रहतीं थीं। बालक राघवेन्द्र ने दो वर्ष इन्ही बहनों के पास बिताएं और आरंभिक शिक्षा भी ली। बहनों के प्रयास से आगे की शिक्षा के लिये मुम्बई भेजा गया।

उनका मन पढ़ाई में कम और विरक्ति में अधिक लगता था। वे बालपन से ही अपने विचारों एकाकी होते और अपने विचारों में खो जाते थे। 1913 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और सद्गुरु की खोज में चल दिये। उन्होंने काशी, प्रयागराज अयोध्या आदि अनेक स्थानों की यात्रा की। ऐसे ही घूमते हुये देवरिया पहुँचे। यहाँ उनकी भेंट ‘मौनी बाबा’ से हुई और आश्रम में रुक गये।

युवा राघवेन्द्र की अंग्रेजी और मराठी अच्छी थी पर हिन्दी कमजोर। उन्होंने यहाँ रहकर हिंदी सीखी और ‘योगिराज अनंत महाप्रभु’ से विधिवत दीक्षा ली। इन्होने ही नाम राघवेन्द्र से “राघवदास” रखा। फिर वे इसी नाम से जाने गये।

युवा संत राघवदास ने अपनी कुशाग्रता योग्यता से विश्वासपात्र बने और अनंत महाप्रभु की गादी के उत्तराधिकारी भी बने। पीठ के उत्तराधिकारी बनकर भी उन्होंने गोरखपुर के समीप अपना आश्रम भी आरंभ किया। जिसका नाम अपने गुरू के नाम पर अनंत आश्रम रखा। उनके ये दोनों आश्रम सामाजिक जागरण और सामाजिक समरसता के लिये काम करते थे।

1921 में गांधीजी गोरखपुर आये। राघव दास जी से मिलने अनंत आश्रम पहुँचे। गाँधी जी के आग्रह पर राघवदास जी समाज सेवा और सामाजिक समरसता अभियान के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भी सहभागी बने। उनके सेवा कार्यों को देखकर गांधीजी ने कहा था कि “अगर राघवदास जैसे और संत उनके साथ शामिल हो जाएं तो भारत के लिए स्वतंत्रता हासिल करना आसान हो जाएगा”।

यद्यपि राघवदास जी का मन और विचार दोनों अंग्रेजो से पूर्ण मुक्ति का पक्षधर था लेकिन उन्हें गाँधी जी स्वदेशी एवं चरखा अभियान पसंद आया। वे आंदोलन से जुड़ गये। असहयोग आंदोलन में गिरफ्तार हुये और जेल भेजे गये। और इसके साथ ही उनकी जेल यात्राओं का मानों क्रम ही शुरु हो गया।

बाबा राघवदास जी महत्वपूर्ण भूमिका चौरी चौरा काँड में सामने आई। असहयोग आँदोलन को कुचलने केलिये अंग्रेज पुलिस ने अंधाधुंध गोलियाँ चलाई। इससे अनेक आँदोलनकारी बलिदान हुये। इस घटना से पूरे क्षेत्र में रोष फैला और गुस्साई भीड़ ने थाने पर हमला बोल दिया। कुछ सिपाही मारे गये। घटना से व्यथित होकर गाँधी जी ने आँदोलन वापस ले लिया।

गांधीजी द्वारा आँदोलन को वापस लेने से अंग्रेज सिपाहियों का मनोबल बढ़ा और दमनचक्र आरंभ हो गया। यह 4 फरवरी 1922 की है चौरी चौरा काँड में 127 लोगों को आरोपी बनाया गया और फाँसी की सजा सुनाई गई। बाबा राघवदास जी ने इन्हे बचाने केलिये जमीन आसमान एक कर दिया। वे काँग्रेस के लगभग सभी नेताओं से भी मिले और अंग्रेज अधिकारियों से भी। बाबा जी ने पचास से अधिक आंदोलन कारियों की बेगुनाही के सुबूत प्रस्तुत किये और फाँसी से बचाया।

अब राघवदास का आश्रम स्वतंत्रता सेनानियों और क्राँतिकारियों के आश्रय का एक प्रमुख स्थान बन गया था। अनेक क्राँतिकारियों ने अपना अज्ञातवास भी उनके आश्रम में बिताया। बाबा राघवदास जी की सर्वाधिक निकटता क्राँतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल से रही। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल काकोरी कांड के नायक थे। उन्हे 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई थी।

बिस्मिल की अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार बाबा राघवदास जी की देखरेख में हो। बाबा राघवदास गोरखपुर जेल गए और बिस्मिल जी की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार कराया। बाबाजी बिस्मिल की चिता से राख और अस्थियाँ समेटकर अपने आश्रम ले आए। विस्मिल की स्मृति में यहाँ एक समाधि का निर्माण कराया। समाधि निर्माण से पूरे क्षेत्र में आँदोलन को गति मिली।

यह खबर जब अंग्रेजी शासन को लगी तो शासन बौखलाया और कलेक्टर कैप्टन मूर ने समाधि तुड़वा दी। राघवदास जी बंदी बना लिये गये। कुछ समय बाद रिहाई तो बाबा राघवदास ने पुनः समाधि स्थल को संरक्षित किया। स्वतंत्रता के बाद यह समाधि पुनः बनी और 1980 में इसका जीर्णोद्धार हुआ। अब यहां पं रामप्रसाद बिस्मिल की भव्य प्रतिमा स्थापित है।

समय के साथ आसपास के क्षेत्र में भी आश्रम स्थापित हुये। उनका प्रमुख उद्देश्य समाज को शिक्षित, जागरुक और संस्कारित बनाना था। भेदभाव और छुआछूत मिटाने के लिये भी वे और उनकी पूरी शिष्य मंडली सक्रिय रहती। 1928 में गाँधी जी पुनः गोरखपुर आये और आश्रम भी गये। आश्रम में गाँधी जी ने एक सभा को संबोधित किया।

स्वतंत्रता के बाद वे कुछ समय सक्रिय राजनीति में आये और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नरेंद्र देव को 1312 वोटों से हराकर विधायक बने। जब सरकार ने कोल्हू से संचालित तेल मिलों पर कर लगाया तो राघवदास ने इसे गरीबों का उत्पीड़न माना और टैक्स वापस लेने की माँग की।

जब बात न बनी तो विधायकी से त्यागपत्र देकर सीधे जन आंदोलन केलिये मैदान में आ गये। तेज आँदोलन किया और अंततः सरकार को कोल्हू पर लगा कर समाप्त करना पड़ा। स्वतंत्रता के बाद अपनी सामाजिक गतिविधियों के अंतर्गत वे आचार्य विनोबा भावे द्वारा आरंभ किए गए भूदान आंदोलन से भी जुड़े।

पर भूदान आंदोलन में उनकी सहभागिता अधिक न रह सकी। उनका मानना ​​था कि स्वतंत्रता प्राप्त करना जितना कठिन होता है उतनी ही साधना स्वतंत्रता को दीर्घकालिक बनाने के लिये होती है। इसके लिये समाज का शिक्षित और जागरूक होना आवश्यक है। इसके लिये उन्होंने देवरिया , बरहज और कुशीनगर में शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की।

शिक्षा के साथ सामाजिक समरसता, स्वच्छता और स्वास्थ्य रक्षा पर बहुत जोर देते थे। आश्रम परिसर में भी श्रीकृष्ण इंटर कॉलेज और सरोजिनी बालिका विद्यालय के साथ-साथ एक संस्कृत कॉलेज स्थापित किया।

गोरखपुर और मैरवा बिहार में एक कुष्ठ रोग चिकित्सा केन्द्र की स्थापना की। इस प्रकार अपना पूरा जीवन राष्ट्र समाज और संस्कृति के लिये समर्पित करने वाले संत बाबा राघवदास जी ने 15 जनवरी 1958 को मध्यप्रदेश के जबलपुर अपनी देह त्यागी।

उनके शिष्य परंपरा ने देश भर के विभिन्न स्थानों में आश्रम स्थापित किये और समाज सेवा का काम अनवरत रखा। स्वामी का आश्रम उन विरले स्थानों में से एक है जहाँ गाँधी जी, पंडित मदनमोहन मालवीय और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गोलवलकर जी जैसी स्वनामधन्य विभूतियाँ समय समय गयीं। उनका आश्रम युवकों के लिये आदर्श तब भी था और आज भी है।

आलेख

श्री रमेश शर्मा,
वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल, मध्य प्रदेश

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