यदि मनुष्य जो संवेदनाओं का पुंज है, मशीन की भांति ही कार्य करता रहे तो उसका जीवन सार्थक हो जाए। अतः समाज ने नाना कलाओं में पारंगत होकर समय-समय पर अन्य समाजों का मनोरंजन करने का काम करने लगे। ऐसी ही कलाओं में से कुछ कलाओं के नाम हैं – नटबाजी, कलन्दरी, जादूगरी आदि। नट, मदारी, बहुरूपिया, कलन्दर के कई भेद देश के कारण भाषा के कारण, संसाधनों की उपलब्धता के कारण हो गया। ये सभी घुमन्तू समूह हैं जो भ्रमणरत रहकर अपनी कलाओं को प्रदर्शित कर मनोरंजन करते हैं और स्वयं के लिए आजीविका उपार्जित कर अपनी घर, गृहस्थी संचालित करते हैं।
अपनी आदिम अवस्था में मनुष्य घुमन्तु ही था। उसकी संपूर्ण जीवनचर्या विचरणशीलता वाली थी। उसके पास स्मृति और कल्पना थी। इनके कारण वह मनुष्य था। इन्हीं विशेषताओं ने उसे कलाकार बनाया। बुद्धिमत्ता और कल्पनाशीलता में ही उसे मनुष्य होने की महिमा प्रदान की।
उसने रंगों की तलाश की, वृक्षों को काट परिधान बनया। वह चित्रकार के साथ-साथ शिल्पकार भी बना, वह उपभोग की वस्तुओं का निर्माता बना। उसने प्रकृति को करीब से देखकर नित-नवीनता का अनुभव किया और कवि बना। भारत देश को पहले ‘‘सोने की चिड़िया’’ कहा जाता था। इस देश की संपन्नता और प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही यहाँ की कला-कुशलता और यहाँ के निवासियों के श्रम-सामर्थ्य ने इसे यह संज्ञा दी थी।
हमारा प्यारा भारत देश जितना प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है, उससे कहीं अधिक यह सांस्कृतिक सम्पदाओं से पूरिपूर्ण है। यहाँ की लोक संस्कृति इन्द्रधुनीषिय संस्कृति है। जो अनेक जातियों की जातीय संस्कृति की आभा को आलोकित करती है। इनमें कई जनजातियाँ, अधिसूचित जातियाँ, अनुसूचित व विमुक्त जातियाँ शामिल हैं।
छत्तीसगढ़ की घुमन्तु जाति देवार आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से सुदृढ़ नहीं हैं। किन्तु यह सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न हैं। इनकी कला इनके जीवकोपार्जन का साधन है। देवारों की निरीहता आज भी लगभग वैसी है, जैसे पहले थी। आज भी ये खानाबदोश जिन्दगी जीते हैं। एक गाँव से दूसरे गाँव में डेरा डालना इनकी मजबूरी है। एक ही स्थान पर स्थायी रुप से बसना इन्हें गवारा नहीं। गाँव के बाहर किसी नदी या तालाब के किनारे खुले मैदान में रहना इन्हें पसंद है।
इनके ठहरने का स्थान देवार डेरा कहलाता है, जो कुछ खपचियों की सहायता से पुराने कपड़ों से बना होता है। देवार डेरा अर्थ वलयाकार होता है, जिसमें भीषण गर्मी, वर्षा और कंपकंपाती ठंड का ये सामना करते हैं। खुले में खाना बनाना एक खंभे में रस्सी के सहारे बर्तनों को ढाँग कर रखना तथा अपने देवी-देवताओं को घेरकर सुरक्षित रखना ये भली भाँति जानते हैं।
छत्तीसगढ़ की धरती प्राकृतिक और भौगोलिक दृष्टि से जितनी सुघड़ है, उससे कहीं अधिक यह सांस्कृतिक दृष्टि से सुघड़ है। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, हरे-भरे जंगल, सदानीरा लहराती नदियाँ, उर्वरा धरती, धरती की कोख में छिपी खनिज संपदाओं के विशाल भण्डार। इसकी प्राकृतिक सम्पदा के प्रतीक हैं। यह लोक साहित्य और लोक संस्कृति का भी अक्षय कोष है।
सुवा, करमा, ददरिया, पंथी, छेरछेरा, फाग, भोजली, गौरा आदि तथा लोक गाथाओं में पंडवानी, भरथरी, ढ़ोला-मारू, गोपी-चंदा, गुजरी गहिरिन, नगेसर कैना, दसमत कैना जैसी विश्व प्रसिद्ध लोकगाथाओं की गायन परम्परा आज भी इसकी सांस्कृतिक सम्पन्नता के प्रमाण हैं। यहाँ की लोक संस्कृति का रंग इंद्रधनुषी है। इसे पहले इन्दधनुषी रंग देने में यहाँ की घुमन्तु जातियों का बड़ा योगदान है। जिनमें देवार, घुमन्तु जाति का अग्रगण्य स्थान है।
अन्य घुमन्तु जातियों की तरह देवार भी जीवन जीने के लिए न्यूनतम सुविधाओं की तलाश में थोड़े-थोड़े समय बाद अपना स्थान बदलते रहते हैं। मध्य युग में राजा भगवान का रूप माना जाता था। दरबारी कवि राजा की वीरता, उदारता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते थे, इन्हें रासो या रासक कहा जाता था। देश में लोकतंत्र की स्थापना के साथ राजवंश समाप्त हो गये। तब इन कवियों की रचनाएँ आम आदमी के संसर्ग में आई। इन कवियों को चारण या भाट के नाम से पुकारा जाता था।
चारण कवियों की कविताएँ वाचिक परंपरा में कंठ-दर-कंठ गूँजती गीति -नाट्य में बदलकर लोक साहित्य में समाहित होती गई। संभवतः इन्ही चारणों की परंपरा में छत्तीसगढ़ के देवार भी आते हैं, कुछ लोगो का मत है कि राजद्रोह के दंडस्वरूप इन्हें राजदरबार से निकाला गया। पदभ्रष्ट होने के बाद ही संभवतः इन्हें बंदर, सूअर पालना और बहू-बेटियों के सार्वजनिक नाच-गान को आजीविका का माध्यम बनाना पड़ा। ये अपने सकल कुटुम्ब सहित ब किसी गाँव के पास डेरा डालते है, तब उसे ‘देवार डेरा’ कहा जाता है। अधिकतर ये खाली पड़े मैदानों में, कभी-कभी गाँव के मैदान में अपना अस्थायी आवास बनाते हैं, जहाँ जल एवं निस्तार की सुविधा होती है।
देवार जाति पहले साधनहीन और आर्थिक दृष्टि से बड़ी विपन्न, किन्तु असुविधाओं के बीच भी संतोषी स्वभाव से जीने की आदि है । इसलिए भरी बरसात, कड़कड़ाती ठंड और चिलचिलाती धूप में पुराने कपड़ों से बनी झोपड़ी में हँसी-खुशी से जी लेते हैं। ये जितने भिन्न हैं, कला की दृष्टि से उतने ही संपन्न है। गायर, वादन और नृत्य में इनकी पारंगतता बड़े- बड़े संगीतज्ञों को अचंभिक करती है। इनकी कला की विशेष पहचान है।
देवार जन सीधे-सादे, भोले-भाले और सरल होते हैं। संतोष इनका वैभव है, गायन वादन और नृत्य इनका गौरव है। इनके अपने जातीय लोक वाद्य हैं, इनके अपने जातीय लोक गीत हैं और अपनी जातीय लोक-गाथाएँ भी। जिन पर ‘देवार’ की मुहर लगी हुई है। ‘देवार’ शब्द सुनते ही छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का कला वैभव हमारी आँखों के सम्मुख दृष्टिगोचर होने लगता है।
देवार छत्तीसगढ़ की घुमन्तु जाति है। इस जाति के द्वारा गाये जाने वाले गीत देवार गीत कहलाते हैं। देवार जाति बड़ी कला प्रवीण जाति है। स्त्री हो या पुरूष ये नृत्य व गायन कला में पारंगत होते हैं। पुरूष रूंजू नामक लोक वाद्य बजाते हैं। मांदर बजाने में वे दक्ष होते हैं। जबकि महिलायें गीत गाकर नृत्य करती हैं। देवार बालाओं का आकर्षण ही अलग होता है। गायन व नृत्य की विशेष शैली के कारण इनकी कला अपनी पृथक पहचान रखती है।
पुरूष कलाकार गाथा गायन करते हैं। लंबी-लंबी कथाएँ इन्हें कंठस्थ रहती हैं। ये गरीबी के कारण शिक्षा व आधुनिक जीवन शैली से कोसों दूर हैं। निर्धनता का अभिशाप झेलते ये देवार कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। साथ ही बंदर व सांप की कलाबाजी दिखाकर भीख मांगते हैं। सुअर पालन इनका जातीय व्यवसाय है। देवार महिलायें गोदना गोदती हैं देवार करमा देवार गीतों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। देवार गाथा गायन का एक अंश –
चिरई में सुंदर रे पतरेंगवा, साँप सुंदर मनिहार
रानी म सुंदर दसमत कैंना, रुप मोहे संसार।
ए सीयरी दिनानाथ
नवलाख ओड़िया नवलाख ओड़निन
डेरा परे सरी रात
ओड़निन टूरी ठमकत रेंगय
गिर गए पेट के भार
पांच मुड़ा के बेनी गंगाले
खोंचे गोंदा फूल
नवलाख ओड़िया नवलाख ओड़नीन
कोड़य सागर के पार
करमा गीत ‘
बघवा रेंगाले धीरे धीरे ग डोगरी के तीरे
बघवा रेंगाले धीरे-धीरे
कोन नदी ऐले ठेले, कोन नदी घूचा पेले
कोन नदी म मारय बइहा मोर येदे हिंचकोले
डोंगरी के तीरे-बघवा रेंगाले धीरे धीरे।
उपमा अलंकार के सफल प्रयोग से अलंकृत से पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं –
हरदी सही तोर अंग दिखत हे,
कुंदरू सही तोर होंठ
पाका केरा सही तोर जांघ दिखत है,
कांचा खवाउल आस।
यह तरह-तरह के रुप बनाकर भिक्षा मांगते हैं। पुरूष कभी साधु, कभी तांत्रिक, कभी शनिदेव बनकर भीख मांगने निकलते हैं। महिलाएँ सफेद साड़ी पहनकर डोलची में, कभी संतोषी माता, कभी काली माता तो कभी शनिदेव की फोटो लेकर भीख माँगने निकलती हैं। कभी छोटे बच्चों को पीठ पर बाँधे शरीर पर नाम मात्र का फटा-पुराना कपड़ा पहने बाजार में निकल जाती हैं। पुरूष बन्दर, भालू नचाकर, लोगों का मनोरंजन करते हैं। और बदले में कुछ रुपये कमाकर लाते हैं। देवारिन गोदना गोदने का काम भी करती हैं। गीतों के माध्यम से बड़ी-बूढ़ियाँ किशोरियों को अपने काम के संबध्ं में सतर्क करती हुई समझाती हैं कि –
झनकर कोताही देवारिन टूरी झन कर कोताही,
गोदना ला गोदबे अऊ भीख ल मांगबे,
वोही ह तोला पोसाही,
झन कर कोताही देवार टूरा झन कर कोताही
सारंगी बजाबे बरहा ल चराबे, ओही ह तोला पोसाही,
देख रे देवारिन टूरी गजब इतराथस,
गोदना ल गोदत-गोदत मंगल गीत गायस,
सूपा पैली दार चउर पाके मजा मारथस
देख रे देवार टूरी गजब इतराथस,
सरांगी बजा के मन ल लोभाथस,
बरहा चरावत अऊ मंगल गीत गाथस।
ऐसी ही एक देवार गाथा है गोपालराय पंवाड़ा की। उनके जन्म पर पूरी जाति, कुल का यश बढने के प्रति आशान्वित हो जाती हैं ये स्वस्थ और बली हैं –
नौ मर्द के जेथे अढ़ईया,
दसे सर्द के दार, लोहे के चने चबाता है।
वह नौ मर्द का बढ़ाई गुना अर्थात् 23 मर्दों के बराबर भात और दस मर्द के बराबर दाल खाता है। लोहे के चने चाबता है, उसके दाँतों से टकराने के कारण अग्नि स्फुल्लिंग उत्पन्न होते हैं। एक लोहे का चना उसके डाढ़ में फँस गया था, जिसे निकालना मुश्किल हो गया था।
जैसे महाभारत युद्ध में अर्जुन के रथ पर हनुमान जी बैठे थे, वैसे ही गोपालराय के विभिन्न अंगों पर देवताओं की उपस्थिति का वर्णन होता है –
जांघ म जांघ देवता,
भुजा म कुलहारिया
दूनों नैन म शनिच्चर बइठे हे।।
अपने काम में माहिर देवारिन गोदना गोदते हुए चुभन की पीड़ा विस्मृत करने के सबब से लोक गीत गाती जाती हैं
गोदना गोदाले मोर रानी,
ये गोदना निसानी पिरीत के,
मन म पिरीत अउ आँखी म पानी,
गोदना गोदा ले मोर रानी।
देवार हिन्दू धर्म को मानते हैं और हिन्दू धर्म में संस्कारों का बहुत महत्व है। देवार भी संस्कारों से अपने सामाजिक जीवन को संस्कारित करते हैं। ये हिन्दूओं के सारे त्यौहार मनाते हैं, मनाने के ढंग भले ही उनके अपने होते हैं, प्रत्येक त्यौहार नाच-गाने, मद्य, माँस के साथ ही मनाया जाता है। ये होली, दीवाली, राखी, करमा आदि त्यौहार बड़े उत्साह से मनाते हैं। होली के समय स्त्री-पुरूष मिलगर गाते नाचते हैं, एक गीत देखिये –
गढ़ लंका रे गढ़ लंका
गढ़ लंका के दसो दुआर घेर लिए कपि बानर
और नदी की भँवर जैसे घूमता देवारिन का लहंगा, देवार सारंगी, मांदल, हारमोनियम बजाते हैं और देवारिने नृत्य करती है। अपने परंपरागत पोशाक और गिलट के आभूषणों से सुसज्जित। उसके बाद चढता है मस्ती का रंग और गूंज उठता है –
ये दे कांचा जुवानी कचनार फूले, बहिनी मुदरी गंवा गे सुंदर बन म।’’
त्यौहार के अधिष्ठाता की वंदना के बाद कृष्ण भगवान् का भजन गाया जाता है एक गीत देखिए –
खेले होरी नंद जू के मोरे लाला,
खेलत-खेलत गेंद गिरे जमुना म,
कूद परे बंसी वाला,
हाथ के चूरी, माथ सेंदूर
अमर रख बंसी वाला।
यह गीत मुक्तकक जैसा है। नंद जी के लाला होली खेल रहे हैं खेलते-खेलते गेंद यमुना में गिर गई, उसे निकालने के लिए बंसी वाले कूद पड़े। आखिरी पंक्ति में वह भगवान से अपने सुहाग के अमरत्व के लिए आशीर्वाद मांगती।
हजारों हजार गीत देवारों के बीच परंपरागत रुप से प्रचलित है। इन गीतों के लिए न तो किसी प्रशिक्षक की आवश्यकता है न गीतकार की। ये पीढ़ी दर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से अगली पीढ़ी को स्वाभाविक रुप से हस्तांतरित होते रहते हैं।
उपसंहार –
देवारों की संस्कृति वास्तव में वह संस्कृति है जो छत्तीसगढ़ प्रदेश के सांस्कृतिक परिदृश्य को पूर्णता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है। देवार समुदाय के लोग छत्तीसगढ़ में वही भूमिका अदा करते हैं, जैसे राजस्थान में बंजारा जाति के लोग एक विशेष सांस्कृतिक विरासत को लेकर जीवकोपार्जन हेतु घुमा करते हैं। वास्तव में देवार समुदाय नाना प्रकार की कौतुहल पूर्ण संस्कृति का धनी समुदाय हैं। चलते-चलते, उठते बैठते गीतों की रचना करने वालों में से हैं। गली-गली में भ्रमण के कारण ही उनके गीत रोचकता पूर्ण होते हैं। आधुनिकता एवं सांस्कृतिक क्षरण के युग में देवारों की संस्कृति को संरक्षण की आवश्यकता है।
संदर्भ :-
- चौमासा 2022
- दूर्वा पत्रिका
- छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति
- घुमंन्तु जनजातिः साहित्य एवं समस्याएँ
- प्रगति वार्ता पत्रिका
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