चाहते हो सुख शांति अगर,
अपने घर परिवार में।
रोक लगानी होगी सबको,
भौतिकता की रफ्तार में।।
मुँह फैलाये द्वार खड़ी है,
सुरसा बनकर भौतिकवाद।
इसी वजह से हो रही है,
संस्कृति भी अपनी बर्बाद।
रावण जैसे यहाँ चूर सभी हैं,
कुलनाशक अहंकार में।।1।।
पर्यावरण हो रहा प्रदूषित,
अपने ही करतूतों से।
आस लगाये बैठी है धरती,
माता अपने सपूतों से।
क्यों बहा दिये ज्ञान को अपने,
बहती नदी की धार में।।2।।
निज स्वार्थ में पड़कर मानव,
मर्यादायें भी लांघ रहे।
जागो जागो कहकर मुर्गे,
रोज सुबह से बाँग रहे।
काट दिये जाते हैं अक्सर,
जगाने वाले भी संसार में।।3।।
एक सूक्ष्म जीव के कारण,
चारों तरफ है हाहाकार।
हो चाहे कितने बलशाली,
आगे उसके सब लाचार।
बच ना सकेगा कोई चपेट से,
लाखों लगा ले उपचार में।।4।।
खुद के भीतर झांक के देखो,
भटक रहे क्यों आठों याम।
नहीं कहीं जाने की जरूरत,
सबके भीतर में हैं बैठे राम।
नादानी वश सब देख रहे हैं,
“दीप” विभिन्न अवतार में।।5।।
सप्ताह की कविता
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कुकरेल सलोनी ( धमतरी )