बनकर मृग मारीच वे, बिछा रहे भ्रम जाल।
फँसती जातीं बेटियाँ, समझ न पातीं चाल।।
समझ न पातीं चाल, चली असुरों ने कैसी।
तिलक सुशोभित भाल, क्रियाएँ पंडित जैसी।।
प्रश्रय पा घुसपैठ, राष्ट्र को छलने तनकर।
बिछा रहे भ्रम जाल, हिरण सोने का बनकर।।
(2)
कर लें पालन सूत्र हम, सर्व धर्म समभाव।
सत्य सनातन धर्म का, करते हुए बचाव।।
करते हुए बचाव, प्रथम कर्तव्य निभाएँ।
व्यर्थ धर्म बदलाव, भाव मत मन में लाएँ।।
विनय यही कर -जोर, ईश्वर मति मत हर लें।
गीता जीवन सार, लोग हृदयंगम कर लें।।
(3)
बलि हरदम चढ़ते सखा, व्यक्ति यहाँ निर्दोष।
मुद्दे मिल जाते वहीं, जाहिर करने रोष।।
जाहिर करने रोष, शीघ्र वे सब भिड़ जाते।
आंदोलन आक्रोश, प्रकट करते करवाते।।
अत्याचार अनीति, अनावश्यक पसरा तम।
करती राज कुनीति, नीति चढ़ती बलि हरदम।
Tags सप्ताह का कवि सप्ताह की कविता सूर्यकांत गुप्ता 'कांत'
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