Home / इतिहास / फणिनागवंशियों के नगर पचराही का पुरातात्विक वैभव

फणिनागवंशियों के नगर पचराही का पुरातात्विक वैभव

पचराही, छत्तीसगढ के कबीरधाम जिला मुख्यलय से लगभग 45 कि॰ मी॰ दूर हांप नदी के किनारे मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है। प्राचीन नाम पंचराहों का अपभंश पचराही से समझा जा सकता है। क्योंकि यहां से पांच राहे निकलती है।

जिनमे रतनपुर, मंडला, सहसपुर, भोरमदेव (चौरागढ), लंजिका (लांजी) इस प्रकार पांच राहो का मुख्य केन्द्र रहा है। साथ ही प्राचीन काल मे एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। नगर की बसाहट के अवशेषों के साथ वैष्णव, शाक्त एवं जैन धर्म से संबंधित देवी- देवताओं की मूर्तियों के साथ मंदिर प्रकाश में आए हैं जिनको कि 9वीं सदी ई॰ से 13वीं सदी तक के काल में आंका जा सकता है।

ऐतिहासिक साहित्य में इस क्षेत्र को पश्चिम दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। राज्य बनने के पश्चात कुछ ही ऐतिहासिक स्थलों पर उत्खनन का कार्य प्रारंभ हुआ है। छ्त्तीसगढ राज्य बनने के पश्चात पुरातत्वीय उत्खनन के कार्य को शासन ने प्राथमिकता दी है। जिससे राज्य के पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक तिथि क्रम का नवीन झलक आना प्रारंभ हो गया है।

उत्खनन – संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व द्वारा पचराही में वर्ष 2007-10 से उत्खनन का कार्य हुआ। पचराही का जो सांस्कृतिक तिथि क्रम सामने आया है। वह निम्नानुसार है-

प्रथम काल   –  अ  –  उत्तर पाषाण काल

             ब – सूक्ष्म पाषाण काल (मेसालिथिक)

व्दितीय काल –  गुप्तोत्तर काल (सोमवंशी)

तृतीय काल – कल्चुरि

चतुर्थ काल – फणिनागवंश

पंचम काल – इस्लामिक

उत्खनन से प्रागैतिहासिक काल से लेकर मुगल काल तक के अवशेष उपल्ब्ध हुए हैं। पचराही स्थापत्य एवं शिल्प कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। जो कि राजनैतिक स्थायित्व एवं धार्मिक समरसता का प्रतीक है।

विगत सत्र के उत्खनन से दो जलीय प्राणी के जीवाश्म मिले हैं जिनमें से एक जीवाश्म मौलुस्का परिवार का है। जबकि दूसरा फाइसा परिवार का है। वैज्ञानिकों के अनुसार मौलुस्का जीवाश्म का काल लगभग 13 करोड़ वर्ष है। भारत में पहली बार उत्खनन से उक्त जलीय प्राणी का जीवाश्म पचराही से मिला है।

इसके साथ ही पचराही क्षेत्र में आदिमानवों का भी आश्रय स्थल रहा है। जहां से उत्तर पाषाणीय काल एवं मेसोलिथिक काल के सूक्ष्म उपकरण उपलब्ध हुए है। हाप नदी के किनारे ग्राम बकेला से प्रचुर मात्रा में पुरापाषाण उपकरण मिले है। जो कि छ्त्तीसगढ का सबसे बड़ा पुरापाषाण इंडस्ट्री साईट साबित हुआ है।

एक लंबे अंतराल के बाद सोमवंशी काल में पचराही फिर से आबाद हुआ। इस काल मे कंकालिन नामक स्थल को सुरक्षा की दृष्टि से दो परकोटा से घेर कर मंदिर प्रकाश में आया हैं साथ ही खुदाई से यहां सोमवंशी काल के पार्वती एवं कार्तिकेय पट्ट प्राप्त हुए है। खुदाई के पूर्व इस टीले पर सोमवंशी काल का द्वार- तोरण एवं कई मूर्तियां रखी हुई थी जो कि अब खैरागढ संग्रहालय में प्रदर्शित है।

सोमवंशी काल के उपरान्त पचराही कल्चुरि काल में भी आबाद रहा। यहां से हमें पहली बार कल्चुरि राजा प्रतापमल्लदेव की स्वर्ण मुद्राएं उपलब्ध हुई है। इसके अतिरिक्त दो स्वर्ण मुद्रायें रतनदेव की है एवं जाजल्लदेव, पृथ्वीदेव की भी रजत मुद्राएं प्राप्त हुई है। कल्चुरि काल के पराभव के पश्चात पचराही पर फणिनागवंश राजाओं ने अपना कब्जा किया और इस स्थान पर मंदिर, महल आदि का निर्माण कराया।

यहां से पहली बार फणिनागवंशी शासक कन्हरदेव की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई है। साथ ही अन्य फणिनागवंशी राजाओं यथा- श्रीधरदेव, जशराजदेव की भी रजत मुद्रायें प्राप्त हुई है। इसके पश्चात मुगल काल के समय तक पचराही एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र रहा होगा क्यों कि यहां से एक दर्जन मुगल कालीन मुद्राएं उपलब्ध हुई है।

पचराही 11वीं-12वीं सदी ई॰ में शिल्प एवं वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित होकर एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। पचराही उत्खनन से मंदिरों, मूर्तियों के अतिरिक्त वहां आम एवं खास व्यक्तियों के रहने के बसाहट के अवशेष प्रकाश में आए हैं। सुरक्षा दीवार के भीतर खास व्यक्तियों के रहने के अवशेषों के साथ यहीं से सोने, चांदी एवं ताम्बे के सिक्कों की उपलब्धता रही है।

जबकि चहारदीवारी के बाहर आम नागरिक रहा करते होंगे जहां से कुम्हार एवं लोहारों के द्वारा प्रयुक्त सामग्रियों के अवशेष प्रचुर मात्रा में मिले। यहां से ही बच्चों के खिलौने, मिट्टी की मणिकायें तथा दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाले लौह एवं ताम्र उपकरण एवं आभूषण प्राप्त हुए हैं।

पचराही के परिक्षेत्र क्रमांक 4 में पंचायतन शैली का शिव मंदिर मंडप के साथ उत्खनन से प्रकाश में आया है, साथ ही यहां के वैज्ञानिक उत्खनन से राजपुरुष एवं उमा-महेश्वर की अत्यंत कलात्मक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।

पचराही के उत्खनन परिक्षेत्र क्रमांक 5 में तीन सुरक्षा दीवार है जो कि नीचे पाषाण खंडों की दीवार के ऊपर लगभग 100 मीटर लम्बी एवं मीटर चौड़ी ईंट निर्मित दीवार प्रकाश में आई है। भवन में ऊपर जाने के लिए सीढियों के अवशेष भी यहां देखे जा सकते है।

मंदिर- पचराही के उत्खनन से 6 मंदिरों के अवशेष प्रकाश में आए हैं जहां से कलात्मक मूर्तियां प्रकाश में आ रही है।

बकेला- हाप नदी के दूसरी ओर ग्राम बकेला के टीले में जैन प्रतिमाओं के शिल्प खण्ड आज भी देखे जा सकते है। जिनमें धर्मनाथ, शांतिनाथ एवं पार्श्वनाथ की खंडित प्रतिमांए विद्यमान हैं। समीपस्थ बाबा डोंगरी नामक स्थल पर एक जैन मंदिर की द्वारशाखा जिसके मध्य में महावीर स्वामी की मूर्ति उत्कीर्ण है, रखी हुई है एवं साथ ही कुछ स्थापत्य खंड भी दृष्टव्य हैं।

संग्रहालय – पचराही उत्खनन से प्राप्त सामग्री को यहाँ संग्रहालय बनाकर संग्रहित किया गया है एवं पर्यटकों के दर्शनार्थ प्रदर्शित किया गया है।

पचराही कैसे जाएं

वायु मार्ग : निकटतम हवाई अड्डा रायपुर, मुम्बई, नागपुर, भुनेश्वर, कोलकता, दिल्ली,
विशाखापट्नम और रांची से सीधे जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग : निकटतम रेल्वे स्टेशन रायपुर मुम्बई-हावड़ा मुख्य रेल मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग : कबीरधाम से 45 कि॰मी॰ एवं पण्डरिया से 20कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है।
जहां से टैक्सी व बस सेवा उपलब्ध है। रायपुर से सतत बस सेवा द्वारा व्हाया कबीरधाम-बोड़ला हेतु पहुंचा जा सकता है। रायपुर से कुल दूरी 180कि॰मी॰ है।
आवास : होटल, लाज तथा लोक निर्माण विभाग का विश्राम गृह कबीरधाम, बोड़ला व पण्डरिया में उपल्ब्ध है।

टीम दक्षिण कोसल

About nohukum123

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *