दक्षिण कोसल की एक प्रमुख पुरा धरोहर सिरपुर है, किसी जमाने में यह समृद्ध सर्वसुविधा युक्त विशाल एवं भव्य नगर हुआ करता था, जिसके प्रमाण आज हमें मिलते हैं। यह कास्मोपोलिटिन शहर शरभपुरियों एवं पाण्डुवंशियों की राजधानी रहा है और यहाँ प्रसिद्ध चीनी यात्रा ह्वेनसांग के भी कदम पड़े थे, जिसका जिक्र उसने अपने यात्रा वृतांत में किया है।
यहाँ भ्रमण करने के बाद सामन्यत: पर्यटक के मन में यह विचार आता है कि कोसल जैसे विशाल राज्य की समृद्ध एवं वैभवशाली राजधानी श्रीपुर का पतन कैसे हुआ? इस नगरी का वैभव कैसे उजड़ गया? ऐसा क्या हुआ होगा जो श्रीपुर को पतनोन्मुख होना पड़ा?
मेरे भी मन में यह प्रश्न उठने लगे। एक तरफ़ जहाँ महाशिवगुप्त जैसे बलशाली राजा हुए, जिन्होंने लगभग 60 वर्षों तक सिरपुर पर शासन किया। उनके शासन काल में सभी धर्मों एवं मतों को समान आदर मिला। विद्वानों को उनके राज्य में संरक्षण मिला। महाशिवगुप्त बालार्जुन का शासन काल राज्य का स्वर्णिम युग था। उसने कभी न सोचा होगा कि इस वैभवशाली राजधानी का पतन भी हो सकता है।
किसी शहर, नगर या राजधानी का पतन एकाएक नहीं होता। जब उसे उतकर्ष पर पहुंचने में शताब्दियाँ लग जाती हैं तो पतन होने भी समय लगता है। श्रीपुर के पतन के अनेक कारण हो सकते हैं। जिनमें से कुछ हमें प्रत्यक्ष रुप से वहां के स्मारकों में परिलक्षित होते हैं।
अगर हम सिरपुर की भौगौलिक स्थिति देखें तो नगर के पश्चिम दिशा में महानदी प्रवाहित होती है। उनके प्रवाह के कारण किनारों का क्षरण होता है। निरंतर कटाव के कारण नदियाँ बरसात के दिनों में अपना रास्ता भी बदल लेती हैं। अब यह तय नहीं होता कि कौन से किनारे तरफ़ कटाव अधिक होगा।
उत्खनन से ज्ञात है कि सिरपुर व्यापार की बहुत बड़ी मंडी था। यहाँ उत्खन में कई एकड़ों में बाजार क्षेत्र प्राप्त हुआ है। यह बाजार क्षेत्र महानदी के किनारे पर स्थित है। जब राजधानी बसी होगी तब महानदी का किनारा इतना दूर रहा होगा कि राजधानी को बाढ आदि से हानि न पहुंच सके। क्योंकि महानदी के किनारे उत्खनन में राजमहल परिसर भी प्राप्त हुआ है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि राजा ने अपना महल सुरक्षित क्षेत्र में बनवाया होगा।
बाजार में उत्खन से प्राप्त भवनों में मरम्मत के चिन्ह मिलते हैं। प्रतीत होता है कि अत्यधिक वर्षा होने से महानदी का प्रवाह तटबंध तोड़कर बाजार क्षेत्र में प्रवेश कर जाता था। जिसके कारण भवनों को हानि पहुंचती थी। बाढ का पानी उतरने के बाद निवासी अपने भवनों की मरम्मत कराते थे।
बाजार क्षेत्र के भवनों में मूल निर्माण सामग्री के अलावा उस समय उपलब्ध निर्माण सामग्री से मरम्मत कराने के स्पष्ट प्रमाण दिखाई देते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सिरपुर के पतन में महानदी की बाढ की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। वर्तमान सिरपुर में भी महानदी में बाढ आने पर नगर को हानि पहुंचने की आशंका बनी रहती होगी।
हम देखते हैं कि भूकंप आने पर बड़े बड़े नगर और राजधानियां कुछ पलों में निर्जन हो जाती हैं। धरती का एक बार थरथराना ही हजारों लाखों लोगों को काल के आगोश में समा देता है। श्रीपुर के पतन में भुकंप की भूमिका भी रही होगी। भुकंप के चिन्ह सुरंग टीला स्थित पंचायत मंदिर के अधिष्ठान में दिखाई देते हैं। देखा जाए तो सुरंग टीला मंदिर की जगती भारत के मंदिरों में सबसे अधिक ऊंचाई पर है।
दूर से देखने पर लगता है कि मिश्र के किसी पिरामिड के समक्ष खड़े हैं। मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए 43 पैड़ियाँ चढनी पड़ती हैं। इसका तल विन्यास नदी के तल से 17 फ़ुट ऊंचा है। वर्तमान में मंदिर पैड़ियाँ दबी हुई हैं। इनके कोण बदले हुए हैं। विशाल मंदिर की संरचना में परिवर्तन सिर्फ़ भुकंप से ही आ सकता है। इससे स्पष्ट होता है श्रीपुर में भुकंप भी आया होगा। जिसके कारण इस नगर का पतन हुआ होगा।
भूकंप द्वारा विनाश के प्रमाण हमें अन्य स्थानों पर भी मिलते हैं। महाराष्ट्र के नागपुर जिले स्थित मनसर(मणिसर) में स्थित वाकाटक राजाओं के भग्न राजमहल का ढहने का कारण भी भुंकप दिखाई देता है। भुकंप के चिन्ह राजमहल के भग्न भवन पर स्पष्ट दिखाई देते हैं। मनसर से सिरपुर की दूरी लगभग 300 किलो मीटर होगी। हो सकता है दोनो जगह एक ही समय भुकंप आया हो।
संयुक्त राष्ट्र भूगर्भीय सर्वे के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष रिक्टर स्केल 3 से 3.9 के 49000 हल्के, 6 से 6.9 के 120 अधिक तीव्र, 7.9 से 8 के 18 बड़े तथा 8 से 9 पर एक बहुत भीषण भुकंप आते हैं, पंजाब के उत्तर पूर्व में उत्तरांचल, टिहरी व गढ़वाल, दक्षिण में गुजरात व महाराष्ट्र तथा दक्षिण में गुजरात व महाराष्ट्र तथा दक्षिण में गुजरात व महाराष्ट्र तथा दक्षिण पूर्व में मध्य प्रदेश के क्षेत्र में भूकंप की दृष्टि से काफी संवेदनशील क्षेत्र माने जाते हैं।
पाण्डुवंशियों में महाप्रतापी राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन ने 60 वर्षों तक शासन किया। किसी भी राजा के द्वारा लम्बी अवधि तक शासन करना यह दर्शाता है कि उसका प्रभुत्व स्थापित था। उसके अड़ोसी-पड़ोसी राज्य या तो उसके मित्र थे या उससे भय खाकर आक्रमण नहीं करते थे। ऐसा ही महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासन काल में हुआ होगा। लम्बा शासन काल अवश्य ही जनकल्याणकारी रहा होगा।
इसके बाद के उसके उत्तराधिकारियों के नाकारा एवं निर्बल होने के कारण ताक में बैठे पड़ोसियों ने आक्रमण करके उन्हे परास्त कर दिया। जिससे महाशिवगुप्त बालार्जुन का विशाल साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह ढह गया। साम्राज्यवादी चालुक्यों से ये बच नहीं सके।
इनकी निर्बल स्थिति का लाभ नलवंशी शासकों ने भी उठाया और दक्षिण कोसल एवं पश्चिम कोसल में अपनी प्रभुता स्थापित की। राजिम का राजीव लोचन मंदिर नल वंशी शासक विलासतुंग का बनवाया हुआ है। इससे जाहिर होता है कि नलवंशी महानदी के तीर तक पहुंच चुके थे।
नवमी शताब्दी के अंतिम चरण में कलचुरी शासक भी आ चुके थे। उस समय पाण्डुवंशियों ने उड़ीसा की तरफ़ पलायन कर लिया और विनीतपुर एवं ययातिपुर को राजधानी बनाई। कलचुरियों तुम्माण से राजधानी रतनपुर ले आए। श्रीपुर उपेक्षित रहा। इसके पश्चात कलचुरी शासकों में विभाजन के पश्चात रायपुर राजधानी बनी तब भी श्रीपुर उपेक्षित ही रहा।
राजधानी के पतन के साथ व्यापारी भी उस स्थान पर चले गए जहाँ उन्हे व्यापार की संभावनाए नजर आई। व्यापारियों को लाभ अर्जित करने से मतलब होता है। चाहे किसी का राज हो और कोई भी शासक हो। इस तरह श्रीपुर के लोग अन्य राजधानियों की ओर पलायन कर गए और श्रीपुर श्री विहीन हो गया।
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