मार्गशीर्ष माह के शुक्लपक्ष पंचमी श्री राम जानकी विवाह दिवस विशेष
वैदिक धर्म में मानव जीवन को चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम) में विभाजित किया गया है। वैदिक ग्रंथ कहते हैं कि मनुष्य जब जन्म लेता है तब से वह देव, ऋषि एवं पितृ का ऋणी होता है। देव ऋण से मुक्ति के लिए पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन करता है। ऋषि ऋण से मुक्त होने के लिए वेद अध्ययन अर्थात गुरु से ज्ञान अर्जन करता है और पितृ ऋण से मुक्ति के लिए विवाह कर संतोनोपत्ति करता है।
वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को महत्वपूर्ण माना गया है। जिनके बिना मानव जीवन सफल नहीं हो सकता। इन्ही सोलह संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार, विवाह संस्कार भी है। पितृ ऋण से उबरने के लिए गृहस्थ आश्रम एवं पाणिग्रहण-संस्कार अर्थात विवाह को अत्यंत आवश्यक माना गया है।
हिन्दू धर्म में विवाह को जन्मजन्मांतर का पवित्र बन्धन माना गया है। अग्नि के सात फेरे लेकर ध्रुव तारा को साक्षी
मानते हुए विधि-विधान से वर-वधु वैवाहिक बन्धन में बंध जाते हैं। इसी प्रकार भगवान शिव-पार्वती और श्रीराम-सीता भी इस पवित्र बंधन में बंधे थे। जिसे पूरा देश उत्सव के रूप में मनाता है। श्रीराम और सीता जी का विवाह ज्योतिषाचार्यो के अनुसार त्रेतायुग के मार्गशीर्ष माह के शुक्लपक्ष पंचमी तिथि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। इसीलिए इस दिन को विवाह पंचमी कहा जाता है।
श्रीमद वाल्मीकि रामायण के बालकांड सप्ततितमः सर्ग के अनुसार–
” उत्तरे दिवसे ब्रह्मन फाल्गुनीभ्यां मनिष व:।
वैवाहिके प्रशंसन्ति भगो यत्र प्रजापति:।।3।।
रामचरित मानस बालकांड–
मंगल मूल लगन दिनु आवा, हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।
ग्रह तिथि नखतु जोगु बटबारु,लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारु।।
श्रीराम विवाह का अत्यंत मनमोहक वर्णन तुलसीकृत रामचरित मानस में प्राप्त होता है। इस अलौकिक विवाह में प्रेम व शक्ति का संतुलन था।जिसने जनमानस में अमिट छाप छोड़ी। जो आज तक लोक में देखी जा सकती है। जब विश्वामित्र की सहायता हेतु दैत्यों के संहार को श्रीराम-लक्ष्मण निकल पड़ते हैं तब उनका पड़ाव मिथिला में पड़ता है।
हरषि चले मुनि वृंद सहाया, बेगि बिदेह नगर नियराया।
जहाँ सीता स्वयंवर की तैयारियां चल रही थीं। मुनि श्रेष्ठ के आगमन का समाचार सुन मिथिलापति जनक स्वयं मुनि विश्वामित्र से भेंट करने पहुंचते हैं –
बिस्वामित्र महामुनि आए, समाचार मिथिलापति पाए।
श्रीराम व लक्ष्मण मिथिला की पुष्पवाटिका में सर्वप्रथम सीता जी से भेंट होती है।सीता जी गौरी पूजन के लिए जाती हैं।
“तेहि अवसर सीता तहँ आई,गिरिजा पूजन जननि पठाई।”
जहां सीता जी राम जी को देखकर मुग्ध हो जाती हैं। परन्तु सीता जी को अपने पिता की प्रतिज्ञा का स्मरण होते ही वे अधीर हो जाती हैं।
“नख सिख देखि राम कै सोभा,सुमिरि पितु पनु मनु अति छोभा”
मंदिर में सीता जी माता पार्वती से श्री राम को पति रूप में पाने का आशीर्वाद मांगती हैं।
“गई भवानी भवन बहोरि बंदि चरन बोली कर जोरी।”
“मोर मनोरथ जानहु नींके, बसहु सदा उरपुर सबहीं कें।”
माँ पार्वती उन्हें आशीष देती हैं।
“सुन सिय सत्य असीस हमारी ,पूजहिं मन कामना तुम्हारी।”
“मन जाहि राचेउ मिलहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।”
इस प्रकार सीता जी ने श्री राम के द्वारा शिव धनुष को तोड़ते ही वर के रूप में स्वीकार कर वरमाला श्री राम को पहना देती हैं।
“गवहि छबि अवलोकि सहेली, सियँ जयमाल राम उर मेली।“
इसके पश्चात वैवाहिक कार्यक्रम शास्त्र वर्णित रीति से होने का वर्णन इस प्रकार मिलता है। सीता जी का मण्डप में आना, मुनि द्वारा शांति पाठ, गौरी-गणेश का पूजन एवं दूल्हे श्री राम के चरण पखरना आदि बालकांड में विशद वर्णन प्राप्त होता है –
” एहि बिधि सीय मंडपहिं आई,प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।”
“आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहिं।”
“लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
विवाह में भांवर एवं सिंदूर दान का नियम है जिसके बिना विवाह पूर्ण नही माना जाता। राम और सीता के भांवर का सजीव चित्रण देखने मिलता है।
“कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं, नयन लाभु सब सादर लेहीं।”
“प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरीं। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।
राम सीय सिर सेंदुर देहीं।सोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।
भांवर पश्चात दूलह राम एवं दुलहिन सीता को कोहबर अर्थात कुल देवता के स्थान में प्रस्थान जहां हास-परिहास के साथ कुछ नियमों की पूर्ति की जाती है मंगल गीत गाये जाते हैं। पुनः जनवासे में ले जाते जहां बारातियों को ठहराया जाता है और सभी को जेवनार अर्थात स्वादिष्ट भोजन कराया जाता है
“पुनि जेवनार भई बहु भाँति। पठए जनक बोलाइ बराती।”
“सादर सब के पाय पखारे।जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।।
धोए जनक अवधपति चरना।सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।।”
इस अवसर पर हास -परिहास करते समधी परिवार के पुरुषों एवं स्त्रीयों का नाम लेकर गाली का गीत गाती हैं।
“जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी, लै लै नाम पुरुष अरु नारी।”
अंत में राजा जनक ने राम-सीता, लक्ष्मण-उर्मिला, भरत-मांडवी,शत्रुघ्न-श्रुतिकीर्ति का विवाह संपन्न कर उन्हें अयोध्या के लिए समस्त बारातियों समेत दानदहेज के साथ बिदा किया।
“राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होउ हम इहाँ पठाए।।”
“चलिहिं बरात सुनत सब रानीं।बिकल मीनगन जनु लघु पानीं।”
“पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।”
होएहु संतत पियहि पिआरि।चिरु अहिबात असीस हमारी।।
सास ससुर गुर सेवा करेहू।पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।
अति सनेह बस सखीं सयानी।नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
रामचरित मानस में श्रीराम-सीता का विवाह शास्त्रोक्त विधि विधान से सम्पन्न होना वर्णित है। हिन्दू धर्म मे विवाह भी इसी रीति से पूर्ण किए जाने की परंपरा आज भी है। परन्तु इस दिन को विवाह के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता क्योंकि राम
सीता जी का जीवन विवाह पश्चात अत्यंत कष्टप्रद रहा। श्री राम को चौदह वर्ष के वनवास के बाद माता सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। अतः ऐसी मान्यता है कि यदि किसी कन्या का विवाह इस दिन किया जाता है तो उसका वैवाहिक जीवन सीता जी के समान सुखमय नहीं रहता, फिर भी श्रीराम-सीता की जोड़ी को आदर्शतम जोड़ी माना जाता है क्योंकि श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम और जगतजननी सीता को पतिव्रता और लक्ष्मी का स्वरूप माना गयाहै। इसलिए प्राचीन परंपराओं एवं लोक कथाओं में हम राम-सीता को ही पाते हैं। कोई भी पौराणिक कथानक इनके बिना पूर्ण नहीं होता। ईश्वर के अवतार राम ने लोक कल्याण एवं मानव समाज की समृद्धि एवं शांति के लिए मानव रूप में जन्म लेकर लीलाएं की।
“जग निवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक विश्राम।”
प्रभु ने राजा दशरथ के घर पुत्र रूप में जन्म लिया था।
“भए प्रकट कृपाला दीन दयाला,कौसल्या हितकारी।”
श्रीराम ने माता कौसल्या को पूर्वजन्म की कथा द्वारा समझाया की वे जगहितार्थ कई प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।
राम ने अपने भक्तों के कल्याण एवं आश्रितों के उद्धार के लिए ही नर तन धारण किया था।
” राम भगत हित नर तनु धारी,सहि संकट किए साधु सुखारी।
आज भी अयोध्या और मिथिला के क्षेत्रों में इस पर्व को उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। इसी अवसर पर भक्ति और प्रेम का सम्मिलित रूप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। श्रीराम के विवाह उत्सव की धूम सम्पूर्ण भारत वर्ष में देखी जा सकती है। इस अवसर पर समस्त मन्दिरों में राम-सीता का विशेष पूजन-अर्चन किया जाता है।
संदर्भ – वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस
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