बस्तर का जनजातीय समाज अपनी अलौकिक सांस्कृतिक विरासत के लिये जाना जाता है और यही संस्कृति उनकी पहचान है। इस संस्कृति को उनके पूर्वजों ने उसी रूप में सौंपा है, जिस रूप में उन्होने अपने समय में निभाया था। अपनी सांस्कृतिक विरासत का आज की पीढ़ी भी उसी तरह से निर्वहन कर रही है। सहज और सरल दिखने वाला जनजातीय समाज अपनी परम्परा और सांस्कृतिक मर्यादा से इस कदर बंधा हुआ है कि उसका पालन करना उसके लिये आवश्यक है।
किसी व्यक्ति द्वारा समाज में प्रचलित परम्परा या अनुशासन का पालन नहीं करने की दशा में उसके लिए सामाजिक दण्ड का प्रावधान है। जनजातीय समाज की एक बात, जो उसे अन्य समाज से विलग करती है वह यह है कि उसके किसी सदस्य के द्वारा यदि प्रचलित सामाजिक मर्यादा भंग हो जाती है तो वह उसे स्वीकार करता है तथा दण्ड भोगने को तत्पर होता है। सामाजिक बैठकें समय समय पर आयोजित होते रहती है, इस में किसी के द्वारा की गई गलती के लिए दण्ड पर विचार किया जाता है, इसके लिये अलग से बैठक आयोजित नहीं की जाती है और दण्ड भुगतने के लिए भी व्यक्ति को पर्याप्त समय दिया जाता है।
बस्तर का जनजातीय समाज अपनी व्यक्तिगत दिनचर्या में किसी न किसी नियम का पालन करता रहता है। उसके सारे क्रिया-कलाप अनुशासित होते हैं, वह उनसे बाहर जाकर कोई कार्य नही कर सकता। जनजातीय समाज देव संस्कृति को मानता है, उसके देवता समाज के आदिपुरूष हैं, जो अपने सद्कर्मो से देवत्व को प्राप्त हुये हैं। इन आदिपुरूषों ने प्रकृति के साथ जिस तरह से सन्तुलन बनाकर जीवन-यापन किया उसका अन्यत्र कोई उदाहरण नहीं है। आदिपुरूषों का कार्य ही एक पीढ़ी से हस्तान्तरित होकर आज की पीढ़ी तक आया है। इसे आज की पीढ़ी भी उसी रूप में निभा रही है। इसमें वनवासियों की धार्मिक आस्था और विश्वास भी जुड़ा हुआ है, यही कारण है कि इसका पालन अनिवार्यतः किया जाता है। मर्यादा या अनुशासन वनवासियों के जीवन का आवश्यक तत्व है।
सांस्कृतिक मर्यादा
बस्तर का जनजातीय समाज सामुदायिक जीवन-यापन करता है। वह अपने व्यक्तिगत कार्यो को भी सभी के साथ मिलकर करता है। समूह में किये जाने वाले कार्यो में यदि अनुशासन न हो, समाज के सदस्य मर्यादा में न रहें तो उनके प्रत्येक कार्य में व्यवधान उत्पन्न होगा और सामुदायिक जीवन पद्धति का ह्रास होगा। वनवासी समाज में बड़ों का सम्मान, सामाजिक मयार्दा और जीवन में अनुशासन ही उनकी संस्कृति की सुन्दरता है। समाज का प्रत्येक सदस्य अपनी परम्परा का पालन करके गर्व का अनुभव करता है।
घर परिवार समाज यहाँ तक कि कहीं बाहर भी उसके क्रिया-कलापों मे,उसके व्यवहार में अनुशासन की सुन्दरता झलकती है। गाँव से निकलकर जब भी वह शहर या दूसरे गाँव जाता है, तो एक कतार से चलता है, किसी से बात करना हो तो इसके लिए अधिकृत व्यक्ति ही बात करता है। किसी का इन्तजार करने के लिए भी सब एक जगह समूह मे बैठकर रास्ता देखते हैं। वनवासी समाज का यही व्यवहार उनकी सरलता और सुसंस्कृत होने का आभास देता है।
बस्तर का वनवासी समाज सामुदायिक जीवन जीता है वह किसी भी कार्य को सबके साथ मिलकर करता है। व्यक्तिगत कार्यो को समूह में किया जाता है। सभी कार्यो को करने के पहले गाँव की एक सामाजिक बैठक आयोजित की जाती है। ऐसी बैठकों में महिलाओं का आना वर्जित है। बैठक में शराब पीकर आने वाले को बात रखने की मनाही होता है। दो पक्षों के विवाद यदि झगड़ा का रूप ले लेता है, तब दोनों पक्ष दण्ड के भागी होते हैं।
आकस्मिक बैठक की सूचना ढोल पीटकर या मुनादी कराकर दी जाती है। गाँव में सबके काम बँटे हुये होते हैं, उन्हें अपना काम नियत समय पर करना होता हैं। शराब पीकर सार्वजनिक प्रदर्शन करना गलत समझा जाता है, जो ऐसा करता है, उसे दण्ड दिया जाता है चाहे वह ग्राम प्रमुख ही क्यों न हो? किसी देव काम में गाँव के लोगों के द्वारा लाये गये शराब को गांयता को सबके साथ पीना पड़ता है, जब गांयता को अधिक नशा हो जाता है, तब लोगों द्वारा उसे कँधे में उठाकर ढोल बजाते हुये उनके घर तक पहुँचाया जाता है। हँसी-मजाक करने के समय भी मर्यादा का पालन किया जाता है।
प्रकृति आधारित जीवनयापन करने वाला जनजातीय समाज जिसे पीने के लिये न शुद्ध पानी मिलता है, न ही जीने के लिये पौष्टिक आहार ही मिलता है। उसके गाँव में इलाज की कोई समुचित व्यवस्था नही है। तब उसके जीवन में अनुशासन नहीं होगा तो उसका जीवन दूभर हो जायेगा। इसलिए उसके पूर्वजों ने पूर्व से ही ऐसे नियम कायदे बनाये हैं, जिससे इनके जीवन में ज्यादा कठिनाई न हो। इन नियमों को धार्मिक आस्था से इस खूबसूरती से जोड़ दिया है कि उसका पालन सभी स्वेच्छा से करें।
मौसम परिवर्तन के संधि काल में ग्रामीण क्षेत्रों में नाना प्रकार की बीमारियों का प्रकोप होता है, जो महामारी का रूप ले लेती है। इन महामारी बीमारियों को वनवासी समाज देवी प्रकोप मानकर अपनी धार्मिक आस्था से जोड़ देता है और उसका निदान भी आस्था के अनुरूप करता है। सामूहिक रूप से किये जाने वाले इन उपायों से बीमारियों का निदान भी सरलता से होता है, और उत्सव जैसा माहौल बनता है। गाँव में हैजा (पेचीस), चेचक (छोटी माता या सेंदरी माता ) खाज-खुजली, जानवरों में खूरा-चपका जैसी बीमारी का इलाज वनवासी समाज अपने अनुभव और पूर्वजों के बताये अनुसार करता है। इन सभी बीमारियों को छूत की बीमारी माना गया है, रोगियों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है ताकि यह बीमारी दूसरों तक न फैले और बीमार व्यक्ति इलाज से ठीक हो जावे।
प्रकृति की मर्यादा
जनजातीय समाज का जीवन आधार प्रकृति है, वह अपनी सारी आवश्यकता की पूर्ति प्रकृति से प्राप्त निःशुल्क उपहार से करता है और कुछ जरूरत की चीजे अपने श्रम से भी उपजाता है। इन सभी प्राप्त चीजों को वह सबसे पहले अपने देवी-देवताओं को अर्पित करता है, उसके बाद स्वयं ग्रहण करता है। इस क्रिया को जोगाना कहते है। आदिवासी समाज का प्रत्येक त्यैहार किसी न किसी उपज या फल को जोगाने के लिए मनाया जाता है, जिसे साड़ कहा जाता है, यह चाड़ का अपभ्रंश रूप है, जिसका़ अर्थ देवोत्सव होता है।
किसी भी फल या उपज को जोगाने से पहले तोड़ना खाना तो क्या उसे छूना भी मना है। यदि किसी व्यक्ति के द्वारा जोगाने से पहले उस फल या उपज को छूआ या तोड़ा गया है तो उसे या उसके परिवार के किसी सदस्य को ऐसा कुछ जरूर होगा, जिससे यह आभास हो जायेगा कि किसी ने प्रकृति के परम्परागत नियमों का उल्लंघन किया है। इस बात की जानकारी उन्हें कुछ भी कष्ट होने पर देव बैठाकर पूछने से होता है। देवता ही उसका निदान करते है। गाँव से दूर गये परिवार के सदस्य द्वारा भी इस प्रकार की गलती करने पर परिवार में कष्ट होता है, तब उन्हें भी निदान करने के उपाय सुझाये जाते है। इसका अर्थ है कि वनवासी समाज को सामाजिक मर्यादा के साथ साथ खान पान में भी सावधनी रखनी पड़ती है।
इस जोगाने की प्रक्रिया के पीछे वनवासी समाज का मानना है कि प्रकृति के प्रकृति प्रदत्त उपहारों में सभी का समान हक है, और इन निःशुल्क प्राप्त चीजों को तोड़ने की सभी को जल्दबाजी होती है, उस उपज को कच्ची अवस्था में तोड़ने से वह नष्ट हो जायेगी या उसकी उपयोगिता खत्म हो जायेगी। ऐसी स्वेच्छाचारिता से बचने के लिये वनवासी समाज में इस तरह के नियम बनाये गये हैं। इससे उस उपज को फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर मिलता है ताकि उसकी उपयोगिता बनी रहे और बीज परिपक्व होकर फिर से अच्छी उपज दें। कच्ची अवस्था में किसी फल या उपज को खाने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इन सब नियमों के पालन कराने की जवाबदेही गाँव के माटी गांयता, देव पुजारी, सिरहा, ग्राम पटेल की होती है और इन नियमों का उल्लंघन उनके द्वारा या उनके परिवार के द्वारा किया जाता है, तो पूरे गाँव में आपदा आती है, जिसका निदान करने के पूर्व उस परिवार को सामाजिक दण्ड का भागी होना पड़ता है। इतना ही नही इस स्थिति से बचने के लिये सारे उपाय किये जाते हैं। जैसे झाड़-फूँक, टोना टोटका, पहुँचानी आदि इन उपायों को बीमारियों के प्रारम्भिक उपाय (इलाज) के रूप में देखा जा सकता है।
गाँव में महामारी या किसी अज्ञात बीमारी से कोई आपदा आई तो सबसे पहले वनवासी समाज यह मान लेता है कि यह आपदा उसके किसी पदाधिकारी की किसी गलती के कारण आई है। यह आपदा जैसे गाँव में शेर या चीता द्वारा पालतू-पशु को मारकर खाने से या किसी भयंकर बीमारी होने से, कहा जाता है कि गाँव बिगड़ गया है। गाँव बिगड़ने का अर्थ है कि गाँव के किसी व्यक्ति के द्वारा प्रकृति के नियम का उल्लंघन किया गया है। जिसका निदान केवल जनजातीय समाज के देवताओं के द्वारा ही किया जा सकता है। तब जानकार लोगों के द्वारा देवता बैठा कर देवता से पूछा जाता है। देवता किसी का नाम लिए बगैर यह बताते हैं कि यह आपदा किसी पदाधिकारी की गलती से आयी है। तब सामाजिक बैठक का आयोजन किया जाता है जिसमें सबके साथ पूछताछ होती है।
वनवासी समाज में एक बात तो अच्छी है कि उसके किसी भी सदस्य के द्वारा कोई गलती की जाती है, तो वह स्वमेव ही अपनी गलती स्वीकार कर सजा भुगतने को तैयार रहता है। जब गलती के विषय में जानकारी मिल जाती है, तब देव बैठाकर उसका निदान पूछा जाता है और उनके बताये अनुसार उपाय कर आपदा को दूर किया जाता है। यदि उपाय में कुछ मँहगी चीज की माँग देवताओं द्वारा की जाती है तब उसके लिये समय लिया जाता है। या फिर उस माँग को गाँव के सभी लोग मिलकर पूरा करते हैं। प्रकृति के साथ सामन्जस्य बिठाकर जीवन-यापन करने के लिये यह अनुशासन आवश्यक है।
वनवासी समाज मुख्य रूप से कृषि करता है, जिसे पेन्दा खेती (झूम खेती) कहा जाता है। पहाड़ के ढलान पर गर्मी के समय लकड़ी काट कर बिछा दिया जाता है, सूखने पर उसमें आग लगाई जाती है। जिससे उस स्थान की मिट्टी जलने के बाद भुरभुरी होकर उपजाऊ हो जाती है। इस जगह पर वनवासी समाज तीन वर्ष तक धान्य प्रजाति की फसल कोदो, कुटकी, मंडिया आदि उपजाता है। इस कार्य को करने के पहले वह लकड़ी काटने की जोगानी करता है।
अक्षय तृतीया के समय होने वाले कोहका साड़ में वनवासी समाज लकड़ी काटकर पहले देवता को अर्पित करता है, एक तरह से यह लकड़ी काटने की अनुमति लेने जैसा है। इसी तरह जब धान की फसल पकने की स्थिति में होती है तब वनवासी समाज अपने रक्षक देवताओं को प्रसन्न करने उनका आभार मानने के लिए चरू देता है। इसमें जलदेवी (कैना) लड़के की पवित्र आत्मा (कोडो) और राव बाबा को भेट, बलि दी जाती है। इसमें धान काटने की अनुमति के साथ जिन घासों से झाड़ू, चटाई आदि बनाई जाती है, उसे काटने की भी अनुमति ली जाती है। इस तरह प्रकृति के उपादानों का उपयोग भी वनवासी समाज अनुशासन के साथ सामन्जस्य बिठा कर करता है। इसीलिये आदिवासी क्षेत्रों में आज भी जंगल बचा हुआ है।
वनवासी समाज को प्रकृति से साल भर कुछ न कुछ उपज मिलते ही रहता है, वह इन सब उपजों की जोगानी करता है, फिर स्वयं ग्रहण करता है। वनवासी समाज का सबसे पहला त्यौहार हरियाली अमावस्या होता है, इसे अमउस तिहार कहा जाता है। श्रावण मास में होने वाले इस त्यौहार में भाजी (शाक या साग) की जोगानी की जाती है। स्वास्थ्य के जानकारों ने भी बरसात में भाजी खाने से मनाही की है। भाद्रपद् की नवाखानी में धान की जोगानी, दीपावली के समय मनाने वाले दीवाड़ में इमली, कुम्हड़ा, कोचई, एवं सब प्रकार के कन्द की जोगाई की जाती है। पौष माह में पुपुल साड़ में सेम, उड़द की और कोहका साड़ और माटी तिहार में आम, चार (चिरौंजी) महुआ, भिलावाँ आदि की जोगाई की जाती है। इसी तरह समय-समय पर अन्य उपजों की भी जोगानी करते रहते हैं।
सामाजिक मर्यादा
वनवासी समाज मर्यादा का पाठ अपनी किशोर अवस्था में जब वह घोटुल का सदस्य बनता है, तबसे सीखना प्रारंभ करता है। वनवासी परिवार का प्रत्येक सदस्य दस-बारह वर्ष की उम्र में अनिवार्यतः घोटुल का सदस्य बन जाता है। घोटुल वनवासी समाज के अविवाहित लड़के-लड़कियों का एक सामाजिक संगठन होता है। जैसे गाँव के संचालन के लिये पदाधिकारी होते हैं, उसी तरह यहाँ भी नवयुवकों एवं युवतियों का अपना संगठन होता है। इनका अपना नियम कानून होता है जिसका पालन करना सबके लिये आवश्यक होता है।
यहाँ छोटी-छोटी गलतियों के लिये सजा का प्रावधान करके वनवासी समाज अपने नवयुवकों एवं नवयुवतियों को मर्यादा की सीख देता है। वनवासी समाज सामूहिक जीवन पद्धति से अपना जीवन-यापन करता है और घोटुल सामूहिक जीवन जीने की कला सिखाने वाली पाठषाला है। यहाँ पर नवयुवक-नवयुवतियाँ संग-संग जीने मरने की कला बहुत ही अनुशासन के साथ सीखती हैं। जिसका सतत नियंत्रण घोटुल के पदाधिकारियों द्वारा किया जाता है।
घोटुल, वनवासी समाज का रात्रिकालीन सामाजिक संगठन है, जहाँ शाम ढलते ही तोड़ी की आवाज में नवयुवक-नवयुवतियाँ जमा होते हैं। सबके के कार्य विभाजित होते है, और किसी के कहे बिना ही सभी अपना-अपना काम करते हैं। लड़कियाँ झाड़ू लगाकर लिपाई-पोताई करती हैं। लड़के अँगीठी जलाते है। यहाँ के नियम इतने सरल और कठोर होते है कि पालन करना अनिवार्य होने के बाद भी किसी को कोई कठिनाई नहीं होती और सभी हँसीं-खुशी पालन करते हैं। अधिकांशतः ये सजा लकड़ी लाने, एक दिन का सब काम करने जैसे होते है, जिसे सब जानते है कि इस गलती के लिए क्या सजा होगी, जैसे कोई अंगीठी से चोंगीं (बिड़ी) जलाता है तो उसे झापड़ मारने की सजा दी जाती है।
यह संस्था गाँव के नवयुवकों की होती है, जो गाँव के प्रति उत्तरदाई होती है। घोटुल के किसी सदस्य द्वारा कोई बड़ी गलती की गई हो तो तब उसकी सजा का निर्धारण सारे गाँव के लोग मिलकर करते हैं। गाँव के प्रत्येक समाजिक कार्य घोटुल के लड़के-लड़कियों द्वारा ही सम्पादित किये जाते हैं। समान जुटाने से लेकर लकड़ी लाना, खाना पकाना, दोना पत्तल लाना, परोसना आदि, धोटुल के पदाधिकारियों के नियंत्रण में सभी सदस्य करते हैं।
घोटुल को सांस्कृतिक पाठशाला भी कहते हैं, क्योंकि गाँव की तरूणाई यहाँ परम्परागत लोक गीत, लोक नृत्य लोक वाद्य, गाना बजाना सिखती है। यहाँ रात में थका देने तक नाच गाना करते हैं। बाद में कहानी, किस्से, पहेलियाँ कही सुनी जाती है। यह स्थान गाँव के लिये तथा नवयुवकों के लिये पवित्र और धार्मिक आस्था का केन्द्र है। धोटुल निर्माण के समय ही यहाँ धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है। यहाँ पर लिंगों देवता को स्थापित किया जाता है, जिसे शकर भगवान के नटराज रूप की मान्यता दी गई है। जो वनवासी समाज को गायन, वादन और नृत्य सिखाते है।
गाँव में निवासरत अन्य जाति के कुवाँरें लड़की-लड़के भी घोटुल के सदस्य हो सकते हैं, परन्तु लड़कों को वहाँ सोने की इजाजत नहीं होती। यहाँ घोटुल के सभी सदस्यों को अपनी अपनी सीमा में रहना होता है। गाँव में विभिन्न गोत्रीय लोगों के बच्चे घोटुल जाते है, गोत्र के हिसाब से और गाँव के हिसाब से सबकी आपस में रिश्तेदारी होती है और रिश्तेदारी निभाना वनवासी समाज अच्छी तरह से जानता है। अवैध सम्बन्धों या रिश्तेदारी को कलंकित किये जाने पर कठोर दण्ड दिया जाता है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सम गोत्रीय संबन्धों के लिए मृत्यु दण्ड का प्रावधान है। जो युवाओं पर अंकुश लगाकर रखता है।
वनवासी संस्कृति बाहर से जितनी सरल दिखलाई देती है परन्तु उसको निभाना उतना ही कठिन होता है। वनवासी समाज अपनी मान्यताओं, परम्पराओं और मर्यादाओं से इस कदर जकड़ा हुआ है कि उसे कदम कदम पर अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। इनका जीवन जितना स्वच्छन्द है उतना ही अनुशासन के चलतें कष्टप्रद भी है। परन्तु जनजातीय समाज इसे पूरी तन्यमयता के साथ, इसमें डूब कर मस्ती से जीवन यापन रहा है।
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