यम द्वितीया या भाई दूज के दिन ही चित्रगुप्त पूजा होती है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को चित्रगुप्त पूजा होती है। दिवाली के बाद चित्रगुप्त पूजा का खास महत्व होता है। चित्रगुप्त की पूजा प्राचीन काल से ही होती है लेकिन गुप्तकाल में इनके पूजा को खास प्राथमिकता मिली। श्री चित्रगुप्त जी के भी चार धाम हैं जो उज्जैन, कांचीपुरम, अयोध्या और पटना में मौजद हैं। इन स्थानों पर चित्रगुप्त की खास पूजा होती है।
चित्रगुप्त महाराज को देवताओं का लेखपाल माना जाता है। चित्रगुप्त जी मनुष्यों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा करते हैं। इस दिन नई कलम को चित्रगुप्त महाराज का प्रतिरूप माना जाता है। और नई कलम की पूजा होती है। व्यापारी वर्ग इसे नववर्ष की शुरूआत मानते हैं। आमतौर पर चित्रगुप्त शब्द का अर्थ होता है वह देवता जो सभी के हृदय में मौजूद हों।
ज्ञात होता है कि फ़ाउंटेन पेन (कलम) का अविष्कार प्राचीन काल में ही हो गया था। परन्तु युरोपियन मानते हैं कि फाउंटेन पेन का आविष्कार रोमानियाई आविष्कारक पेट्राक पोएनारू (Petrache Poenaru) ने सन् 1827 में किया था। बाद में सन् 1884 में अमेरिका के लुईस वाटरमैन ने फाउंटेन पेन की डिज़ाइन में कई महत्वपूर्ण बदलाव कर एक बेहतर फाउंटेन पेन बनाया था।
जब युरोपियनों को पेन का ही नहीं पता था तब भारत में फ़ाउंटेन पेन का प्रयोग होने के प्रमाण से पांच हजार वर्ष पूर्व मिलते हैं। मान्यता है कि इसका प्रथम प्रयोग महाभारत के लेखक गणेश जी ने किया था। गणेश जी ने अपने एक दांत से महाभारत का लेखन किया था। दांत से क्यों किया और किस तरह इसका प्रयोग फ़ाउंटेन पेन की तरह किया गया इस पर हम चर्चा करते हैं पौराणिक मान्यताओं के प्रकाश में
बच्चों के जब दूध के दाँत गिरते हैं तो उनको कहीं सुरक्षित स्थान में रख दिये जाने का रिवाज आज भी है। इन्हें प्रायः चूहों के बिल में रख दिये जाता हैं। इसके साथ मान्यता है कि चूहे के बिल में दांत रखने से चूहे के दांत जैसे नुकीले और सुंदर दांत उगेंगे। लगभग सभी ने अपने दूध के दांतो के साथ बचपन में यही किया होगा।
मनुष्य के दाँत खोखले होते हैं, केनाइन दाँत के अग्रभाग पर तिलबिन्दु के समान छिद्र कर दिये जाने पर उसमें फाउण्टेन पेन के निब की भाँति प्रवाह बन जायेगा। सरकण्डा या बाँस का एक पोरुआ के एक ओर दाँत फिट कर देने से और सरकण्डे की नाल में स्याही (कुल्मल) भर देने से फाउण्टेन पेन तैयार हो जाता है।
गणेशजी ने भी अपने एक केनाइन दाँत का उपयोग महाभारत के लेखन में किया। और यह सर्वविदित है कि चूहे का सम्बन्ध गणेश जी से है। नाडीक का अर्थ मुहूर्त भी होता है, इसका अभिप्राय यह है कि पेन में प्रयुक्त सरकण्डा/वेणु में भरी गई स्याही(कुल्मल) से एक मुहूर्त=48 मिनट तक लगातार लिखा जा सकता है।
बच्चों के दूध के केनाइन टूटने का अर्थ होता था कि वह अब लेखन सीख सकता है और लिख सकता है। अथर्ववेद के इस मन्त्र और शुक्रनीति में कथित बातों पर विचार करें। लेखकवर्ग के लिये उसकी लेखनी ही शस्त्रास्त्र होती है और परम्परा है कि लेखनी का पूजन यमद्वितीया को होता है।
जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः ।
तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुर्भिर्देवजूतैः ॥५.१८.८॥
इस मन्त्र के स्वामी गंगेश्वरानन्द – कृत भाष्य में मुख रूपी धनुष में जिह्वा को धनुष की ज्या या डोरी कहा गया है, वाक् को धनुष का कुल्मल या दंड कहा गया है और तप से पूत दन्तों को नालीक नामक शर या तीर कहा गया है। शब्दकल्पद्रुम में अथर्ववेद २.३०.३ के कथन तत्र मे गच्छताद्धवं शल्य इव कुल्मलं यथा के आधार पर कुल्मल का अर्थ पाप किया गया है लेकिन अथर्ववेद ३.२५.२(आधीपर्णां कामशल्यां इषुं संकल्पकुल्मलाम्) में वाक् के स्थान पर संकल्प को इषु का कुल्मल कहा गया है। अतः कुल्मल का अर्थ दण्ड में भरी हुई स्याही ही उपयुक्त बैठता है। इषु संकल्प या वाक् के दण्ड से बनता है। नालीक के विषय में कमलनाल का भी उल्लेख आता है।
अस्त्रं तु द्विविधं ज्ञेयं नालिकं मान्त्रिकं तथा। यदा तु मान्त्रिकं नास्ति नालिकं तत्र धारयेत्।। नालिकं द्विविधं ज्ञेयं बृहत्क्षुद्र प्रभेदतः। तिर्य्यगूर्द्ध्वच्छिद्रमूलं नालं पञ्चवितस्तिकम्।। मूलाग्रयोर्लक्ष्यभेदि तिलबिन्दुयुतं सदा। यन्त्राघाताग्निकृत् ग्रावचूर्णधृक् कर्णमूलकम्।। सुकाष्ठोपाङबुध्नञ्च मध्याङ्गुलविलान्तरम्। स्वाग्रेअग्निचूर्णसन्धातृ शलाकासंयुतं दृढम्।। लघुनालिकमप्येतत् प्रधार्य्यं पत्तिसादिभिः। यथायथा तु त्वक्सारं यथा स्थूलविलान्तरम्।। यथा दीर्घं बृहत् गोलं दूरभेदि तथा तथा। मूलकीलभ्रमात् लक्ष्यसमसन्धानभाजि यत्।। बृहन्नालिकसंज्ञन्तत् काष्ठबुध्नविवर्ज्जितम्। प्रवाह्यं शकटाद्यैस्तु सुयुक्तं विजयप्रदम्।। – शुक्रनीति
इस तरह आप जान जाइए कि फ़ाऊंटेन पेन का अविष्कार किसी युरोपियन ने नहीं, महाभारत के लेखक गणेश जी ने किया है। दांत को सरकंडे में लगा कर सरलता से लेखन किया जा सकता है। देवताओं के लेखपाल एवं कलम के धनी महाराज चित्रगुप्त लेखनी एवं स्याही से जुड़े हुए हैं और लेखनी एवं स्याही का पूजन भगवान चित्रगुप्त का पूजन ही है।
आलेख
श्री कृष्ण जुगनू
उदयपुर, राजस्थान