महाशिवरात्रि पर्व पर त्रेतायुग के नायक भगवान श्रीराम के वनवास काल स्थल एवं 5वीं-6वीं शताब्दी के प्राचीन प्रसिद्ध शिवधाम गढधनौरा गोबरहीन में मेला लगता है। श्रद्धालु शिवभक्तों, प्रकृति से प्रेम करने वाले प्रकृति प्रेमियों एवं सभ्यता संस्कृति इतिहास में अभिरूचि रखने वाले जिज्ञासुओं की भारी भीड़ के चलते यंहा पर लगने वाले मेले की भव्यता एवं आकर्षंण और बढ़ जाता है।
मेले में देश एवं प्रदेश के विभिन्न-क्षेत्रों के लोग हरे भरे जंगल नदी पहाड़ के बीच विरान स्थान पर खुले आसमान तले विराजित औघढ वरदानी के प्रति अगाध आस्था संजोये दूर-दूर से दर्शन पूजन के लिए आते हैं। धार्मिक आस्था रखने वालों के अलावा बस्तर की सभ्यता संस्कृति-इतिहास एवं प्राचीन वैभव पर शोध खोज करने वाले देशी-विदेशी पर्यटक भी जिज्ञासा लिए यहाँ पंहुचते है।
जो भी यहाँ पंहुचता है वह यंहा के स्वर्णिम इतिहास के साक्ष्य को संजोकर रखने वाले प्राचीनकाल के मंदिरों एवं वंहा से मिली मूर्तियों के भग्नावशेषों-पुरावशेषों को देखकर आश्चर्यचकित रह जाता हैं और इस कल्पना में खो जाता हैं कि इन्हे कब किस राजा=महाराजा ने बनवाया रहा होगा और जब यंहा के मंदिर महल गढ सब मूल अवस्था में होंगे तब कितना सुंदर रहा होगा।
जंगल में आनंद की अनुभूति कराते अद्भूत अविस्मरणींय स्मृति में संजोने वाले इस स्थल तक पंहुचना अब बहुत सहज सरल हो गया है। राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर एवं बस्तर संभाग मुख्यालय जगदलपुर के मध्य स्थित केशकाल से महज 2 किलोमीटर की दूरी पर गढधनौरा गोबरहीन स्थित है। यहाँ तक अब पंहुचने के लिए सुविधाजनक सरपट पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है।
यहाँ पर ईंट के विशाल टीले के उपर प्रतिष्ठित भव्य शिवलिंग है जिनके स्वरूप को निहारते ही आगंतुक भावविभोर हो जाता है। अपने द्वार तक पहुंचने वाले भक्तों की मानता पूरी करने के चलते लोग इन्हे चमत्कारी शिवलिंग भी मानते हैं। शिवलिंग का दर्शन पूजन करने के बाद उस टीले के आसपास को और थोड़ी दूर पर पर दक्षिंण दिशा पर दिखने वाली पहाड़ियों की श्रृंखला को देखने के बाद यह सोचने लग जाते हैं कि ईंट का इतना विशाल किला और इतने उंचाई पर शिवलिंग की स्थापना तथा टीले के चारों तरफ और मंदिर बने रहने का भग्नावशेष का रहस्य क्या है।
विशाल टीले पर भव्य शिवलिंग का दर्शन पूजन करने के बाद जब आगंतुक पेड़ पौधों के बीच से पैदल चलते छोटी सी नदी को पार करके प्राचीन मंदिरों के खंण्डहरों की श्रृंखला को देखते हैं तो देखते और सोचते ही रह जाते हैं। तंत्र मंत्र की साधना करते विधि विधान से बड़ी संख्या में बनवाये गये मंदिरों के भग्नावशेष अपने स्वर्णिंम इतिहास की कल्पना करने को बरबस मजबूर कर देते है।
इसके आगे बढ़ने पर रास्ते में पत्थरों से बंधवाये गये प्राचीन तालाब को पार करके साल के विशाल वृक्षों के बीच परिक्रमा मुद्रा में दो शिवलिंग को देखकर श्रद्धानत् हो जाते हैं। यंहा के लोग इन्हें बाम्हन बम्हनीन, जोड़ालिंग के नाम से जानते पहचानते हैं तो वंही अधिकतर लोग शिव एवं शक्ति का स्वरूप मानकर पूजते हैं। यहाँ पर लगभग 5 किलोमीटर की परिधी में प्राचीन पुरावशेष अत्र-तत्र बिखरा पड़ा हुआ है।
अविभाजित मध्यप्रदेश के समय पुरातत्व विभाग द्वारा मलमा सफाई का काम करवाया गया तब कई स्थानों पर मलमा मिट्टी हटाकर मंदिरों का भग्नावशेषों को सामने लाया गया था। सभी मंदिर समूह तक पंहुच मार्ग न बन पाने के कारंण आगंतुक कुछ स्थानों को देखकर लौट जाते हैं। अन्य स्थानों में बंजारीन ग्रुप, हांडा खोदरा एवं दक्षिंण की पहाड़ी पर पाये गये गढ के किले तक लोग पंहुच ही नहीं पाते।
राम वन गमन मार्ग- राम वन गमन मार्ग पर खोज करने वालों का यह मानना है कि जब भगवान श्रीराम अपने 14 वर्ष के वनवासकाल के दरम्यान उस समय के दंण्डक वन में पदार्पण करते समय यहाँ पर सीता जी एवं छोटे भाई लक्ष्मंण के हांथ यंहा पधारे थे और भगवान शिव की पूजा अराधना कर कुछ दिन विश्राम करके आगे बढ़े थे। इस खोज शोध के अनुसार भगवान श्रीराम के वनवास काल प्रसंग से जुड़ जाने के चलते इस स्थान का आकर्षण और महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
भाग्य आजमाईश भी करते हैं आगंतुक – यहाँ के भव्य शिवलिंग का दर्शन पूजन करने के बाद लोग अपने दोनों हाथों को फैलाकर शिवलिंग को अपने सीने से लगाकर दोनों हाथों को जोड़कर अपने भाग्य की आजमाईश भी करते हैं। यह धारणा है कि भगवान जिनके बांह में समा जाते हैं और जिनकी दोनों हांथो की उंगलियां मिल जाती है वो बहुत भाग्यशाली होता है।
मेले का इतिहास – वर्ष 1990-91के पूर्व यहाँ पर माघ पूर्णिमा पर कुंवरपाट देव एवं अन्य देवी देवता को लेकर पून्नी स्नान कराने लाया जाता था और आसपास के लोग पून्नी स्नान कर पूजा पाठ करते थे तथा लोग पिकनिक मनाने भी आया करते थे। परन्तु महाशिवरात्रि पर मेला नहीं लगता था।
वर्ष 1990 में केशकाल के कुछ श्रद्धालु युवाओं की टीम ने महाशिवरात्रि मेला का प्रचार प्रसार कर रामायंण पाठ एवं भंण्डारा का आयोजन किया। उस समय मेला स्थल तक का पंहुचमार्ग बहुत जर्जर था और वहाँ पहुंचना जोखिम भरा था। परन्तु मेला आरंभ होने और पंहुच मार्ग बन जाने के बाद लोग जुड़ते गये और महाशिवरात्रि मेला निरंतर भव्यता अर्जित करते गया।
आज की स्थिति में महाशिवरात्रि पर्व पर बस्तर संभाग में विभिन्न स्थानों पर लगने वाले मेलों में गढधनौरा गोबरहीन में लगने वाला मेला अपना विशिष्ट स्थान रखने लगा है। मेले में पंहुचने वाले श्रद्धालु भक्तों के सेवार्थ जगह जगह पर भक्त मंडलियों द्वारा भोग भंण्डारा प्रसादी की व्यवस्था की जाती है जिसका लाभ भक्तजन लेते हैं।
शिवरात्रि पर केशकाल क्षेत्र में लगने वाला मेला- गढधनौरा गोबरहीन के अलावा नारना, गारका, बडेखौली, पलना में भी भक्तों का मेला लगता है गांव-गांव एवं नगर में स्थापित शिवमंदिरों में भी सुबह से श्रद्धालु भक्तों के दर्शन पूजन का तांता लग जाता है और पूरा अंचल शिवभक्ति में लीन हो जाता है।
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