वर्तमान छत्तीसगढ़ की भौगौलिक सीमाओं में बस्तर से लेकर सरगुजा तक महाष्मीय संस्कृति के अवशेष प्रमुखता से प्राप्त होते हैं। इस संस्कृति को इतिहासकार महापाषाणकालीन संस्कृति कहते हैं। इस संस्कृति के अवशेषों के रुप में हमें विशाल प्रस्तर स्मारकों के साथ (मेगालिथिक सर्कल) प्रस्तर वलय भी प्राप्त होते हैं। ये मृतकों की स्मृति को स्थाई रखने के लिए स्थापित किए जाते थे। यह परम्परा हमें वर्तमान में भी दिखाई देती है।
महापाषाण (मेगालिथ) लोगों को संस्कृति निर्माता कहे जाते हैं। ये लोग शव की कब्रों के चारों ओर बडे-बडे़ पत्थरों का घेरा बनाते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे मृत्यु के बाद भी किसी प्रकार के जीवन में विश्वास रखते थे क्योंकि वे अस्थि-पंजर के साथ दैनिक प्रयोग में आने वाली चीजे जैसे मृदभांड और शिकार में प्रयोग होने वाले हथियार रखते थे । ये शवाधान केन्द्र (कब्रगृह) उन लोगों के जीवन और आदतों की जानकारी देने का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है। वर्तमान में ये हमें पुरातात्विक साक्ष्य के रुप में प्राप्त होते हैं।
इतिहास को जानने के लिए प्राचीन साक्ष्यों (पुरावशेषों) की भूमिका महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा हमें प्राचीन इतिहास ज्ञात होता है। ऐसे ही पुरावशेष हमें सरगुजा में प्राप्त होते हैं जो हमें इस स्थान की प्राचीनता का बोध कराते हैं। सरगुजा अंचल का प्राचीन इतिहास रहा है। हमें यहाँ की नदियों के तटवर्ती क्षेत्र में आदिमानवों की बसाहट के साक्ष्य प्रागैतिहासिक काल के उपकरणों के रुप में प्राप्त होते हैं। जिनमें चर्ट, अर्गेट, क्वार्टज आदि प्रमुख हैं। इनकी उपलब्धता से ज्ञात होता है कि यहाँ आदिवानव संस्कृति भी पुष्पित पल्लवित हुई।
सरगुजा से हमें मध्यकाल के पुरातात्विक साक्ष्यों के रुप में महापाषाणकाल के पश्चात के मृतक स्मारकों के रुप में सती स्तंभ एवं योद्धा स्तंभ बड़ी मात्रा में प्राप्त होते हैं। जो यहाँ कि प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता को प्रदर्शित करने के साथ-साथ इतिहास को जानने के महत्वपूर्ण साधन हैं।
सरगुजा अंचल में अन्य स्थानों पर सती स्तंभ
सरगुजा अंचल के अन्य स्थानों पर भी सती स्तंभ प्राप्त होते हैं। जिसमें बरतुंगा चिरमिरी, बनास नदी के रमदहा में एवं चांदनी बिहारपुर के महुली के गढ़वतिया पहाड़ में बड़ी मात्रा में सती स्तंभ होने की जानकारी मिलती है। अन्य स्थानों पर भी सती स्तंभ होगें परन्तु वे मेरी जानकारी में नहीं हैं। इनमें हम रामगढ़ के सती स्तंभों की चर्चा करते हैं।
प्राचीनकाल में रामगढ़ को रामगिरि के नाम से जाना जाता था। यहाँ प्राचीन के काल के जो पुरावशेष हमें प्राप्त होते हैं उनमें सती स्तंभ महत्वपूर्ण हैं, जो उस काल में घटित युद्ध की विभिषिका के साक्ष्य बनकर आज भी हमारे समक्ष उपस्थित हैं। मेरा शोष पत्र रामगढ़ के सती स्तंभो एवं सती प्रथा पर लक्षित है। उस समय ऐसी कौन सी घटनाएं हुई होगीं को स्त्रियों को सती होना पड़ा होगा?
रामगढ़ के सती स्तंभ
रामगिरि के छोटे तुर्रा से पहले दांई ओर तीन सती स्तंभ दिखाई देते हैं। जिसमें से एक सती स्तंभ भग्न हो गया है और दो सती स्तंभ सलामत हैं। इनकी ऊंचाई लगभग 5 फ़ुट होगी। इनमें स्त्री के हाथ का अंकन के साथ चाँद और सूरज बने हुए हैं और मृतात्मा को उध्र्वगामी दिखाया गया है जिसके समक्ष दो मानव आकृतियाँ करबद्ध सम्मान की मुद्रा में दिखाई दे रही हैं। रामगढ़ पर इन सती स्तंभों का होना इतिहास के मील के पत्थरों के होना जैसा ही है। रामगिरि के शीर्ष पर भी सती स्तंभ दिखाई देते हैं। मंदिर की छत के निर्माण में भी सती स्तंभों का उपयोग किया गया है। इस तरफ़ रामगढ़ में लगभग सत्रह सती स्तंभों की उपस्थिति मिलती है। किसी एक स्थान पर इतनी संख्या में सती स्तंभों का उपलब्ध होना इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत देता है।
सती के साहित्यिक प्रमाण
इतिहास में हमें सती होने के प्राचीन प्रमाण शिव-सती आख्यान के रुप में प्राप्त होता है। इस प्रथा को इसका यह नाम देवी सती के नाम से मिला है जिन्हें दक्षायनी के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा अपने पति महादेव शिव के तिरस्कार से व्यथित हो यज्ञ की अग्नि में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। सती शब्द को अक्सर अकेले या फिर सावित्री शब्द के साथ जोड़कर किसी “पवित्र महिला“ की व्याख्या करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
सती होने के कारण
हिन्दू स्त्रियों द्वारा सती होने के मुख्यतः दो कारण दिखाई देते हैं,
1- आक्रमणकारियों द्वारा लज्जाहरण एवं अपमानित होने का भय
भारत में समय समय पर हमेशा विदेशियों के आक्रमण होते रहे। ईसापूर्व 327-26 में सिकंदर ने आक्रमण किया। राजा पुरु के साथ भयंकर युद्ध हुआ, लाखों सैनिक मारे गए। परन्तु हिन्दू स्त्रियों को अपमानित करने की कहीं पर भी जानकारी नहीं मिलती। पहली दूसरी शताब्दी में चीन से अफ़गानिस्तान के रास्ते कुषाणों के आक्रमण की जानकारी मिलती है। इस युद्ध में आक्रमणकारियों द्वारा स्त्रियों के अपमान की घटना दर्ज नहीं है। इसके पश्चात 520 ईस्वीं में हुणों के आक्रमण के बाद भी इस तरह की कोई घटना दर्ज नहीं है, जिसमें स्त्रियों का लज्जाहरण या उन्हें अपमानित किया गया हो।
मध्यकालीन भारतीय इतिहास में इस्लामिक आक्रमण के साथ इस तरह की घटनाएं होना प्रारंभ हो जाती हैं। भारत पर पहला आक्रमण 511 इस्वीं में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध प्रांत के राजा दाहिर पर किया। उन्हें युद्ध में हराने के बाद उनकी दो पुत्रियों का शीलहरण कर उन्हें दासियों के रुप में खलीफ़ा को सौंप दिया। 1001 ईस्वीं में गजनी ने पहला आक्रमण किया और उसके बाद सोमनाथ के मंदिर को लूटा, हजारों हिन्दू स्त्रियों को अफ़गानिस्तान ले गया और शीलहरण पश्चात दासों के बाजार में बेच दिया।
1175 ईस्वीं में मोहम्मद गोरी ने पहला आक्रमण मुल्तान पर किया, उसके बाद पृथ्वीराज चैहान को दूसरे युद्ध में हराने के बाद इस्लाम कबूलने कहा, नहीं कबूलने पर बहुत सारी यातनाएं दी और स्त्रियों का शीलहरण करवाया। हमें मध्यकाल में मुसलमानों से पराजित होनें पर स्त्रियों द्वारा सामुहिक जौहर (प्राणोत्सर्ग) के भी प्रमाण मिलते हैं।
2- सत्ता की प्राप्ति के षड़यंत्र
सत्ता की प्राप्ति के लिए सती होने के लिए प्रेरित करने का उदाहरण वैदिक संपत्ति में मिलता है। दक्षिण के शाहुराजा ने बालाजी विश्वनाथ नामक एक चितपावन ब्राह्मण को अपना सेनापति बनाया। बालाजी विश्वनाथ ने मौका पाकर शाहुराजा को उपचार प्रयोग द्वारा मरवा डाला और स्वयं राजा बनने की चेष्टा करने लगा। उधर शाहुराजा की रानी शंभरा बाई राज्य का वारिस बनाने के लिए दत्तक पुत्र लेने का विचार करने लगी। इस पर बालाजी विश्वनाथ ने षड़यंत्रपूर्वक रानी को समझाना शुरु किया और कहा कि हाय! जिस पति पर आपकी इतनी भक्ति थी, जो तुम्हे प्राणों से अधिक प्यार करता था, अभी उसे मरे हुए कुछ भी समय नहीं बीता और आप राज्य शासन का आनंद लेने लगी। धन्य थी वे पतिव्रता स्त्रियाँ जो अपने प्राणपति के साथ धधकती हुई चिता में जलकर सदैव के लिए पति के समीप चली जाती थी।“
शंभरा बाई के मन पर इन बातों ने बड़ा असर दिखाया। किंतु पति के साथ जलना भी कोई धर्म है यह बात उसने अपने जीवन में नवीन बात सुनी थी। वह जल्दी से बोल उठी कि, क्या पति के साथ जल मरने पर पतिदेव मिल सकते हैं? बालाजी ने उस समय की समस्त हस्तलिखित पुस्तकों में क्षेपक मिलवाकर कथा बांचने वाले भाटों को दिखला दिया कि दशरथ, रावण, पाण्डू, इंद्रजीत आदि बड़े बड़े पुरुषों की स्त्रियों ने अपने पतियों के साथ जलकर प्राण दिए। (1) बालाजी ने यह भी कहलवा दिया कि यदि पति जल में डूबकर मर गया हो, दूसरे ग्राम में मर गया हो, उसकी लाश का पता न हो अथवा उस समय स्त्री को गर्भ हो, तो समय आने पर सुभीते के साथ अपने पति की खड़ाऊँ या वस्त्र आदि को लेकर जल मरने से भी वह अपने पति को प्राप्त होती है और दोनो स्वर्ग जाते हैं।“
“इस उपदेश से शंभरा जलने को तैयार हुई, बालाजी ने तुरंत ही अपने कृष्णवेद के तैत्तिरीय आरण्यक 6/20 में आए हुए ॠग्वेद के – इमा नारीरविधवाः सुपत्नीरान्ज्नेन सर्पिषाः। संविशन्तु अनश्रवोैनमीवाः सुरत्ना रोहन्तु जनया योनिमग्ने। – इस मंत्र अके “अग्रे“ को “अग्ने“ करके पति के साथ अग्नि में जल मरने की वैदिक विधि और विनियोग भी दिखला दिया। वेद पर विश्वास करने वाली आर्य जाति की पतिव्रता राजमहिषी अपने पति के पास जाने को उत्तेजित हो उठी और बालाजी विश्वनाथ के षड़यंत्र से तुरंत ही चिता में धरकर फ़ूंक दी गई। रानी के जलते ही समस्त राज्य सूत्र सेनापति के हाथ में आ गया।“
सती होने का गुप्तकालीन अभिलेखीय साक्ष्य
इसी तरह सती होने का प्रमाण गुप्तकाल के एरण के 510 ईस्वीं के शिलालेख में मिलता है। यह सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है। इस अभिलेख में महाराजा भानुगुप्त का वर्णन किया गया है जिनके साथ युद्ध में गोपराज भी मौजूद थे। युद्ध के दौरान गोपराज वीर गति को प्राप्त हुए जिसके बाद उनकी पत्नी ने सती होकर अपने प्राण त्याग दिए थे। इसी लेख को भारत में पहली बार सती होने के लिए उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन पूरे भारत में सती प्रथा कैसे फैली यह भी एक प्रश्न है।
यह तब की बात है जब भारत में इस्लाम द्वारा सिंध, पंजाब और राजपूत क्षेत्रों पर आक्रमण किया जा रहा था। इन क्षेत्रों की महिलाओं को उनके पति की हत्या के बाद इस्लामी हाथों में ज़लील होने से बचाने के लिए पति के शव के साथ जल जाने की प्रथा पर जोर दिया गया। खासतौर पर राजपूत परिवारों में इस परम्परा पर ज्यादा जोर दिया गया। इन क्षेत्रों में ‘जौहर’ नाम की प्रथा चलाई गई जो सती प्रथा से काफी मिलती-जुलती थी। हां महिलाओं द्वारा खुद एक बड़ा गड्ढा खोद कर उसमें आग लगा दी जाती थी और फिर वह उसमें कूद जाती थीं। धीरे-धीरे भारत में इन प्रथाओं ने अपना दायरा फैलाना शुरू कर दिया।
सरगुजा अंचल में मुगल आक्रमण
ज्ञात होता है कि सरगुजा अंचल में दूसरी शताब्दी से रक्सेल राजवंश का शासन रहा है। राजा विष्णु प्रताप सिंह द्वारा रामगढ़ पर किला बनाकर शासन करने का उल्लेख मिलता है और सिंह द्वार एवं अन्य पुरावशेषों के रुप में दूर्ग के साक्ष्य भी उपलब्ध हैं। वर्तमान में रामगिरि पर योद्धा स्मारक भी दिखाई देता है, जो युद्ध में खेत रहते थे उनके स्मृति स्वरुप योद्धा स्तंभ भी निर्मित करने की परम्परा रही है।
यह समस्त स्मारक परवर्ती काल के दिखाई देते हैं। जिनका काल निर्धारण तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक किया जा सकता है। सरगुजा अंचल में मुगल शासकों के काल में आक्रमण की जानकारी मिलती है। यह आक्रमण अनेक बार पटना, मुंगेर, मुर्शिदाबाद और दिल्ली से हुए। एक आक्रमणकारी जो खलीफ़ा के नाम से जाना जाता था उसके द्वारा अपनी विजय के प्रतीक स्वरुप यहां के निवासियों में तांबे के सिक्के भी वितरीत करवाए। यह आक्रमण 1346 के आस पास हुआ माना जाता है।
कलचुरी शासन काल में मुगलों की उपस्थिति के साक्ष्य
जहांगीर के समय कलचुरी राजा कल्याण साय के शासन काल में मुगलों की उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। कलचुरी शासक कल्याण साय को जहांगीर के पुत्र परवेज द्वारा दरबार में हाजिर करने का वर्णन तुजके जहांगीरी में मिलता है। उस समय गोपल्ला राय की बहादुरी को देखते हुए जहाँगीर द्वारा रतनपुर का टैक्स माफ़ करने एवं गोपल्ला राय को दो गांव देने का भी जिक्र होता है। कलचुरी शासन काल के भी सती स्तंभ छत्तीसगढ़ में मिलते हैं।
अंत में
रामगिरि पर स्थिति सती स्तंभ इसकी प्राचीनता का एवं महत्व का बोध कराते हैं। मुगलों के आक्रमन के दौरान इस स्थान पर युद्द हुआ होगा और युद्ध में राजाओं के प्राणोत्सर्ग के पश्चात महिलाएं सती हुई होगीं। अब कौन राजा था और सती होने वाली स्त्रियां कौन थी इनके विषय में कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होने पर इस स्थान की महत्ता कम हो जाती है या इसे कम करके आंका जा सकता है। ये सती स्तंभ युगो युगों तक आत्मबलिदान की इस गाथा को अक्षुण्ण रखेंगे एवं गाथाएं जनमानस में प्रचलित रहेगी।
संदर्भ
सरगुजा का रामगढ़ – लेखक – ललित शर्मा
छत्तीसगढ़ का इतिहास – लेखक – डॉ रामकुमार बेहार
छत्तीसगढ़ की रियासतें – लेखक – ई ए डी ब्रेट 1909
छत्तीसगढ़ समग्र – लेखक – विभाष कुमार झा एवं डॉ सौम्या नैयर
भारतीय संस्कृति – लेखक – एस जी शेवदे
छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला – डॉ कामता प्रसाद वर्मा
वैदिक सम्पति – लेखक – पंडित रघुनंदन शर्मा
अलेक्जेंडर रोजर्स द्वारा अनुदित खंड – 2 पृ 13
दिल्ली सल्तनत 711 ई से 1526 तक – लेखक – आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव
महेशपुर की कला – डॉ कामता प्रसाद वर्मा
दैनिक नई दुनिया 24 फ़रवरी 2016
दैनिक भास्कर 17 मई 2017
फ़ेसबुक वाल अजय कुमार चतुर्वेदी
ललित शर्मा
(इण्डोलॉजिस्ट)
सारगर्भित लेख, बेहतरीन जानकारी, बहुत कुछ सीखने को मिला