देवी देवताओं के प्रति गहरी आस्था और अटल विश्वास के कारण आदिम जनजीवन में देवी देवताओं का विशिष्ट स्थान है। बस्तर में इन देवी देवताओं का एक अलौकिक साम्राज्य है और इस अलौकिक साम्राज्य की राजा हैं देवी माँ भंगाराम माई। बस्तर का प्रवेश द्वार बार मोड़ों वाली केशकाल घाटी के मध्य में एक मंदिर हैं जो माँ तेलीन सत्ती के नाम से जाना जाता है। देवी के नामकरण एवं स्थापना के संबंध में प्रचलित जनश्रुतियों एवं दंत कथाओं के अनुसार राजा भैरम देव के आमंत्रण पर एक देवी भोरंगाल देश से सुरडोंगर केशकाल आई थी।
स्व: सकतु राम गोंड़ (पुजारी एवं तत्कालीन ग्राम पटेल) ने बताया था कि देवी भोरंगाल देश से आई थी इसलिए इसे भोरंगाल माई भी कहते थे। उच्चारण प्रक्रिया से गुजरते गुजरते इनका नाम भंगाराम माई हो गया। अब भंगराम के नाम से ही विख्यात है। देवी इच्छानुसार कांकेर बस्तर मार्ग पर इस देवी की स्थापना की गई थी। तब बस्तर के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं था।
एकमात्र इसी पहाड़ी वन मार्ग में बैलगाड़ी से लोगों का आवागमन तथा व्यापार होता था चुंकि महाराजा भैरमदेव ने देवी की प्राण पतिष्ठा के समय तेल एवं हल्दी चढ़ाई थी इसलिए देवी पर आस्था रखने वाले गाड़ीवान भी बीहड़ वन पर्वत में स्थित इस खतरनाक घाटी में गाड़ी, जानवर तथा स्वयं की सुरक्षा की कामना लेकर देवी के उपर ओंगन तेल चढ़ाया करते थे। (बैलगाड़ी के चक्कों के लिए उपयोग किए जाने वाले तेल को स्थानीय जन भाषा में ओंगन तेल कहा जाता है।)
इस तरह गाड़ी वानों द्वारा प्रतिदिन चढाए जाने के कारण यह देवी तेल में लीन हो गई इसलिए इसे तेल-लीन या तेल्लीन कहा जाने लगा। देवी में सत (विश्वास) होने के कारण सती माँ आदि संबोधन भी दिया जाने लगा। तेलीन माँ सती माँ का नाम बदल कर तेलीन सती माँ रुढ हो गया। देवी माँ मार्ग में थी और मार्ग में रहना पसंद करती हैं इसलिए नये मार्ग (राष्ट्रीय राजमार्ग 30) पर देवी की स्थापना की गई तब से भंगाराम माई का नाम घाटी में तेलीन सत्ती माँ के रुप में प्रचारित हो गया।
प्रति वर्ष सावन महीने से देवी की पूजा आरंभ होती है। चार या छ: शनीवार को सेवा (सामान्य पूजा) करते हैं तथा पांचवे या सातवें शनीवार को जातरा (विशेष पूजा) करते हैं। विशेष पूजा को भादौ जातरा कहते हैं। भंगाराम माई को नौ परगनों के देवी देवता का मुखिया माना जाता है। इसलिए पूरे नौ परगन के देवी देवता और भक्त जातरा में सम्मिलित होते हैं। लोगों की भीड़ मेले का आभास कराती है। किन्तु इस उत्सव में महिलाओं की उपस्थिति वर्जित है।
जनजातीय परम्परा के अनुसार तेल हल्दी, नींबू, चावल, धूप आदि पूजा की सामग्री होती है। साथ पशु बलि की भी परम्परा है। देवी की प्राण प्रतिष्ठा के समय राजा भैरमदेव ने भैंसे की बलि चढाई थी, इसलिए प्रति वर्ष जातरा के अवसर पर भैंसे की बलि चढ़ाने की प्रथा चल पड़ी। वर्तमान कानून व्यवस्था के मद्देनजर भैंसा काटने की प्रथा बंद कर दी गई है। अब भैंसे के बदले भेड़ की बलि दी जाती है। ग्रामवासी अपने अपने देवी देवता के साथ बकरा, मुर्गा, सुअर, कबूतर, चांवल बरतन आदि लेकर जातरा में आते हैं। प्रत्येक परगना का एक मुखिया होता है, जिसे परगन मांझी कहते हैं।
जातरा में सार्वजनिक बलि एवं अन्य व्यय के लिए मांझी अपने परगन के गांवों से चंदा वसूल करवाता है तथा ग्रामवासियों एवं देवी देवताओं को निमंत्रण भी भिजवाता है। दोपहर बाजे गाजे की धुन में उपस्थित देवी देवता खूब नाचते एवं उत्सव मनाते हैं। संध्या काल में बलि दी जाती है और बलि प्रसाद (मांस) ग्रामीणों में बांट दिया जाता है। रात्रि में मंदिर के आस-पास ही भोजन प्रसाद बनाकर खाते हैं और जंगल में ही रात गुजारते हैं। दूसरे दिन सेवा पूजा के पश्चात प्रत्येक गांव से आए देवी देवताओं को भी श्री फ़ल भेंटकर विदाई दी जाती है।
जब किसी परिवार या पूरे गाँव में दैवीय प्रकोप होता है तो देव बिठाकर ज्ञात किया जाता है कि परिवार या गाँव को कौन देव परेशान कर रहा है। देवता का नाम सामने आता है उसे जनजातीय विधि विधान से भंगाराम माई को सौप दिया जाता है। माई भंगाराम उस अवांछित (अपराधी) देवी या देवता को अपने नियंत्रण में रखती है तथा ग्रामीण उनके प्रकोप से मुक्त हो जाते हैं। जनविश्वास है कि भंगाराम माई की भूमिका एक जेलर की भांति होती है।
देवी देवताओं के इस अलौकिक राज्य में नये-नये देवता भी जन्म लेते हैं। बाकायदा उनकी छठी (जन्म संस्कार) विवाह आदि सामाजिक संस्कार भी किये जाते हैं। नवजात देवता के निर्देशानुसार सिरहा और पुजारी की नियुक्ति की जाती है। देवता के विग्रह के रुप में आंगा बनाया जाता है। आंगा किस लकड़ी से बनेगा यह भी संबंधी देव ही तय करता है। (इरा, साजा, बेल, खैर आदि कुछ विशिष्ट लकड़ी से ही आंगा निर्माण किया जाता है।)
आंगा निर्माण के पश्चात उसे भंगाराम माई के दरबार में पेश किया जाता है। श्री माँ के द्वारा परीक्षा के दौरान नये देवता से प्राय: ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं – तुम किस कुल के देवता हो? तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? आंगा जबरदस्ती बनाया है तुमने प्रेरित किया? जिस लकड़ी से आँगा बनाया गया है क्या तुम उससे सहमत हो? क्या तुम्हारे साथ कोई और भी है? क्या तुमने अपना पुजारी स्वयं चुना है? क्या तुम अपने पुजारी एवं परिवार को बराबर चलाओगे? उपर्युक्त प्रश्नों के जबाब में यदि आंगा को हां कहना हो तो आगे बढ़ता है और नहीं कहना हो तो पीछे हटता है।
माँ भंगाराम देवी द्वारा जाँच परीक्षा में यदि आंगा खरा उतरता है तो उसे देवताओं के समूह में शामिल कर लिया जाता है और उसकी पूजा की जाती है। अन्यथा उसे श्री भंगाराम देवी के सुपुर्द कर दिया जाता है।
भंगाराम माई का एक परम सहयोगी देव है डॉक्टर देव। डॉक्टर देव के संबंध में एक प्रचलित जनश्रुति के अनुसार एक बार पूरे बस्तर में रहुबतास (हैजे) की बीमारी फ़ैल गई थी। इस महामारी से बस्तर में तबाही मची हुई थी। बड़ी संख्या में लोगों का प्राणांत हो रहा था। तात्कालीन अंग्रेज शासकों द्वारा महामारी की रोकथाम के लिए नागपुर से एक डॉक्टर को बस्तर को भेजा गया था।
डॉक्टर साहब ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ मरीजों का इलाज कर हैजे पर नियंत्रण पा लिया और पूरे बस्तर को महामारी से मुक्त कर दिया। वह बस्तर से विदा होकर नागपुर जा रहा था, केशकाल घाटी में दुर्घटनावश उसका प्राणांत हो गया। डॉक्टर के निस्वार्थ मानव सेवा से श्री माँ भंगाराम देवी अत्यंत प्रभावित थी इसलिए माई जी ने मृतात्मा को आमंत्रित कर देवताओं की टोली में शामिल कर लिया और नौ परगन में होने वाली बिमारियों की रोकथाम की जिम्मेदारी डॉक्टर देव को सौंप दी। जन विश्वास है कि डॉक्टर देव शारीरिक कष्ट दूर कर देते हैं।
भंगाराम माई केवल गोंड़, हल्बा आदि जनजातीय समुदाय की ही देवी नहीं है। नौ परगन में विश्वास करने वाले कलार, मरार, राउत, गांड़ा, लोहरा, धाकड़ आदि सभी जाति वर्गों के लोग श्रद्धा से जातरा में भाग लेते हैं। भंगाराम माई के प्रांगण में (जो केशकाल घाटी मे तेलीन सत्ती के नाम से जानी जाती है) प्रति वर्ष दोनो दोनों नवरात्रि में मनोकामना ज्योत जलाए जाते हैं।
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