(12 जनवरी, स्वामी विवेकानन्द जयन्ती पर विशेष)
स्वामी विवेकानन्द भारत ही नहीं अपितु विश्व के महानतम आध्यात्मिक गुरुओं में से हैं। वे आध्यात्मिक चिंतक होने के साथ ही बहु आयामी विचारक, प्रभावशाली वक्ता, संवेदनशील समाज सुधारक, समाजसेवी और उत्कट राष्ट्रभक्त थे। उन्होंने भारतीय अध्यात्म से ऊर्जित गुरु रामकृष्ण के चिंतन और आदर्शों को सफलतापूर्वक प्रचारित किया। उन्होंने ‘नर सेवा ही नारायण सेवा’ का संदेश देकर समाज को मानवसेवा के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा करने, छुआछूत मिटाने और वेदान्त के प्रचार के लिए देश और दुनिया के अन्य भागों में रामकृष्ण मिशन के केन्द्र स्थापित करने की प्रक्रिया प्रारंभ की। उन्होंने भारत, अमेरिका और यूरोप के प्रबुद्ध वर्ग के मन में यह विचार मजबूती से स्थापित करने में सफलता प्राप्त की कि मानव समुदाय के सारे कष्टों के निवारण का उपाय वेदान्त में निहित है।
“मानवीय एकता” के सन्देश को संसार हृदयंगम कर ले तो संसार की सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है। उनके उपदेशों ने भारतीय युवाओं को अनुप्राणित किया है। इसी कारण उनकी जयन्ती 12 जनवरी को “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता है। अतः आवश्यक है कि राष्ट्र के युवा स्वामी विवेकानन्द के जीवन और संदेश का अध्ययन करें और स्वामीजी के बताए मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सार्थक बनाए।
नरेन्द्र, जो उनका संन्यास लेने से पहले नाम था, बचपन से ही चंचल प्रकृति के किन्तु अत्यंत मेधावी थे। उन्होंने स्कूल और स्नातक परीक्षाएं अच्छे अंकों से पास की। उनकी गायन और वाद्य संगीत में भी रुचि थी। अपनी ज्ञान पिपासा के कारण उन्होंने महाविद्यालय की शिक्षा समाप्त होने तक अनेक विषयों का अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया।
उन्होंने एक ओर गीता, उपनिषद आदि का गहराई से अध्ययन किया तो दूसरी ओर उन्होंने पश्चिमी दार्शनिकों की रचनाओं को भी समझा। उनकी खेलों, और शरीर सौष्ठव हेतु किये जाने वाले व्यायाम में भी बहुत रुचि थी। नरेन्द्र के बारे में उनके कॉलेज के प्रोफेसर विलियम हेस्टी का कहना था, ’’मैंने अनेक देशों का भ्रमण किया है पर कहीं भी, यहां तक कि जर्मनी के विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र के छात्रों में भी, मुझे इतनी तीक्ष्ण बुद्धि और ऐसी प्रतिभा के विद्यार्थी नहीं मिला।” इससे पूर्व नरेन्द्र ईश्वर के संबंध में अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए अनेक आध्यत्मिक गुरुओं के पास गए थे। पर उनसे मिलकर उन्हें संतोष नहीं हुआ। अन्त में वह ठाकुर रामकृष्ण के पास गए।
1884 में अपने पिता के स्वर्गवास के कारण नरेन्द्र आर्थिक संकट में थे। उन पर अपनी माता और छोटे भाइयों के भरण-पोषण का भार था। उन्होंने रामकृष्ण से आर्थिक सहयोग हेतु काली माँ से प्रार्थना करने को कहा। अपने गुरु के कहने पर वे स्वयं धन की याचना करने माँ काली के मंदिर में गए। पर वहां वे धन मांगना ही भूल गए और इसकी जगह ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य प्रदान करने की प्रार्थना कर डाली। इस दिन उनके जीवन को एक नई दिशा मिली। गुरु ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस के साथ आध्यात्मिक संवाद और अनुभवों को प्राप्त कर नरेन्द्र का हृदय विशाल होता गया। काशीपुर में ठाकुर श्रीरामकृष्ण के युवा शिष्यों ने अपने गुरु की पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा की।
अपने गुरु श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के पश्चात, नरेन्द्र सहित उनके लगभग 15 शिष्य उत्तरी कलकत्ता के वराहनगर में एक जीर्ण-शीर्ण भवन को अपने साधना का स्थल बनाया। इस स्थान को उन्होंने रामकृष्ण मठ नाम दिया। यहाँ इन लोगों ने सांसारिक जीवन का त्याग कर संन्यासी जीवन का व्रत लिया। नरेन्द्र ने आगे चलकर विवेकानन्द नाम ग्रहण किया। श्रीरामकृष्ण की शिष्य मंडली भिक्षाटन (मधुकरी) से जीवनयापन करती थी। ये सभी शिष्य योग और ध्यान करते थे।
विवेकानन्द 1886 में ही समाज की अवस्था का प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए भारत-भ्रमण के लिए निकल गए। लगभग 4 वर्षों तक सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर, स्वामी विवेकानन्द ने भारत की स्थिति को जाना। उन्होंने देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अवस्था का निकटता से अध्ययन किया। वे समाज में व्याप्त अज्ञान, बीमारी, छुआछूत आदि से बहुत दुखित हुए और इसे समाप्त करने का उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया।
अंत में वे भारत के अंतिम छोर कन्याकुमारी पहुँचे। देवी कन्याकुमारी के मंदिर में माँ के चरणों से वे लिपट गए। माँ को उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया और भारत की व्यथा को दूर करने की प्रार्थना की। भारत के पुनरुत्थान के लिए व्याकुल, इस संन्यासी ने हिंद महासागर में छलांग लगाई और पहुँच गए उस श्रीपाद शिला पर जहाँ देवी कन्याकुमारी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप किया था।
25 दिसम्बर, 1892 को इसी शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ध्यानस्थ हो गए। 25, 26 और 27 दिसम्बर ऐसे तीन दिन-तीन रात बिना खाए-पिए वे अपने ध्यान में लीन रहे। यह ध्यान व्यक्तिगत मुक्ति या सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नहीं था, वरन् भारत के गौरवशाली अतीत, तत्कालीन दयनीय परिस्थिति और भारत के उज्जवल भविष्य के लिए किया गया तप था। इसी स्थान पर आज भव्य विवेकानन्द शिला स्मारक की स्थापना हुई है। स्मारक के प्रणेता माननीय एकनाथजी रानडे कहा करते थे कि स्वामीजी के जीवन में इस शिला का वही महत्व है जो गौतम बुद्ध के जीवन में गया के बोधिवृक्ष का।
अपने राष्ट्र भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानन्द को ज्ञात हुआ कि अमेरिका के शिकागो में विश्वधर्म संसद का किया आयोजन हो रहा है। स्वामी विवेकानन्द 31 मई, 1893 को अमेरिका के लिए रवाना हुए। शिकागो के मार्ग में उन्हें भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा। 11 सितंबर, 1893 को जब उन्होंने “अमेरिका वासी बहनों तथा भाइयों” कहकर अपना वक्तव्य प्रारंभ किया तो सभा में उपस्थित लगभग 7000 विद्वानों ने खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत किया। यहां भारत की उदार परंपरा का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा :
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
‘जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, इसी प्रकार हे प्रभु! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझ में ही आकर मिल जाते हैं।’
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अदभुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
जो कोई मेरी ओर आता है चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
स्वामीजी के इस छोटे से किन्तु प्रभावी वक्तृता ने वहाँ उपस्थित विद्वानों का मन जीत लिया।इसके बाद धर्म संसद में भाग लेनेवाले अनेक सदस्यों ने उनसे वार्तालाप किया। स्वामीजी को इस संसद में भाग लेनेवालों ने अपने में सबसे प्रभावशाली व्यक्ति मान लिया। तत्पश्चात उन्हें कई बार यहां बोलने का अवसर मिला। 27 सितंबर के अपने अंतिम वक्तव्य में उन्होंने कहा कि धर्म संसद ने सिद्ध कर दिया है कि धार्मिकता, पवित्रता और परोपकार की भावना किसी एक पंथ की बपौती नहीं हैं तथा प्रत्येक पंथ में उच्चतम चरित्र के महापुरुषों ने जन्म लिया है। उन्होंने आपसी सद्भाव के आह्वान के साथ अपना वक्तव्य समाप्त किया।
धर्म संसद में उनका व्यक्तित्व सर्वाधिक प्रभावशाली था। उनके महान व्यक्तित्व और विद्वता के चलते उन्हें अमेरिका में विभिन्न स्थानों से भाषण हेतु आमंत्रण मिले और वे संसद के पश्चात ढाई वर्ष तक अमेरिका में रहे। यहां उन्होंने वेदांत सोसाइटियों का गठन प्रारंभ किया। आज इसी कारण विश्व के अधिकांश देशों में हिन्दू आध्यात्म के प्रचार में रत वेदांत सोसाइटियां कार्यरत हैं स्वामीजी ने 1895 के प्रारंभ में न्यूयॉर्क में एक भवन किराये पर लिया और यहां चार योग (राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग) पर साप्ताहिक कक्षाएं तथा प्रवचन प्रारंभ किए।
इस तरह उन्होंने भविष्य में संगठित होनेवाली वेदांत सोसाइटियों के लिए रूपरेखा तैयार की। वे तीन बार इंग्लैंड भी गए- नवंबर 1865, अप्रैल 1896 और अक्टूबर 1896। तीसरी बार वे लगभग दो माह इंग्लैंड में रहे और उन्होंने वहाँ वेदान्त से संबंधित विषयों पर व्याख्यान दिए। 1896 की गर्मी का अधिकांश समय स्विट्जरलैंड में गुजारा। यहां से वे भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा रखनेवाले प्रसिद्ध दार्शनिक पॉल ड्यूसेन के आमंत्रण पर जर्मनी गए और यहां अनेक नगरों का भ्रमण किया। इसके बाद वापस इंग्लैंड आने के पश्चात दिसंबर, 1896 में वे भारत के लिए रवाना हुए।
उनके भारत लौटने पर जन सामान्य तथा भारतीय शासक वर्ग, दोनों ने ही अभूतपूर्व स्वागत किया। वे अनेक स्थानों पर व्याख्यान देते हुए कलकत्ता पहुंचे और 1 मई, 1897 को इस नगर के पास हुगली नदी के तट पर रामकृष्ण मठ, बेलुड़ की स्थापना की।
भारत आने के ढाई वर्ष बाद उनके अमेरिकी शिष्यों के आग्रह पर पुनः पश्चिम की यात्रा की योजना बनने लगी। वर्ष 1899 में सिस्टर निवेदिता के साथ पुनः अमेरिका आए। इस बार उन्होंने पश्चिमी अमेरिका में कैलिफोर्निया को केन्द्र बनाया। यहां उन्होंने इस राज्य के प्रमुख नगरों लॉस एंजेलिस तथा सैन फ्रांसिस्को में व्याख्यान दिए। इस बार वे पेरिस, वियेना, यूनान तथा मिश्र भी गए। वे दिसंबर 1900 में वापस कलकत्ता आए।
उल्लेखनीय है कि अपने अमेरिका और यूरोप के प्रवास के दोरान वे वीलियम जेम्स जैसे मनोवैज्ञानिक, निकोला तेस्ला (अमेरिका में बसे सर्बियन विद्युत यांत्रिकी इन्जिीनियर) और आविष्कारक, फ्रांसीसी गायिका मदाम काल्वे, अमेरिकी सिने कलाकार कुमारी सारा बर्नहार्ट, प्रसिद्ध कवि एल्ला विलकोक्स तथा प्रसिद्ध वक्ता रॉबर्ट इन्गरसोल के साथ उनका सम्पर्क हुआ यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिकी सरकार द्वारा प्रशासित संग्रहालयों और शोध केन्द्रों के समूह स्मिथसोनियन इन्स्टिट्यूशन ने अपने प्रकाशन “अब्रॉड इन अमेरिका” में स्वामीजी को अमेरिका को सर्वाधित प्रभावित करने वाले 27 आगंतुकों की सूची में सम्मिलित किया है।
स्वामीजी ने राष्ट्रभक्ति को ही धर्म के रूप में स्थापित करने का अथक प्रयास किया। उनका कहना था, “आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए।…अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं।…जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे, तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।” स्वामीजी ने अपने देश के युवाओं का आह्वान किया कि, “उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त नहीं होने तक मत रूको।” स्वामीजी के इस संदेश से भारत में नई चेतना का संचार हुआ। निद्रा और आलस को त्याग कर समूचा भारत अंगड़ाई लेने लगा। राष्ट्र में आध्यात्मिक पुनर्जागरण की शुरूआत हुई।
स्वामीजी ने संसार को भारत की मूलभूत एकता का भान कराया। उन्होंने बताया कि अपने विविधता वाले राष्ट्र को किस तरह संगठित किया जा सकता है। सुभाष चन्द्र बोस कहते हैं कि, “स्वामीजी ने पूर्व और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान के बीच सामंजस्य स्थापित किया।”
स्वामीजी ने हिन्दू धर्म, दर्शन और जीवन पद्धति से पश्चिम को परिचित कराया। उन्होंने बताया कि अपनी गरीबी और पिछड़ेपन के बावजूद भारत, दुनिया को बहुत कुछ दे सकता है। स्वामीजी ने ’’आत्मनोमोक्षाय जगद्हितायच’’ का आदर्श समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। 4 जुलाई, 1902 को स्वामीजी ने महासमाधि ली। भारत के जन-मन में अध्यात्म, मानवता और सेवकार्यों की प्रेरणा जगानेवाले ऐसे महानायक को शत-शत प्रणाम।
- महावीर प्रसाद जैन
- 126, अशोकनगर, उदयपुर (राजस्थान)
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