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गौधन के प्रति कृतज्ञता अर्पण : सोहाई बंधन

प्रकाश का पर्व दीपावली लोगों के मन में उल्लास भर देता है। यह पर्व संपूर्ण भारत में मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के पीछे अनेकानेक कारण और कहानियां जुड़ी हुई है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार दीपावली के दिन ही भगवान राम का लंका विजय पश्चात अयोध्या आगमन हुआ था। दीपावली के एक दिन पूर्व मतलब चतुर्दशी को भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था और दीपावली के अगले दिन गोवर्धन धारण कर गोकुल वासियों को इंद्र के कोप से बचाया था।

जैन धर्मावलंबियो द्वारा भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस और आर्य समाज द्वारा संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का निर्वाण दिवस भी दीपावली को मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो यहां के गोंड जनजाति द्वारा दीपावली के दिन गौरी गौरा (शंकर-पार्वती) के विवाहोत्सव का आयोजन किया जाता है।

दीपावली के दिन को ग्रामीण क्षेत्रों में सुरहुती कहा जाता है। जिस प्रकार सभी लोगों को दीपावली का बेसब्री से इंतजार होता है। उसी प्रकार गौ चारण और गौ-पालन करने वाले अहीर समुदाय के लोगों को इस पर्व की विशेष प्रतीक्षा होती है। दीपावली के दूसरे दिन अर्थात गोवर्धन पूजा के दिन किसानों के द्वारा पशुधन को नये चावल की खिचड़ी खिलाई जाती है।

दीपावली के दूसरे दिन यानि गोवर्धन पूजा को हमारे अंचल में देवारी कहा जाता है। सोहाई बांधने की परंपरा छत्तीसगढ़ में पुरातन काल से चली आ रही है। साल भर पंचगव्य प्रदान करने वाली गौमाता को सम्मान स्वरूप सोहाई बांधा जाता है। जिस प्रकार किसी का सम्मान हार पहनाकर किया जाता है वही भावना सोहाई बांधने की परंपरा में भी निहित है।

इसी दिन से गौ माता को सोहाई बांधने की शुरुआत होती है जो कार्तिक पूर्णिमा तक चलते रहती है। किसी परिवार विशेष में चली आ रही परिपाटी के आधार पर गोवर्धन पूजा,अन्नकूट (मातर), देवउठनी एकादशी और सबसे आखिर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन तक सोहाई बांधने का क्रम चलते रहता है।

सोहाई का शाब्दिक अर्थ है ‘शोभा बढ़ाने वाला, शोभा देने वाला, सुंदरता प्रदान करने वाला’ जिस तरह देवगण पुष्पाहार धारण करते हैं, जिससे शोभा बढ़ती है। उसी तरह सोहाई एक प्रकार का कंठहार होता है जो अहीर समाज के व्यक्तियों के द्वारा पशुओं के गले में पहनाया जाता है। इसका निर्माण और सजावट की प्रक्रिया बहुत ही श्रमसाध्य है।

सोहाई निर्माण के लिए सर्वप्रथम पलाश वृक्ष के जड़ों को खोदकर निकाला जाता है। फिर उसको आग में भूना जाता है। तत्पश्चात उसके रेशे निकाले जाते हैं। रेशे निकालने के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है कि रेशा में लालीपन या कालापन ना हो। लाल या काल होने पर रेशा अनुपयोगी होता है। सिर्फ सफेद रेशा ही सोहाई बनाने के काम में आता है। पलाश के जड़ के सफेद रेशा को बांख कहा जाता है।

रेशा निकालने के बाद हाथों से रस्सी तैयार की जाती है। इस प्रक्रिया को गुन मारना कहा जाता है। सामान्यत: सोहाई के लिए बांख निकालने और तैयार करने की प्रक्रिया नवरात्र से शुरू हो जाती है। सोहाई को सुंदर बनाने के लिए कुम्ही के टहनी के रेशे से बनी काले रंग की रस्सी का भी प्रयोग किया जाता है। कुम्ही से प्राप्त रेशे को काला रंग देने के लिए उसे हर्रा मिले कीचड़ में डूबोकर रखना पड़ता है। कुल मिलाकर देखें तो पूरी तरह से प्राकृतिक ढंग से सोहाई बनाया जाता है। दीपावली के पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में बरदी चराने वाले चरवाहों को बांख की रस्सी तैयार करते यदा कदा देखा जा सकता है।

बांख की रस्सी तैयार होने के बाद सोहाई बनाने का काम शुरू होता है। सोहाई देखने में जितना सुंदर और सरल दिखाई देता है उसको बनाना उतना ही मुश्किल होता है। सोहाई बनाने का काम हर कोई नहीं जानता। इसके लिए धैर्य और रचनात्मकता का होना जरूरी है।

बनावट और सजावट के आधार पर सोहाई के भी कई प्रकार होते हैं। जैसे बांख के सिर्फ सफेद रेशे से बनाई गई सादा सोहाई को दूहर कहा जाता है। ये सिर्फ देवताओं में चढ़ाने, दुहानू गाय और किसी के घर में रहने वाली एकल गाय को पहनाई जाती है। जब सोहाई में रंग बिरंगे रंग और कपड़े या अन्य सजावटी सामग्री का उपयोग किया जाता है तो ऐसे सोहाई को पचेड़ी कहा जाता है। पांच लर(पंक्ति)की बनी सोहाई को करेलिया कहा जाता है।

जब बांख में मोरपंख का प्रयोग होता है तो सोहाई की सुंदरता और बढ़ जाती है। मंजूर पंख के साथ जब चपटे आकार में सोहाई बनाया जाता है तो उसे मजूराही और गोलाकार बनाया जाता है तब उसे गंइठा कहा जाता है। गंइठा बैलों को पहनाया जाता है।

वर्तमान में समय बचाने के लिए बाजार में उपलब्ध रेडीमेड प्लास्टिक के मोती लगे माला को पशुओं को पहनाने का चलन चल पड़ा है। अत्यधिक श्रम और समय लेने के कारण संभवतः आने वाले वर्षों में सोहाई का प्रयोग बंद हो जाये तो अचरज की बात नहीं होगी।

समय के अनुसार बदलाव भी जरूरी है। पहले पलाश के बूटा (झाड़ी) बहुत होते थे तो सोहाई बनाने के लिए पेड़ों के जड़ को निकालने से कोई विशेष परेशानी नहीं थी लेकिन अब जब निरंतर पेड़ कटते जा रहे हैं तो सोहाई के लिए बांख का विकल्प खोजना जरूरी प्रतीत होता है। हालांकि प्लास्टिक निर्मित वस्तुओं के प्रयोग को उचित नहीं ठहराया जा सकता।

गांवों में अहीर समुदाय बाजे गाजे के संग सोहाई बांधने पशु मालिकों के घर जाते हैं और पशु मालिक उनको भेंट स्वरुप राशि, कपड़े या धान देते हैं। सोहाई बांधते समय अहीर समुदाय दफड़ा, निसान और मोहरी के संग दोहा वाचन करते हैं। जो सामान्यतः किसी संत कवि द्वारा रचित दोहे, पारंपरिक दोहे या स्वरचित दोहे भी होते हैं। जैसे-
गाय चराये गहिरा भइया,भंइस चराये ठेठवार हो।
चारों कोती अबड़ बोहाथे,दही दूध के धार हो।।

गऊ माता के महिमा,नइ कर सकन बखान।
नाच कूद के जेला,चराय कृष्ण भगवान।।

सनातन परम्परा में प्रकृति के प्रति सम्मान देने एवं कृतज्ञता प्रकट करने के विधान हमारे मनीषियों ने किया है। चराचर जगत के समस्त प्राणियों, जड़ चेतन के प्रति हमारी संस्कृति में सम्मान का भाव है। यह पर्व एवं अवसर गौधन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन होता है। अमृततुल्य दूध देने वाली गौ माता एवं गौधन की रक्षा का संदेश भी यह पर्व देता है।

आलेख एवं फ़ोटो

श्री रीझे यादव
टेंगनाबासा (छुरा)
जिला, गरियाबंद

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