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विराट नगर का शिवालय एवं मूर्ति शिल्प

प्राचीन विराट नगर आज का सोहागपुर है, यह वही सोहागपुर है, जहाँ नानक टेकरी भी है, कहते हैं कि गुरु नानक देव के चरण यहाँ पर पड़े थे फ़िर यहाँ से कबीर चौरा अमरकंटक पहुंचे, जहाँ कबीर दास एवं गुरु नानक की भेंट की जनश्रुति सुनाई देती है। यहाँ अन्य प्राचीन स्मारक भी हैं।

अन्य प्राचीन स्मारकों में प्राचीन शिवालय भी विद्यमान है। यह शिवालय मुख्य मार्ग के समीप ही स्थित है। इस शिवालय का गर्भगृह पीछे की तरफ़ झुका हुआ है तथा मंडप पुन:निर्मित दिखाई देता है। 70 साल पहले मंदिर के सामने का हिस्सा धराशायी हो गया था, जिसे तत्कालीन रीवा नरेश गुलाबसिंह ने ठीक कराया था (कुंवर रविन्द्र सिंह के अनुसार मरम्मत कार्य राजेन्द्र सिंह ने कराया था)।

उमा महेश्वर

उसके बाद ठाकुर साधूसिंह और इलाकेदार लाल राजेन्द्रसिंह ने भी मंदिर की देखरेख पर ध्यान दिया। अब यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है। मंदिर का मुख्य द्वार शिल्प की दृष्टि से उत्तम है। मुख्यद्वार के सिरदल पर मध्य में चतुर्भुजी विष्णु विराजित हैं। बांई ओर वीणावादिनी एवं दांई ओर बांया घुटना मोड़ कर बैठे हुए गणेश जी स्थापित हैं। मंदिर का वितान भग्न होने के कारण उसमें बनाई गई शिल्पकारी गायब है।

मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। जिसकी ऊंचाई लगभग 8 इंच होगी तथा जलहरी निर्मित है एवं तांबे के एक फ़णीनाग भी शिवलिंग पर विराजित हैं। यह मंदिर सतत पूजित है। जब मैने गर्भ गृह में प्रवेश किया तो कुछ महिलाएं पूजा कर रही थी। मंदिर के शिखर पर आमलक एवं कलश मौजूद है।

नृत्य गणपति

बाहरी भित्तियों पर सुंदर प्रतिमाएं स्थापित हैं। दांई ओर की दीवाल पर वीणावादनी, पीछे की भित्ती पर शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी विष्णु तथा बांई ओर स्थानक मुद्रा में ब्रम्हा दिखाई देते हैं। साथ ही स्थानक मुद्रा में नंदीराज, गांडीवधारी प्रत्यंचा चढाए अर्जुन, उमामहेश्वर, वरद मुद्रा में गणपति तथा विभिन्न तरह का व्यालांकन भी दिखाई देता है।

मैथुन मूर्तियों के अंकन की दृष्टि से भी यह मंदिर समृद्ध है। उन्मत्त नायक नायिका कामकला के विभिन्न आसनों को प्रदर्शित करते हैं। इन कामकेलि आसनों को देख कर मुझे आश्चर्य होता है कि काम को क्रीड़ा के रुप में लेकर उन्मुक्त केलि की जाती थी। यहाँ श्मश्रुयुक्त पुरुष रमणी संग रमण करता दिखाई देता है। इससे जाहिर होता है कि यह स्थान शैव तंत्र के लिए भी प्रसिद्ध रहा होगा।

मिथुन शिल्प

प्रतिमाओं में प्रदर्शित मैथुनरत पुरुष कापालिक है। कापालिक वाममार्गी तांत्रिक होते हैं। वे पंच मकारों को धारण करते हैं – मद्यं, मांसं, मीनं, मुद्रां, मैथुनं एव च। ऐते पंचमकार: स्योर्मोक्षदे युगे युगे। कापालिक मान्यता है कि जिस तरह ब्रह्मा के मुख से चार वेद निकले, उसी तरह तंत्र की उत्पत्ति भोले भंडारी के श्रीमुख से हुई। इसलिए कापालिक शैवोपासना करते हैं।

ज्ञात इतिहास कहता है कि उन्तिवाटिका ताम्रलेख के अनुसार जिला का पूर्वी भाग, विशेषकर सोहागपुर के आसपास का भाग लगभग सातवी शताब्दी में मानपुर नामक स्थान के राष्ट्रकूट वंशीय राजा अभिमन्यु के अधिकार में था। उदय वर्मा के भोपाल शिलालेख में ई. सन् 1199 में विन्ध्य मंडल में नर्मदापुर प्रतिजागरणक के ग्राम गुनौरा के दान में दिये जाने का उल्लेख है। इससे तथा देवपाल देव (ई. सन् 1208) के हरसूद शिलालेख से यह पता उल्लेख है कि जिले के मध्य तथा पश्चिमी भागों पर धार के राजाओं का अधिकार था।

चतुर्भुजी विष्णु

गंजाल के पूर्व में स्थित सिवनी-मालवा होशंगाबाद तथा सोहागपुर तहसीलों में आने वाली शेष रियासतों पर धीरे-धीरे ई.सन् 1740 तथा 1755 के मध्य नागपुर के भोंसला राजा का अधिकार होता गया। भंवरगढ़ के उसके सूबेदार बेनीसिंह ने 1796 में होशंगाबाद के किले पर भी अधिकार कर लिया। 1802 से 1808 तक होशंगाबाद तथा सिवनी पर भोपाल के नबाव का अधिकार हो गया, किंतु 1808 में नागपुर के भोंसला राजा ने अंतत: उस पर पुन: अधिकार कर लिया।

वर्ष 1817 के अंतिम अंग्रेज-मराठा युध्द में होशंगाबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया तथा उसे सन् 1818 में अप्पा साहेब भोंसला द्वारा किए गए अस्थायी करार के अधीन रखा गया। सन् 1820 में भोंसला तथा पेशवा द्वारा अर्पित जिले सागर, तथा नर्मदा भू-भाग के नाम से समेकित कर दिए गए तथा उन्हें गवर्नर जनरल के एजेंट के अधीन रखा गया, जो जबलपुर में रहता था।

महावीर स्वामी

उस समय होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से लेकर गंजाल नदी तक का क्षेत्र सम्मिलित था तथा हरदा और हंडिया सिंधिया के पास थे। सन् 1835 से 1842 तक होशंगाबाद, बैतूल तथा नरसिंहपुर जिले एक साथ सम्मिलित थे, और उनका मुख्यालय होशंगाबाद था। 1842 के बुंदेला विद्रोह के परिणाम स्वरूप उन्हें पहले की तरह पुन: तीन जिलों में विभक्त कर दिया गया।

इस मंदिर के आस-पास कई छतरियाँ (मृतक स्मारक) बनी दिखाई देती हैं। मंदिर के मंडप में अन्य स्थानों से प्राप्त कई प्रतिमाएं पृथक रखी हुई हैं। जिनमें पद्मासनस्थ बुद्ध की मूर्ति भी सम्मिलित है। मंदिर का अधिष्ठान भी क्षरित हो चुका है। इसका सरंक्षण जारी दिखाई दिया। विराट मंदिर के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया। कलचुरीकालीन गौरव का प्रतीक विराट मंदिर सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर भी गर्व से सीना तानकर आसमान से टक्कर ले रहा है।

आलेख

ललित शर्मा (इण्डोलॉजिस्ट) रायपुर, छत्तीसगढ़

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