किसी भी देश को महान बनाने के लिए माता-पिता और शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।माता को प्रथम गुरु एवं परिवार को प्रथम पाठशाला कहा जाता है। माँ हमें दया, करुणा, आदर, क्षमा, परोपकार सहयोग, समानता आदि सभी मानवीय गुणों का भाव देती है। जिस प्रकार माता पिता शरीर का सृजन करते है उसी तरह गुरु अपने शिष्य का सृजन करते है। जीवन के लिए मनुष्य माता-पिता का ऋणी होता है तो चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण के लिए गुरु या शिक्षक का। क्योंकि नींव जितनी मजबूत होगी इमारत भी उतनी मजबूत होती है।
गुरु, शिक्षक, आचार्य, अध्यापक, टीचर सभी शब्द पर्यायवाची हैं अर्थात जो ज्ञान देता है, सिखाता है। संस्कृत भाषा के इस शब्द का अर्थ शिक्षक से है। शिक्षक शब्द में ‘शि’ से शिष्ट,’क्ष’ से क्षमाशील, ‘क’ से कर्तव्यनिष्ठ का अर्थ समाहित होता है। शास्त्रों में “गु” का अर्थ बताया गया है अंधकार और “रु” का का अर्थ उसका निरोधक अर्थात जो जीवन से अंधकार को दूर करे उसे गुरु कहा गया है।
नागरिक निर्माण में शिक्षकों की अकल्पनीय भूमिका
भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही है। भारतीय संस्कृति में गुरू को उच्च स्थान है। इसीलिए आचार्य देवो भवः कहा गया है। कबीर दास जी ने कहा है –
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पांय।
बलिहारी गुरु आपनी गोविंद दियो बताय।।
क्योंकि गुरु ही हमारा मार्गदर्शन कर हमें प्रेरित करते हैं और जीवन जीने की सच्ची कला सिखाकर समाज में रहने योग्य बनाते हैं ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो। गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी ने लिखा है-
‘गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई, जौं बिरंचि संकर सम होई।’
कबीर जी ने सूक्ष्मवेद में कबीर सागर के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ में पृष्ठ 1960 पर दिया है” :-
गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेदशास्त्र को ज्ञाना।
दुजे हरि भक्ति मन कर्म बानि, तीजे समदृष्टि करि जानी।
चौथे वेद विधि सब कर्मा, ये चार गुरू गुण जानों मर्मा।।
अर्थात् कबीर जी ने कहा है कि जो सच्चा गुरू होगा, उसके चार मुख्य लक्षण होते हैं :- सब वेद तथा शास्त्रों को वह ठीक से जानता है। दूसरे वह स्वयं भी भक्ति मन-कर्म-वचन से करता है अर्थात् उसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता। तीसरा लक्षण यह है कि वह सर्व अनुयाईयों से समान व्यवहार करता है, भेदभाव नहीं रखता। चौथा लक्षण यह है कि वह सर्व भक्ति कर्म वेदों के अनुसार करवाता है तथा अपने द्वारा करवाए भक्ति कर्मों को वेदों से प्रमाणित भी करता है।
अपने गुरु की महत्ता बताने एवं मान-सम्मान एवं धन्यवाद देने के उद्देश्य से गुरु पर्व मनाया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार गुरु-पूर्णिमा को ‘गुरु दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, परन्तु वर्तमान समय में शिक्षक दिवस के रुप में गुरु को याद किया जाता है। विश्व के विभिन्न देशों में अलग -अलग तारीख में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। भारत में शिक्षक दिवस भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर मनाया जाता है।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का जन्म 5 सितंबर सन्1888 को मद्रास प्रेसिडेंसी के चितूर जिले के तिरुतनी ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सर्वपल्ली वीरामास्वामी एवं माता का नाम सीताम्मा था।
पिता राजस्व विभाग में वैकल्पिक कार्यालय में कार्य करते थे। इन पर बड़े परिवार के भरण- पोषण का दायित्व था। अतः राधाकृष्णन को बचपन में विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ। इन्होंने शिक्षा क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल तिरुपति में हुई इसके बाद वेल्लूर में और मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने दर्शन शास्त्र में एम. ए. किया और मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए।
इन्होंने वेदों-उपनिषदों का गहन अध्ययन किया। साथ ही हिंदी एवं संस्कृत का भी अध्ययन किया। सन् 1962 में डॉ. राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तब कुछ शिष्यों एवं प्रशंसको ने उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने कहा-” मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने को गौरवान्वित अनुभव करूंगा।”
डॉ. राधाकृष्णन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे प्रतिष्ठित शिक्षाविद, दार्शनिक, प्रशासक, वक्ता, राजनयिक, देशभक्त, आस्थावान हिन्दू विचारक और भारतीय संस्कृति के संवाहक थे। इन्होंने अपनी अप्रतिम विद्वता, चिंतन की ऊंचाइयों और उच्च मानवीय गुणों से भारत को गौरवान्वित किया।
उच्च पदों पर कार्य करते हुए भी इन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान दिया। इनका मानना था कि “यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।“
व्यक्ति को श्रेष्ठ उत्तरदायी नागरिक बनाने के लिए शिक्षा में मात्र जानकारियां देना ही महत्वपूर्ण नहीं है। साथ में आधुनिक तकनीकी शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना। शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान प्राप्ति के लिए समर्पण एवं निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति होती है। इनसे व्यक्ति ज्ञान व कौशल प्राप्त कर अपने जीवन का मार्गप्रशस्त करता है।
डॉ राधाकृष्णन का कथन था “जब तक शिक्षक, शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता, तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। शिक्षक को अच्छी तरह से अध्यापन करके संतुष्ट नहीं होना चाहिए। उन्हें अपने छात्रों का स्नेह और आदर भी अर्जित करना चाहिए। सम्मान शिक्षक होकर नहीं मिलता ,उसे अर्जित करना पड़ता है।सादा जीवन उच्च विचार की उक्ति को जीवन में चरितार्थ करना चाहिए।”
डॉ राधाकृष्णन के अनुसार धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्होंने कहा कि ‘बिना विज्ञान का धर्म अंधविश्वास के सिवा कुछ नहीं। इससे केवल भ्रम और असमंजस प्राप्त होता है। इसी तरह धर्म के बिना विज्ञान से मानव जाति के अस्तित्व के विनाश का खतरा सुनिश्चित है। विज्ञान हमारे सामने प्रकृति की संपदाओं और शक्तियों को उजागर करता है, जबकि धर्म हमें मानव जाति और प्राणी मात्र के हित में इन संपदाओं और शक्तियों का सदुपयोग करने का रास्ता बताता है।’
वे चाहते थे कि विज्ञान हमारे पांव हो और धर्म हमारी आंख। भौतिक समृद्धि के साथ-साथ गहरे नैतिक बोध का पूर्ण समन्वय ही जीवन को अधिक दिव्य और आनंदपूर्ण बना सकता है। वह चाहते थे कि मानव विज्ञान का दास न बनकर अपनी आत्मा की दिव्यता और श्रेष्ठता को पहचान कर विज्ञान का उपयोग सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय करे।
डॉ0 राधाकृष्णन् ने शिक्षा के महत्व को विभिन्न दृष्टिकोण से स्पष्ट किया है। उन्होंने शिक्षा को मनुष्य तथा समाज का निर्माण करने वाला प्रमुख साधन माना है उनके अनुसार शिक्षा द्वारा मानव के मानसिक प्रशिक्षण के साथ-साथ, कल्पनाशक्ति तथा मनोभावों को निर्मल बनाया जाना चाहिये। शिक्षा का महत्व केवल ज्ञान तथा कौशल के विकास में नहीं है। इसे तो हमें सहयोगी जीवन के लिये तैयार करना चाहिये। शिक्षा हमें नैतिक गुणों के विकास के लिये प्रशिक्षित करे।
“If education is to help us to meet the moral challenge of the age and play its part in the life of the community, it should be liberating and life giving.” “अगर शिक्षा हमें युग की नैतिक चुनौती का सामना करने और समुदाय के जीवन में अपनी भूमिका निभाने में मदद करती है, तो यह मुक्तिदायक और जीवनदायी होना चाहिए।”
डॉ0 राधाकृष्णन के उक्त विचार को शिक्षा-आयोग (1964-66) ने इन शब्दों में पुष्ट किया है – ’स्कूल की पढ़ाई के साथ ही शिक्षा समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि वह एक जीवन व्यापी प्रक्रिया है। आज के व्यस्क को तेजी से बदलते हुए संसार और समाज की बढ़ती हुई जटिलताओं को समझने की आवश्यकता है। जो लोग परिष्कृतम शिक्षा पा चुके हैं, उन्हें भी लगातार सीखने की आवश्यकता है।’’
डॉ0 राधाकृष्णन शिक्षा को रूपान्तरण की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने जन्मजात स्वरूप को मानव स्वरूप में बदल सकता है। साथ ही वह अपने आन्तरिक स्वरूप को जानने में समर्थ होता है और स्वयं अपने अनुभवों से सीखकर प्राप्त की गई समझदारी को पारस्परिक क्रियाओं के माध्यम से ’’ज्ञान’’ की प्राप्ति कर सकता है। उनके अनुसार ज्ञान, विवेक के अभाव में कुछ भी नहीं है। इस प्रकार शिक्षा मानव के पूर्ण विकास की प्रक्रिया के रूप में कार्य करती है।
डॉ0 राधाकृष्णन ने शिक्षण-विधियों के निर्धारण में शिक्षक की भूमिका को महत्वपूर्ण माना है। शिक्षक विषय-वस्तु तथा छात्रों की आवश्यकता के अनुसार इसका निर्धारण करे। शिक्षक विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर छात्रों के मन-मस्तिष्क को ढालने के लिये विधियों का निर्धारण करे जिससे वह उनको भविष्य की चुनौतियों को झेलने में समर्थ बना सके। उन्होंने वाचन, चिन्तन-मनन, व्याख्यान, लिखित कार्य, ट्यूटोरियल आदि पर बल दिया। डॉ0 राधाकृष्णन् छात्र को मशीनी आदमी बनाने की अपेक्षा चिन्तनशील, निर्णयशील तथा क्रियाशील बनाना चाहते हैं।
शिक्षा और राजनीति में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने महान शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण “भारत रत्न” प्रदान किया। राधाकृष्णन के मरणोपरांत उन्हें मार्च 1975 में अमेरिकी सरकार द्वारा टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो कि धर्म के क्षेत्र में उत्थान के लिए प्रदान किया जाता है।
इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले यह प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे। उन्हें आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श शिक्षक के रूप में याद किया जाता हैं। आज भी उनके जन्मदिवस के उपलक्ष्य में संपूर्ण भारत में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाकर डॉ.राधाकृष्णन के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। इस दिन देश के विख्यात और उत्कृष्ट शिक्षकों को उनके योगदान के लिए पुरुस्कार प्रदान किए जाते हैं।
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