सनातन परम्परा प्रकृति को पूजती है, उसकी आराधना करती है। प्रकृति में सर्वप्रथम सूर्य और चंद्रमा के साथ पृथ्वी दृष्टिगोचर होती है। इसलिए प्रात: काल शैय्या से उठने एवं पृथ्वी पर पग धरने से पहले उसे नमन करने की परम्परा है। उसके बाद स्नानादिपरांत सूर्य को अर्घ देकर दिवस के कार्यों का प्रारंभ होता है। इसी तरह चंद्रमा की कलाओं के साथ उसे भी पूजने की परम्परा है। प्रत्येक मास को आने वाली पूर्णिमा का विशेष महत्व है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण शरद पूर्णिमा मानी जाती है। जब किसी प्रिय को दीर्घायु होने का आशीष देते हैं तब “जीवेत शरद: शतम्” कहा जाता है।
भारतीय मौसम के अनुसार ॠतुओं को छ: भागों में बांटा गया है, जिसमें शरद ॠतु को महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि शरद ऋतु का समय विक्रम संवत पंचांग के अनुसार अश्विन (कुंवार) और कार्तिक मास होता है जब वर्षा ऋतु समाप्त होती है तथा शिशिर ऋतु से पूर्व होता है । शरद ऋतु में मौसम अत्यंत सुहाना होता है दिन में तापमान सामान्य तथा रात्रि में हल्की ठण्ड और यदा कदा कुछ बरखा की छीटें अर्थात तीनों मुख्य ऋतुओं का सम्मिलन।
बाबा तुलसीदास श्रीरामचरितमानस में उल्लेखित है कि भगवान रामचंद्र जी लक्ष्मण जी से शरद ऋतु के बारे में कहते है –
वरषा विगत सरद ऋतु आई ।
लछिमन देखहु परम सुहाई ।।
फूले कास सकल महि छाई ।
जनु बरषाँ कृत प्रकट बुढाई ।।
राम जी कहते हैं – हे लक्ष्मण! देखो वर्षा ऋतु बीत गयी और परमसुन्दर शरद ऋतु आ गयी, पुष्पित हुई कास की झाड़ियाँ धरती ऐसे छा गई है जैसे वर्षा सुंदरी की वृद्धावस्था प्रकट हो गई है ।
महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए लिखा है – लो आ गई यह नववधू सी शोभायमान शरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों ढकी श्वेतवस्त्र धारण किये हुए, जिसका मुख सफेद कमल के पुष्पों से ही बना हुआ है उसकी सुंदर राजहँसी मधुर ध्वनि ही इसके नूपुर की ध्वनि है। पकी बालियों से झुके हुए धान के पौधों की तरह इसकी त्रिभंगी यष्टि किसका मन नहीं मोहती ।
मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है और अपनी किरणों से अमृत की बूंदे पृथ्वी पर गिराते हैं। शरद पूर्णिमा की रात को खुले आसमान के नीचे चावल का खीर रखा जाता है। इसके अलावा शरद पूर्णिमा की रात को देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं और घर-घर जाकर यह देखती हैं कि कौन रात को जग रहा है। इस कारण इसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहते हैं। कोजागरी का अर्थ होता है कि कौन-कौन जाग रहा है।
शरद पूर्णिमा को आश्विन पूर्णिमा भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की तिथि पर चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक रहता है और रात को चंद्रमा की किरणों में औषधीय गुण की मात्रा सबसे ज्यादा होती है जो मनुष्य को तरह बीमारियों से छुटकारा पाने में मदद होती है।
चंद्रमा की किरणों में औषधीय गुण होने के कारण शरद पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर उसे खुले आसमान के नीचे रखा जाता है। रात भर खीर में चंद्रमा की किरणें पड़ने के कारण खीर में चंद्रमा की औषधीय गुण आ जाती हैं। फिर अगले दिन खीर खाने से सेहत पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
ऐसी मान्यता है कि भगवान कृष्ण शरद पूर्णिमा की तिथि पर ही वृंदावन में सभी गोपियों संग महारास रचाया था। इस वजह भी शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। शरद पूर्णिमा के दिन मथुरा और वृंदावन सहित देश के कई कृष्ण मंदिरों में विशेष आयोजन किए जाते हैं।
मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की तिथि पर देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करने आती हैं और घर-घर जाकर भक्तों को आशीर्वाद देती हैं। शरद पूर्णिमा की तिथि पर माता लक्ष्मी की विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है।
शरद पूर्णिमा पर रात भर जागकर माता की स्तुति की जाती है। शास्त्रों में इसे कोजागर व्रत यानी कौन जाग रहा है व्रत भी कहते हैं। इस दिन की लक्ष्मी पूजा सभी कर्जों से मुक्ति दिलाती हैं इसीलिए इसे कर्जमुक्ति पूर्णिमा भी इसी लिए कहते हैं।
वास्तव में शरद ऋतु त्यौहारों की ऋतु है इसमें पितरों, देवों तथा मनुष्यों सबको तृप्त करने हेतु पितृपक्ष, देवपक्ष और दीपोत्सव मनाए जाते हैं। शरद ऋतु आनन्द ही नहीं अपितु धन-धान्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
किसान की धान की फसल तैयार होती है जिसमें से प्रजाजनों को हिस्सा मिलता ही है साथ साथ राज्य को भी कर प्राप्त होता है। व्यापारियों को उनके बकाए प्राप्त हो जाते है तथा उनके भी भंडार भर जाते हैं और पुरानी बहियों का नवीकरण करते हैं ।
जहां अन्य ऋतुएं यथा ग्रीष्म मात्र अन्न देती है, वर्षा बुवाई करवाती है शिशिर फसलों को बड़ा करती है बसन्त पुष्प देती है और हेमंत पकाती है। वहीं शरद काल में अन्न (धान) तैयार होता है, रबी फ़सलों की बुवाई भी होती है, कास के पुष्पों से धरा ढक जाती है। बन्द पड़े शुभ कार्य पुनः प्रारम्भ हो जाते हैं हर तरफ आनन्द ही आनन्द होता है। वास्तव में शरद ऋतु सुख, समृद्धि, आनन्द तथा कर्म का प्रतीक है।
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