झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम हिन्दुस्तान की अद्वितीय वीरांगना के रूप में लिया जाता है। उनकी महत्ता का प्रमाण यही है कि सन् 1943 में जब नेता जी सुभाषचंद बोस ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज में स्त्रियों की एक रेजीमेंट बनाई तो उसका नाम ‘‘रानी झांसी रेजीमेंट’’ रखा गया। उनका बचपन का नाम मनुबाई था। उनके पिता मोरोपंत तांबे पेशवा बाजीराव द्वितीय के आश्रित थे। 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह झांसी के प्रौढ़ राजा गंगाधर राव से कर दिया गया। 1853 में गंगाधर राव परलोक सिधार गए, ऐसी स्थिति में राजमाता के रूप में झांसी के शासन की वास्तविक सत्ता उनके हाथ आ गई।
दामोदरदास को गोद लिए जाने की मान्यता को लेकर रानी का अंग्रेजों से विवाद चल रहा था कि उनके एक संबंधी सदाशिव नारायण राव ने स्वयं को झांसी का राजा घोषित कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने तुरंत कार्यवाही की और सदाशिव नारायण राव के किले पर चढ़ाई करके उसे बंदी बना लिया। इसी तरह से ओरछा के सरदार नत्थे खॉ ने यह समझ कर कि अबला रानी मेरा क्या मुकाबला कर सकेगी? दस हजार सेना लेकर झांसी पर चढ़ाई कर दी। परन्तु रानी लक्ष्मीबाई ने जमकर मुकाबला किया और नत्थे खॉ को भारी हानि उठाकर वापस लौटना पड़ा।
जिन राजाओं ने अपने पीछे राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं छोड़ा था, उनका राज्य ईस्ट इंडिया कम्पनी में मिलाने की नीति लार्ड डलहौजी ने अपनाई। डलहौजी की इस अपहरण नीति के अन्तर्गत गोद लेकर उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार भी नहीं दिया गया था, यही बात झांसी के लिए भी थी। अंग्रेज सरकार ने आदेश जारी कर दिया कि झांसी का राज्य अंग्रेजी राज्य में मिलाया जा रहा है। इस पर रानी लक्ष्मीबाई ने कहा- ‘‘झांसी मेरी है, मैं उसे कदापि नहीं दूंगी।’’ परन्तु जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर बलपूर्वक झांसी पर अधिकार कर लिया।
इधर स्वराज्य का नगाड़ा गंभीर घोष कर रहा था। ग्यारह महीने से गूंजने वाले इस स्वातंत्रय घोष से सम्पूर्ण बुंदेलखण्ड भर गया था। विंध्य से यमुना तक ब्रिटिश सत्ता का कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। ब्राह्मण, मौलवी, सरदार, जागीरदार, सैनिक, पुलिस, राजा, राव, साहूकार और देहाती सभी की एक ही मांग थी- स्वाधीनता! इन सबको एकसूत्र में पिरोने का कार्य लक्ष्मीबाई ने किया। उनकी आवाज में वही दृढ़ता थी- ‘‘अपनी झांसी मैं नहीं दूंगी।’’
04 जून 1857 को झांसी में अंग्रेजों की देशी सेनाओं ने विद्रोह कर दिया और किले पर अधिकार करके उसे रानी लक्ष्मीबाई को सौंप दिया। अंग्रेजों ने ह्यूरोज नामक सेनापति को झांसी के किले पर अधिकार करने का दायित्व सौंपा और वह पॉच हजार सैनिक लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए झांसी की ओर चल पड़ा। एकओर जहां सेनापति कैंपबेल यमुना से उत्तर में हिमालय की ओर बढ़ रहा था, वहीं यमुना से दक्षिण में विंध्य तक का प्रदेश जीतने ह्यूरोज आगे बढ़ा। ह्यूरोज को विशेष रूप से मद्रास, मुम्बई तथा हैदराबाद की पलटनों की सहायता मिली। हिन्दुस्तानी सैनिकों का सहयोग भी ह्यूरोज को मिला था।
सच तो यह है कि मात्र अपनी शक्ति से विजय पाना अंग्रेजों के लिए असंभव था। कई मुठभेड़ों के चलते इन दिनों नर्मदा के उत्तर में देश भर में फैले क्रान्तिकारी दस्तों की झांसी में भीड़ थी। इसलिए ह्यूरोज क्रान्तिकारियों के इस अड्डे को नष्ट-भ्रष्ट करने झांसी की ओर चल पड़ा। किन्तु झांसी की भूमि में पैठते ही उसे बड़े कष्ट उठाने पड़े। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी के आस-पास का क्षेत्र उजड़वा दिया था, ताकि शत्रु को रसद न प्राप्त हो सके। खेतों में एक दाना तो मिले नहीं, छाया के लिए कोई पेंड़ भी न रहे। यहां तक कि घास की एक तृण भी नहीं छोड़ा गया था।
यद्यपि सिंधिया तथा टिहरी नरेश ने अंग्रेज निष्ठा के चलते अंग्रेजी सेना को फल, मेवों, ईधन और घास से भरपूर सहायता की। इस अवसर पर रानी ने सम्पूर्ण सेना का नेतृत्व किया। वह हर बुर्ज पर, हर द्वार पर घूमती हुई नजर आती थीं। तोपों की कुर्सियां बनने और उन्हें मोर्चे पर लगाने की जगह वह स्वयं उपस्थित रहतीं। इधर-उधर घूमकर निराश हृदयों में वह उत्साह का संचार कर रही थीं। इधर झांसी की जनता में भी पूरा उत्साह था।
झांसी के पण्डित मंदिरों में स्वाधीनता के लिए प्रार्थनाएँ कर रहे थे। पुजारियों ने रण में जाने वाले सैनिकों को आशीर्वाद दिए और घायल होने पर उनकी सुश्रुषा भी की, झांसी के कारीगर गोला-बारूद तथा युद्ध की अन्य सामग्री बनाने में व्यस्त रहते। झांसी की जानता ने तोपों के काम में भरपूर सहयोग दिया। बंदूक भरने का काम किया और तलवारों की धारें तेज की। यहां तक कि झांसी की स्त्रियों ने भरपूर सहयोग दिया, गोला-बारूद पहुंचाई, तोपों की कुर्सियां बनाई और समय पर रसद भी पहुंचाई। स्वयं ह्यूरोज ने अपनी ऑखों देखा बयान किया है- ‘‘स्त्रियॉ तोपखाने में गोला-बारूद पहुंचाने आदि कामों में व्यस्त दिखाई दीं।’’
झांसी के घेरे का ऑखों देखा वर्णन दत्तात्रेय बलवंत पारसनी कृत ‘‘रानी लक्ष्मीबाई का जीवनचरित’’ पृष्ठ 187-193 के आधार पर इस प्रकार है-
25 तारीख से दोनों ओर से बराबर मुठभेड़ शुरू हुई। अंग्रेजी तोपें दिन-रात आग बरसा रही थीं। रात को किले के अंदर और शहर में गोले गिरने लगे, बड़ा भयंकर दृश्य था। 26 तारीख की दोपहर को दक्षिण द्वार की तोपें अंग्रेजों ने निकम्मी कर दी थीं, सब धैर्य खो बैठे थे। तब पश्चिम द्वार के तोपची ने अपनी तोप का मुॅह घुमाया और अंग्रेजों पर गोले फेंकने लगा, जिससे अंग्रेजों का कुशल तोपची मारा गया और तोप भी बेकार हो गयी। इससे रानी ने प्रसन्न होकर उस तोपची गुलाम गोश खान को चॉदी का कड़ा ईनाम में दिया।
पॉचवें-छठे दिन भी उसी तरह युद्ध हुआ। चार-पॉच घण्टों तक रानी की तोपों ने अच्छा काम किया और अंग्रेजों की तोपों को भारी हानि पहुंचाई। लेकिन फिर अंग्रेजी तोपों की भीषण मार से रानी की तोपें बंद पड़ने लगी। सातवें दिन सूर्यास्त के समय बाईं तरफ की तोप बेकार हो गई। अंग्रेजों के गोलों से मुंड़ेर ढह गई, परन्तु रात में रानी ने उस मुड़ेर को ठीक करा लिया। अंग्रेज इस व्यवस्था को देखकर दॉतों तले अंगुली दबा लिए।
आठवें दिन सबेरे ही अंग्रेजों ने शंकर किले पर हमला बोल दिया। दूरबीन की मदद से वह किले के जलाशय पर आग बरसाने लगे। बावजूद इसके पश्चिमी तथा दक्षिणी द्वारों पर से गोलाबारी कर अंग्रेजी तोपों को बेकार कर दिया गया। पर अंग्रेजों ने बारूद के कारखाने में तोप का गोला डाल दिया, जिससे तीस आदमी और आठ औरतें वहीं समाप्त हो गए।
उस दिन घमासान लड़ाई हुई। बुर्जों के कई तोपची तथा सैनिक मारे गए, उनके स्थान पर नए आ गए। रानी स्वयं प्रत्येक जगह पर भागदौड़ कर रही थीं। झट से कच्चे स्थानों की मरम्मत हो जाती। रानी के इस व्यवहार से सैनिकों का हौसला बढ़ता और वे जी-जान से लड़ते। इस कठोर प्रतिकार के चलते अंग्रेजों के पास पर्याप्त शक्ति होने पर भी 31 मार्च 1858 तक वह किले में प्रवेश नहीं कर पाए।
इधर लक्ष्मीबाई की मदद के लिए तात्याटोपे बाईस हजार सैनिक लेकर बेतवा नदी के किनारे पहुंच गया। लेकिन उसके सैनिकों ने बेतवा के किनारे कायरता का बड़ा लज्जास्पद प्रदर्शन किया। यद्यपि रानी का सामने से और तात्या का पीछे से घेरने से अंग्रेजों को निराशा हो रही थी। फिर भी अंग्रेजों ने तात्या पर हमला किया, झांसी पर तोपों से आग बरसाई और इस प्रकार क्रान्तिकारियों के दोनों मोर्चों को ठण्डा कर दिया।
तात्या और उसके सैनिक बहुत सी युद्ध सामग्री छोड़कर भाग गए। एक लेखक ने लिखा है कि ‘‘इस अवसर पर शिवाजी या कुॅवर सिंह के रणधीर योद्धाओं की तरह हमला होता तो यह निश्चित था कि यूनियन जैक तथा उसके अनुआइयों की लाशों पर गिद्धों को दावत मिलती।’’ तात्या के इस तरह वापस भाग जाने से रानी के सरदारों और सैनिकों में विजय की आशा ही मिट गई। पर लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और धैर्य तथा प्राणप्रण से लड़ती रही।
03 अप्रैल को अंग्रेजों का आखिरी हमला हो चुका है। रानी बिजली की तरह घूम रही हैं। किसी को सोने के कड़े, किसी को पोशाक बांट रही हैं, किसी की पीठ ठोकती हैं, किसी को अपनी मुस्कान से उत्साहित करती हैं। इधर शत्रु किलाबंदी तोड़ रहा है, मुख्य द्वार तोड़ रहा है, उधर गुलाम गोश खॉ और कुॅवर खुदाबख्श तोपों से आग बरसा रहे थे। सीढ़िया चढ़ते हुए कई अंग्रेज काल के गाल में समा गए। भयंकर प्रतिकार के चलते अंग्रेज सेना पीछे हट गई। पर दक्षिणी बुर्ज पर विश्वासघात के चलते अंग्रेज फुरती से आगे बढ़ने लगे। उन्होंने शहर में मारकाट मचा दी और एक के पीछे एक मोर्चे पर कब्जा करते गए। वे राजमहल तक पहुंचे। राज प्रसाद पर अधिकार कर व्यापक लूट की गई। पहरेदारों को मार डाला गया। ईंट-से-ईंट बजा दी गई। आखिरकार झांसी अंग्रेजों के हाथ में चली गई।
परकोटे पर खड़ी रानी यह सब देखकर क्रोध से पागल हो उठी। हजार-पन्द्रह सौ सैनिकों को साथ लेकर वह अंग्रेजों पर झपट पड़ी। बहुत से गोरे मारे गए, शेष शहर की ओर भाग गए। पर अंग्रेजों ने अब तक झांसी को खण्डहर बना डाला था। किले के प्रमुख द्वार-रक्षक सरदार कुॅवर सिंह और दोनों तोपची खुदाबख्श और गुलाम गोश को गोली से उड़ा दिया गया।
रात हुई, रानी ने अपनी प्रजा को बुलाकर अंतिम बार आशीर्वाद दिया। चुनिन्दा घुड़सवारों को अपने साथ लिया। पुरुष वेश में वह किले के बाहर आईं दत्तक पुत्र दामोदर पीठ में बंधा था। घोड़े पर सवार होकर रानी अपने अंगरक्षकों के साथ अंग्रेजों को चकमा देकर निकल गईं। इधर लेफ्टिनेंट बाकर चुने हुए घुड़सवारों को लेकर रानी को पकड़ने के लिए पीछा करता आ रहा था। पीछा करने वाले अंग्रेज और रानी के दस-पन्द्रह घुड़सवारों में प्राणघातक मुठभेड़ हुई। बाकर रानी के वार से घायल हुआ और वह पीछे हट गया। कहीं न रुकते हुए 102 मील का सफर तय कर और वह बाकर जैसे योद्धा के साथ जूझते हुए, पीठ पर बालक दामोदर का बोझ लेकर रानी कालपी पहुंची। लेकिन इतने अनथक परिश्रम के चलते रानी का प्रिय घोड़ा स्वर्ग सिधार गया।
रानी को यहां पेशवा और तात्या टोपे मिले और उनके साथ बांदा का नवाब, शाहगढ़ नरेश, बानपुर के राजा यह सभी थे। फिर भी यह एक विशाल सैनिक संगठन के अन्तर्गत संगठित नहीं थे, दूसरी तरफ ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज दल पूरी तरह व्यवस्थित और अच्छी तरह अनुशासित था। इसके चलते कंच गॉव में क्रान्तिकारियों की हार हुई और उन्हें पुनः कालपी की ओर हटना पड़ा। यद्यपि जिस संगठित और योजनाबद्ध ढंग से क्रान्तिकारी मोर्चे से हटे उसकी प्रशंसा शत्रु ने भी की। इसके बाद यमुना किनारे पुनः क्रान्तिकारियों की सेना इकठ्ठी हुई। क्रान्तिकारियों ने अदम्य साहस दिखाते हुए अंग्रेजी सेना के तोपचियों को मार डाला, कुछ भाग गए।
रानी इस युद्ध में सबसे आगे थीं। लेकिन ह्यूरोज ने अपने ऊॅटों के काफिले के चलते क्रान्तिकारी सेना को कालपी तक पीछे हटने को मजबूर कर दिया, कुछ और मुठभेड़ों के बाद 24 मई को ह्यूरोज कालपी में घुस पड़ा और अनायास ही कालपी किले में एकत्रित अपार युद्ध सामग्री उसके हाथ लग गई। इधर कालपी से छिटक कर सभी क्रान्ति नेता रानी लक्ष्मीबाई, राव साहेब, बांदा का नवाब, तत्या टोपे इत्यादि आगामी योजना बनाने के लिए गोपालपुर गॉव में जमा हुए। यद्यपि अब तक नर्मदा से यमुना तक और यमुना से हिमांचल तक सारा प्रदेश अंग्रेज फिर से जीत चुके थे।
क्रान्तिकारियों के पास किले, सैन्य बल कुछ भी नहीं था। इसी को दृष्टिगत रखते हुए क्रान्ति का अग्रदूत तात्या कालपी से छिटक कर ग्वालियर में घुस पड़ा। एक महीने में ही ग्वालियर की सम्पूर्ण सेना पेशवा के साथ हो गई। कोषाध्यक्ष अमरनंद भाटिया ने पूरा खजाना भी पेशवा को सौंप दिया। इस तरह से एक असंभव कार्य के संभव होने के चलते तमाम निराश, हताश क्रान्तिकारियों को एक नया केन्द्र मिल गया।
लेकिन हाय री विडम्बना! रानी की चेतावनी के बावजूद क्रान्तिकारी ऐशो-आराम, शराब और दावतों में बेसुध हो गए और इधर सिंधिया को साथ लेकर अंग्रेज शीघ्र ही ग्वालियर पर हमला करने पहुंच गए। कोटा की सराय के आसपास के क्षेत्र की रक्षा का भार रानी के पास था। इस युद्ध में रानी और उसकी दो सखियॉ सुन्दर और काशी भी कंधे-से-कंधा मिलाकर लड़ीं। पर लड़ते-लड़ते रानी के पास केवल पन्द्रह-बीस सवार बचे, रानी लड़ते-लड़ते अंग्रेजों को चीरकर निकल गईं, पर मार्ग में एक नाला आ जाने से उनका नया घोड़ा वहीं अड़ गया।
क्षण भर में ही गोरे सैनिक रानी के समीप पहुंच गए, पर रानी की एक तलवार ने अनेक तलवारों का मुकाबला किया। पर कब तक? अंग्रेजों के तलवारों के वार से लड़ते-लड़ते बुरी तरह घायल होकर रानी घोड़े से गिर गईं। रानी का विश्वास पात्र सरदार रामचन्द्र राव देशमुख पास ही था। उसने रानी को उठाया और पास ही बाबा गंगादास की कुटिया में ले गया। उनकी पावन आत्मा स्वर्ग सिधार गई और घास के ढेर पर लिटाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
रानी लक्ष्मीबाई के इस अप्रतिम शौर्य और बलिदान पर वीर सावरकर ने 1857 का स्वातंत्रय समर में लिखा है- ‘‘इस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई लड़ीं। अपना लक्ष्य पूरा कर गईं। ऐसा एक जीवन सम्पूर्ण राष्ट्र का मुख उज्जवल करता है। वह सब सद्गुणों का निचोड़ थीं। एक महिला जिसने जीवन के तेइस बसंत ही देखे थे, कोमलांगी, मधुर, विशुद्ध चरित्र, पुरुषों में भी न पाई जाने वाली संगठन-कुशलता से ओत-प्रोत थीं। उनके हृदय में देशभक्ति रत्नदीप की तरह प्रकाशमान थी। युद्ध कौशल में अद्वितीय थी। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जो ऐसी देवी को अपनी कन्या और रानी कहने का अधिकारी होगा।’’ कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में- ‘‘दिखा गई पथ, सिखा गई पथ, जो हमको सीख सिखानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’’
आलेख
श्री वीरेन्द्र सिंह परिहार