भारत को अंग्रेजों से मुक्ति सरलता से नहीं मिली। पूरा देश मानों भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने उठ खड़ा हुआ था। क्या नगर वासी, क्या ग्राम वासी और क्या वनवासी। सभी क्षेत्रों में क्रान्ति की ज्वाला धधक उठी। ऐसे ही क्राँतिकारी थे वनवासी गेंद सिंह जिन्होने छत्तीसगढ के बस्तर जिला अंतर्गत परलकोट में सशस्त्र क्रांति की थी। इतिहास की पुस्तकों में यह क्रांति परलकोट विद्रोह के नाम से दर्ज है।
परलकोट में मुख्यतः शत प्रतिशत जनजातीय आबादी बाला क्षेत्र है जिसे अबूजमाड़ भी कहते है। यह असीम वन और खनिज संपदा वाला क्षेत्र है। 1757 के बाद अंग्रेजों ने अपना विस्तार आरंभ किया। चर्च के सहयोग से उनके सैन्य अधिकारी देशभर में फैले।
इसके साथ ही उन्होंने वन्य संपदा पर अधिकार करना आरंभ कर दिया था। इसके लिये उन्होंने दो स्तरीय रणनीति बनाई। एक ओर सैन्य शक्ति से राजाओं और जमींदारों को अपने अधीन बनाकर मनमाने कर वसूलना जिससे वे जनता पर अत्याचार करें और दूसरा चर्च के माध्यम से सेवा सहायता के बहाने जन सामान्य को प्रभावित करना।
वे क्षेत्र अंग्रेजों की प्राथमिकता थे जो प्राकृतिक संपदा से भरे हों। छत्तीसगढ और बस्तर इन्ही में से एक था। अंग्रेजों ने बल बढ़ाया और वनक्षेत्र पर अधिकार कर लिया। वनवासियों को खदेड़ना अत्याचार करना आरंभ कर दिया।
इसका प्रतिकार करने केलिये क्राँतिकारी गेंदसिंह आगे आये। उनके जन्म तिथि का स्पष्ट विवरण नहीं मिलता पर उनके द्वारा सशस्त्र क्रांति के आरंभ की तिथि स्पष्ट है। उन्होंने 1824 में पूरे अबूझमाड़ी समाज को एकत्र किया। यद्यपि साधनों का अभाव था वनवासियों के पास तीर कमान, लाठी और और गोप ही थे। पर हौंसला सबका बुलंद था।
प्रत्येक ने अपने स्वत्व केलिये प्राण देने का संकल्प किया था। वीर गेंदसिंह ने समूचे क्षेत्र के वनवासियों को एकत्र कर अंग्रेज से मुक्ति का आह्वान किया। इस क्रांति का केन्द्र परलकोट था। यह जमींदारी का केन्द्र था।
इस परलकोट जमीदारी के अंतर्गत 165 गांव आते थे। सभी गाँवो में क्रांति की लहर फैल गई। यह क्षेत्र महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के लगा है और तीन नदियों का संगम क्षेत्र है इस प्राकृतिक अनूकूलता के चलते वनवासियों को अपने संदेश यहाँ वहाँ भेजने में सहायता मिली।
पास का एक वनवासी गांव है, यहां तीन नदियों का संगम है। नदी पर्वतों और घने वनक्षेत्र के कारण क्रांति के दमन के लिये भीतर न घुस सके और लगभग एक वर्ष तक पूरा क्षेत्र अंग्रेजों से मुक्त रहा। अंग्रेजों की बंदूकों की मानों बेअसर हो गई।
वनवासियों ने अपने धनुष बाण और भालों से अंग्रेजी अधिकारियों और उनके सैनिकों को घुसने ही न दिया। इस सशस्त्र संघर्ष में महिलाएँ भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लोहा ले रहीं थीं। शत्रु जहां दिखता उसपर तीरों की बरसात हो जाती और वह वहीं यमलोक सिधार जाता।
घोटुल और दूसरे उत्सव मानों संघर्ष की रणनीति बनाने के समागम होते। वनवासियों ने कुछ केन्द्र बनाकर पांच-पांच सौ की संख्या में गुट बना कर मोर्चाबंदी कर ली थी थे। इन समूहों का नेतृत्व महिलाओं और पुरूष दोनों के हाथ में था और क्राँतिकारी गेंद सिंह इन सबका समन्वय कर रहे थे।
यह संघर्ष इतना व्यापक हो गया था कि अंग्रेजों ने इससे निबटने के लिये ब्रिटिश सैन्य अधिकारी एग्न्यू की कमान में सैन्य टुकड़ी भेजी। आधुनिक हथियारों से युक्त इस टुकड़ी ने अत्याचारों का सारा रिकार्ड तोड़ दिया। लेकिन वनवासियों ने हथियार डालने से इंकार कर दिया।
अंत में एग्न्यू की सहायता के लिये एक बड़ी सेना परलकोट पहुँची। इस सेना के साथ तोपखाना भी था। 10 जनवरी 1825 को परलकोट घेर लिया गया। आधुनिक बंदूकों और तोपखाने के आगे पूरा क्षेत्र वीरान होने लगा। वनवासियों के शव गिरने लगे।
अंततः अपने क्षेत्र को भीषण तबाही से बचाने के लिये क्राँतिकारी नायक गेंद सिंह ने समर्पण कर दिया और गिरफ्तार कर लिये गए। उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन थम गया। गिरफ्तारी के 10 दिन बाद ही 20 जनवरी 1825 को परलकोट महल के सामने ही गैंद सिंह को फाँसी दे दी गई।
बस्तर को अंग्रेजों से मुक्त कराने का सपना लिये फाँसी के फँसे पर झूल गए। छत्तीसगढ के इतिहास में क्राँतिकारी गेंद सिंह का पहला बलिदान माना गया।
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