चाण्डाल से संवाद की घटना मनीषा पचकम्’ की रचना के लिए मात्र एक भूमिका रही होगी। भगवान् विश्वनाथ ने एक दृश्य रचकर आचार्य शंकर को इस निमित्त प्रेरित किया। अब सच्चे अर्थों में सर्वात्मैक्य तथा अद्वैत का भाव श्री शंकराचार्य के मन में जग चुका था।
प्राणीमात्र की समानता के मौलिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक जगत में उतारने के लिए उन्होंने नवीन व्याख्याएँ दीं। आघ शंकरचार्य को एक नया बोध हआ. किसी भी शरीर से घृणा करना उचित नहीं।
इस घटना ने उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ दिया। सभी प्राणियों के अन्दर आधारभूत समानता के सिद्धान्त को नई परिभाषा मिल गई। ‘भजगोविन्दम’ में श्री शंकराचार्य कहते हैं :
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥
(The Hymns of Sankara, Page-69)
अर्थात ‘सभी के अन्दर अपने आप को ही देखो तथा भेद (अन्तर) उत्पन्न वाले अज्ञान को छोड़ दो।’ श्री शंकराचार्य ने इस मौलिक तत्वज्ञान को स्पष्ट किया कि सभी के अन्दर एक ही ब्रह्म है। ‘अपरोक्षानुभूति’ में वे प्रकट करते हैं:
ब्रह्मणः सर्वभूतानि जायन्ते परमात्मनः।
तस्मादेतानि ब्रह्मैव भवन्तीत्यवधारयेत् ।। (भारत के संत-महात्मा, पृ. 67)
अर्थात् ‘सम्पूर्ण भूत परमात्मा ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं, अतएव ये सब ब्रह्म ही हैं ; ऐसा निश्चय के साथ कहना चाहिए।’ आद्य शंकराचार्य ने जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसके अनुसार सभी पदार्थों से तटस्थ भाव ही सर्वोतम योग-स्थिति है। संसार के मिथ्यात्व का चिन्तन ही सर्वोत्तम साधना है। श्री शंकराचार्य ने बौद्ध और शैवों की अनेक बातों को त्यागकर उनके मुख्य सिद्धान्तों को स्वीकार कर लिया।
आचार्य शंकर का ‘आत्मतत्व’ किसी भी प्रकार के वर्णन, तर्क, इन्द्रियबोध तथा सम्बन्धों से दूर है। और सभी प्राणियों में इसकी व्याप्ति समान है। वह तो जातिभेद, पिता, माता, बन्धु, मित्र, गुरु, शिष्य आदि सभी भेदों से ऊपर है। विश्व के सभी दर्शनों के सम्मुख एक सुन्दर उदाहरण रखते हुए वे उस निराकार, निर्विकल्प, आत्मतत्व का वर्णन ‘निर्वाणाष्टकम् में इस प्रकार करते हैं:
न मृत्युर्न शङ्का न मे जाति भेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपोविमुक्तश्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।।
न चासंगते नैव मुक्तिर्न बन्धश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्||
– (भारत की संस्कृति और कला, पृ. 234)
पंचायतन पूजा पद्धति का प्रारंभ –
न चासंगते नैव मुक्तिर्न बन्धश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्
श्री शंकराचार्य जी ने उस समय ईश्वर के विभिन्न रूपों के उपासकों के मध्य उत्पन्न हो उठने वाले संघर्षों को समाप्त कर समन्वय स्थापित करने हेतु ‘पंचायतन पूजा’ पद्धति प्रारंभ की. जिसमें शिव, विष्णु, गणपति, ” सूर्य तथा शक्ति की एक साथ उपासना की व्यवस्था थी। स्वामी प्रकाशानन्द लिखते है:
“आचार्य शंकर ने किसी की श्रद्धा पर आघात नहीं किया। आचार्य ने कहा ‘छोटे-छोटे देवी – देवताओं की पूजा अनन्त ज्ञानमय परमपिता परमेश्वर की ही पूजा है। अपनी पुण्यमयी भारतभूमि से स्फूर्ति ग्रहण करने की एकमात्र अभिलाषा अपने राष्ट्रीय-जीवन स्वाधीन रखते हुए विकास की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा ने कहीं आदित्योपासना का रूप लिया तो कहीं शक्ति उपासना का।
कहीं गणपति को आराध्य मानकर भारत के कोने-कोने में द्वादश गणपति मन्दिरों का निर्माण किया तो अठारह ज्योतिर्लिंगों की स्थापना कर भारतभूमि की परिक्रमा करने का प्रयत्न किया। कहीं वह ‘वाल्मीकि के आदि काव्य के रूप में तो कहीं ‘श्री मद्भागवत’ की कथा के रूप में जन समुदाय को विह्वल बनाया। शाक्त, वैष्णव, शैव, गाणपत्य, आदित्योपासक सब एक ही शक्ति के उपासक हैं। सब उसी सर्वव्यापक विराट् रूपधारी राष्ट्रपुरुष की उपासना के भिन्न-भिन्न रूप हैं। वस्तुतः अद्वैत हैं।” (श्री शंकरदिग्विजय, पृ. 17)
श्री शंकराचार्य ने करुणावतार बुद्ध को भगवान् विष्णु का नवम् अवतार मानकर, समाज के एकीकरण में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ दिया। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक, भगवान् बुद्ध की अनेक शिक्षाओं को सनातनी हिन्दुओं के विचार के साथ समन्वित कर दिया। इन सभी कारणों से समाज का व्यापक भेदभाव तो समाप्त हुआ, किन्तु लोग यह कहने लगे कि श्री शंकराचार्य भी प्रच्छन्न बौद्ध हैं।
आचार्य शंकर ने जोर देकर कहा कि ब्रह्मज्ञान का अधिकार शूद्रों तथा स्त्रियों को भी है। उनके अनुसार, वर्ण और आश्रम जैसी व्यवस्थाएँ ब्रह्मज्ञान में बाधक नहीं हैं। वैदिक ज्ञान के सन्दर्भ में आचार्य शंकर ने अनेक उदाहरण (जैसे महाभारत के विदुर और धर्मव्याध तथा उपनिषदों के वाचक्नवी के नाम) देते हुए, शूद्रों, स्त्रियों की स्थिति और उनके विशेषाधिकारों की समानता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक ज्ञानार्थी के लिए ज्ञान का द्वार उन्मुक्त है तथा ज्ञान की शर्त केवल स्तुति है।
अपने प्रारंभ के जीवन में श्री शंकराचार्य, आत्मज्ञान का संदेश देते हैं ; अद्वैत का दर्शन तथा दृश्य-जगत मिथ्या का उपदेश देते हैं, किन्तु आगे चलकर वे भक्ति का संदेश देते हुए संपूर्ण समाज को जोड़ते हैं। आद्य शंकराचार्य ने सामान्य जन को भक्तिमार्ग की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया। तभी तो वे विद्वानों को भी भक्ति का ही मार्ग बतलाते हुए कहते हैं कि अन्तिम समय में यही काम आएगा। ‘चर्पट पंजरिका’ में वे समझाते हैं :
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ्करणे॥ (भजगोविन्दम्-1)
अर्थात् हे मूढमति लोगो! प्रभु का भजन करो, प्रभु का भजन को भजन करो, (क्योंकि) मृत्यु निकट आने पर भोग विलास रक्षा नहीं करेंगे।’ श्री शंकराचार्य ने देवताओं पर इतने सुन्दर काव्यमय मधुर स्तोत्रों की रचना की जिनकी तुलना आज भी दुर्लभ है।
उस समय देश में आध्यात्मिक साधना का विकृत स्वरूप मन्त्रयान, हीनयान तन्त्रयान, कापालिक आदि रूपों में फैलता जा रहा था। पंचमकार की पूजा पद्धति विकसित हो रही थीं। सैकड़ों पन्थ-उपपन्थों की भरमार ने कर्मकाण्डों को वीभत्स स्वरूप दे दिया, जिसके कारण सम्पूर्ण समाज विशृंखलित होता जा रहा था।
आचार्य शंकर ने उस समय की कठिन परिस्थितियों में युगानुकूल शास्त्रों की रचना की और। सम्पूर्ण देश की यात्रा भी सम्पन्न की। काशी की घटना के पश्चात् शिव का आदेश मानकर वे बदरिकाश्रम गए और वहाँ पर व्यास-गुहा में चार वर्ष रह कर उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’, ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ एवं प्रधान ‘उपनिषदों’ पर भाष्य रचना का कार्य सम्पन्न किया।
बदरीनाथ से आचार्य शंकर काशी आये और वहाँ से महान् वैदिक विद्वान् कुमारिल भट्ट से मिलने प्रयाग आ पहुँचे। उसी समय कुमारिल भट्ट तुषाग्नि (धान की भूसी में धीरे- धीरे सुलगने वाली आग) में प्रवेश कर गए थे। कुमारिल ने शंकराचार्य को अपने शिष्य मण्डन मिश्र के पास महिष्मती (बिहार) भेजा।
शंकराचार्य ने अपनी विद्वत्ता तथा विनम्रता से मण्डन मिश्र तथा उनकी विदुषी पत्नी उभयभारती को भी अपना अनुगामी बना लिया। मण्डन मिश्र का नया नाम सुरेश्वराचार्य रखा गया और वे श्री शंकराचार्य के साथ दक्षिण की यात्रा पर चल पड़े। दक्षिण में श्री शैलम उन दिनों कापालिकों का गढ़ था। यहां से वे शृंगेरी आये और वहाँ प्रथम पीठ श्री शारदादेवी की स्थापना की। व्यापक साहित्य रचना उन्होंने शृंगेरी में रह कर ही पूर्ण की।
मण्डन मिश्र (सरेश्वराचार्य) को ‘शृंगेरीमठ का कार्यभार सौंपकर वे देश भ्रमण पर निकल पड़े। पदयात्रा करते हुए श्री शंकराचार्य तिरुपति (बालाजी वेङ्कटेश्वर) के दर्शन करने गए। वहाँ से चिदम्बरम्, शिवगङ्गा, सेतुबन्ध रामेश्वरम्, कन्याकुमारी, तिरुवनन्न्तपुरमरम तिरुचरापल्ली, श्री रंगम्, काञ्ची होते हुए उन्होंने सम्पूर्ण दक्षिण भारत की यात्रा की |
अब वे पंढरपुर, नाशिक, त्र्यम्बकेश्वर होते हुए सोमनाथ के दर्शन करने के लिए गुजरात पधारे। वे सर्वत्र अद्वैत का उपदेश कर रहे थे। गुजरात में द्वारिका में उन्होंने ‘शारदामठ’ की स्थापना की। यहाँ से उज्जैन, मथरा, वृन्दावन, हरिद्वार होते हुए वे कश्मीर वे कश्मीर आ गये कश्मीर तो ज्ञान तो की देवी शारदा के नाम से विख्यात था।
वे पुनः बदरीनाथ आए और निकट ही विष्णु प्रयाग में तीसरा मठ ‘ज्योतिर्मठ’ स्थापित किया। वे आगे बढ़ कर और फिर नेपाल आ गए। काशी में मणिकर्णिका घाट पर बैठकर सुन्दर ‘गङ्गाष्टक’ ‘मणिकर्णिकाष्टक’ की रचना की। काशी से गया, वैद्यनाथ धाम होते हए वे जगन्नाथपुरी पहँचे। यहाँ उन्होंने चौथे मठ की स्थापना की और उसका नाम ‘गोवर्धनमठ’ रखा और शृंगेरी आकर अपनी दिग्विजय यात्रा पूर्ण की।
सच में देखा जाय तो भारतभूमि पर राष्ट्रीय एकता हेतु यह महान् और व्यापक ज्ञान-यज्ञ था। इस यात्रा के द्वारा जन साधारण को वेद-वेदान्त के गूढ़ तत्वों का तथा अद्वैत सिद्धान्त का ज्ञान हुआ। सम्पूर्ण देश में वेद, गीता, उपनिषदों के अनन्त ज्ञान भण्डार का पुनः प्रकाश हुआ। समग्र देश में एक नवजागरण हो गया।
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क्रमश…… जारी है।