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राष्ट्र और समाज को सारा जीवन देने वाले भारत रत्न नाना जी देशमुख

27 फरवरी 2010 में सुप्रसिद्ध राष्ट्रसेवी भारत रत्न नानाजी देशमुख की पुण्यतिथि

हजार वर्ष की दासता के अंधकार के बीच यदि आज राष्ट्र और संस्कृति का वट वृक्ष पुनः पनप रहा है तो इसके पीछे उन असंख्य तपस्वियों का जीवन है जिन्होंने अपना कुछ न सोचा। जो सोचा वह राष्ट्र के लिये सोचा, समाज के लिये सोचा और संस्कृति रक्षा में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। इन्हीं महा विभूतियों में एक हैं नानाजी देशमुख। स्वतंत्रता के पूर्व उन्होंने असंख्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तैयार किये और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रसेवा के लिये सैकड़ों स्वयंसेवक तैयार किये। ऐसे हुतात्मा संत नानाजी की पुण्यतिथि 27 फरवरी को है।

नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्तूबर 1916 को महाराष्ट्र के हिगोंली जिला के छोटे से कस्बे कडोली में हुआ था। उनका प्रारंभिक जीवन अति अभाव और संघर्ष से भरा था। लेकिन चुनौतियों ने उन्हे कमजोर नहीं सशक्त बनाया, संकल्पशक्ति को दृढ़ किया। उन्होंने पुस्तकें खरीदने के लिये सब्जी बेचकर पैसे जुटाये, पढ़ाई की। मंदिरों में रहे लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त की।

उन्होंने पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उच्च शिक्षा की डिग्री ली। अपनी शिक्षा के दौरान उन्होने राष्ट्र और समाज की दयनीय स्थिति को अपनी आँखों से देखा और समझा। सनातन समाज के भोलेपन का लाभ लेकर विभाजन का षड्यंत्र सब। उन्होंने साहित्य का अध्ययन किया। दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द और तिलक जी के साहित्य से बहुत प्रभावित हुये और समय के साथ संघ से परिचय हुआ।

वे 1930 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े और जीवन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ही समर्पित कर दिया। संघ के संस्थापक डा हेडगेवार से उनके व्यक्तिगत और पारिवारिक संबंध थे। नानाजी ने डा हेडगेवार की कार्यशैली देखी। डा हेडगेवार ने अपना व्यक्तित्व, अपना जीवन ही नहीं अपितु अपना पूर्ण अस्तित्व ही राष्ट्र और संस्कृति की सेवा के लिये समर्पित कर दिया था।

ठीक उसी प्रकार नानाजी ने भी उच्च शिक्षा से सम्पन्न अपना जीवन संघ की धारा पर राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में अर्पित कर दिया। उन्होंने संघ रचना का प्रारंभिक कार्य महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से आरंभ किया। उनका कार्य त्रिस्तरीय था। परिवार से संपर्क, शिक्षण संस्थान से संपर्क और खेल मैदान में बच्चों से संपर्क करके उन्हे रचनात्मक कार्यों में जोड़ा।

नानाजी का कार्य केवल संघ की संगठन रचना तक सीमित भर नहीं था। उनका प्रयास पीढ़ी में संस्कार, संयम, समाज सेवा और संगठन का भाव उत्पन्न करना था। उन्होंने ऐसे समर्पित और अनुशासित युवाओं की एक पीढ़ी तैयार की। उनके द्वारा तैयार स्वयंसेवकों ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। पूरे विदर्भ ही नहीं अपितु संपूर्ण विदर्भ क्षेत्र के साथ महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के महाकौशल क्षेत्र में भारत छोड़ो उस आँदोलन का नेतृत्व भले किसी ने किया हो पर बड़ी संख्या।

समय के साथ नाना जी को महाराष्ट्र से बाहर संगठन विस्तार के दायित्व मिले। उनका अधिकांश जीवन राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बीता। सबसे पहले उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में संघ प्रचारक का दायित्व मिला। उन्होंने गोरखपुर में संघ की पहली शाखा आरंभ की। नाना जी धर्मशाला में रहते थे, स्वयं अपने भोजन का प्रबंध करते और संघ और राष्ट्रसेवा कार्य में जुटे रहते थे।

गोरखपुर के बाद उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों में संघ कार्य करने के बाद वे उत्तर प्रदेश ही प्रांत प्रचारक बने। संघ ने जब “राष्ट्र-धर्म” और “पाञ्चजन्य” समाचार पत्र निकालने का निर्णय लिया तो नानाजी इसके प्रबंध संपादक थे। अटलजी और दीनदयाल जी के साथ उनकी एक ऐसी सशक्त टोली बनी जिसने पूरे देश को एक वैचारिक दिशा दी। 1951 में जब तत्कालीन सरसंघचालक गुरु जी राजनीतिक दल गठित करने का निर्णय लिया तो इसकी रचना में महत्वपूर्ण भूमिका नाना जी की रही।

वे नवगठित इस राजनैतिक दल “भारतीय जनसंघ” के संस्थापक महासचिव बने। उन्होंने एक ओर जहाँ जनसंघ को कार्य विस्तार, देने का कार्य किया वहीं भारतीय विचारों के समीप राजनेताओ से भी संपर्क साधा। इसमें समाजवादी पार्टी के नेता डा राम मनोहर लोहिया भी थे। यह नानाजी का प्रयास महत्वपूर्ण था कि समाजवादी पार्टी और जनसंघ की निकटता बढ़ी।

यदि 1967 में देश के कुछ प्रांतों में संविद सरकारें बनी तो इसके पीछे नानाजी और डा लोहिया की निकटता ही रही है। नानाजी ने ही उत्तर प्रदेश में गठबंधन की राजनीति की शुरूआत की थी जो देशभर एक उदाहरण बनी। इसी शक्ति के कारण उत्तर प्रदेश के चंद्रभानु गुप्ता जैसे बड़े नेता को पराजय का मुँह देखना पड़ा।

1977 में जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार बनी तो प्रधानमंत्री मोरारजी भाई ने नानाजी के सामने मंत्री पद का प्रस्ताव रखा। नानाजी यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वे साठ वर्ष की आयु पार कर चुके हैं इस आयु के बाद व्यक्ति को समाज सेवा करना चाहिए और अपने संकल्प के साथ नानाजी समाज सेवा में जुट गये।

उन्होंने चित्रकूट में ग्रामोदय विश्व विद्यालय आरंभ किया। चित्रकूट का यह प्रकल्प नानाजी का पहला प्रकल्प नहीं था। वे जहां रहे वहां उन्होंने ऐसे प्रकल्प कार्यकर्ताओं से आरंभ कराये। इसके लिये उन्होंने सदैव पिछड़े गाँव चुने। उनके संकल्प में स्वत्व और स्वावलंबन को प्राथमिकता रही।

उन्होंने इसी दिशा के प्रकल्प आरंभ किये। उन्हे अपने अभियान में दीनदयाल जी के आकस्मिक निधन से भारी क्षय अनुभव किया। वे दीनदयाल उपाध्याय की असामयिक मृत्यु के बाद काफी दिनों तक अन्यमनस्क रहे और अंततः उन्होंने 1972 में दीन दयाल शोध संस्थान की स्थापना की और पूरा जीवन इसी संस्थान को सशक्त करने में लगा दिया।

नानाजी ने 1980 में राजनैतिक और सार्वजनिक जीवन से सन्यास लेकर चित्रकूट प्रकल्प में ही अपना जीवन और समय इसी संस्थान को अर्पित कर दिया। इस संस्थान में आधुनिक कृषि, स्वरोजगार और स्थानीय वस्तुओं की आत्म आत्म निर्भरता का जीवन जीने को प्रोत्साहित किया । इसी प्रकल्प के चलते उन्हे पद्म भूषण और 2019 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उन्होंने 95 वर्ष की आयु में 27 फरवरी 2010 को इसी प्रकल्प में शरीर त्यागा। 2019 में भारत सरकार ने मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया। शत शत नमन्

आलेख

श्री रमेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल, मध्य प्रदे

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