महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात् शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 140 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ‘‘प्रयाग‘‘ जैसी मान्यता है।
मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ‘‘श्री नारायण क्षेत्र‘‘ और ‘‘श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र‘‘ कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान नारायण के दर्शन करने जमीन में ‘‘लोट मारते‘‘ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है।
तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है और शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ’’साक्षी गोपाल‘‘ विराजमान हैं। कदाचित् इसीकारण यहां के मेले को ‘‘छत्तीसगढ़ का कुंभ‘‘ कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।
गुप्तधाम:-
चारों दिशाओं में अर्थात् उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ‘‘गुप्तधाम‘‘ के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदिप्यमान है। यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। यहां की महत्ता का वर्णन पंडित हीराराम त्रिपाठी द्वारा अनुवादित शबरीनारायण माहात्म्य में किया गया हैः-
शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान
याज्ञवलक्य व्यासादि ऋषि निज मुख करत बखान।
शबरीनारायण मंदिर:-
यहां के प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों की भव्यता और अलौकिक गाथा अपनी मूलभूत संस्कृति का शाश्वत रूप प्रकट कर रही है, जो प्राचीनता की दृष्टि से अद्वितीय है। 8-9 वीं शताब्दी की मूर्तियों को समेटे मंदिर एक कलात्मक नमूना है, जिसमें उस काल की कारीगरी आज भी देखी जा सकती है। 172 फीट ऊंचा, 136 फीट परिधि और शिखर में 10 फीट का स्वर्णिम कलश के कारण कदाचित् इसे ‘‘बड़ा मंदिर‘‘ कहा जाता है। वास्तव में यह शबरीनारायण मंदिर है। यह उत्तर भारतीय आर्य शिखर शैली का उत्तम उदाहरण है।
इसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि कालीन मंदिरों से भिन्न है। प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नांगवंशी मंदिरों से अधिक है। वर्तमान मंदिर जीर्णोद्धार के कारण नव कलेवर में दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के गर्भगृह में दीवारों पर चित्र शैली में कुछ संकेत भी दृष्टिगत होता है। कारीगरों का यह सांकेतिक शब्दावली भी हो सकता है ? प्राचीन काल में यहां पर एक बहुत बड़ा जलस्रोत था और इसे बांधा गया है। जलस्रोत को बांधने के कारण मंदिर का चबूतरा 10000 वर्ग मीटर का है। जलस्रोत भगवान नारायण के चरणों में सिमट गया है। इसे ‘‘रोहिणी कुंड‘‘ कहा जाता है।
इस कुंड की महत्ता कवि बटुकसिंह चैहान के शब्दों में-रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर। इस मंदिर के गर्भ द्वार के पाश्र्व में वैष्णव द्वारपालों शंख पुरूष और चक्र पुरूष की आदमकद प्रतिमा है। इसी आकार प्रकार की मूर्तियां खरौद के शबरी मंदिर के गर्भगृह में भी है। द्वार शाखा पर बारीक कारीगरी और शैलीगत लक्षण की भिन्नता दर्शनीय है। गर्भगृह के चांदी के दरवाजा को ‘‘केशरवानी महिला समाज‘‘ द्वारा बनवाया गया है। इसे श्री देवालाल केशरवानी ने जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से सन् 1959 में बनवाया था।
गर्भगृह में भगवान नारायण पीताम्बर वस्त्र धारण किये शंख, चक्र, पद्म और गदा से सुसज्जित स्थित हैं। साथ ही दरवाजे के पास परिवर्ती कालीन गरूड़ासीन लक्ष्मीनारायण की बहुत ही आकर्षक प्रतिमा है जिसे जीर्णोद्धार के समय भग्न मंदिर से लाकर रखा गया है। मंदिर के बाहर गरूण जी और मां अम्बे की प्रतिमा है। मां अम्बे की प्रतिमा के पीछे भगवान कल्की अवतार की मूर्ति है जो शिवरीनारायण के अलावा जगन्नाथ पुरी में है। श्री प्रयागप्रसाद और श्री जगन्नाथप्रसाद केशरवानी ने मंदिर में संगमरमर लगवाकर सद्कार्य किया है। मंदिर में सोने का कलश क्षेत्रीय कोष्टा समाज के द्वारा सन् 1952 में लगवाया गया है।
श्री प्यारेलाल गुप्त ने प्राचीन छत्तीसगढ़ में लिखा है:-‘‘शिवरीनारायण का प्राचीन नाम शौरिपुर होना चाहिये। शौरि भगवान विष्णु का एक नाम है और शौरि मंडप के निर्माण कराये जाने का उल्लेख एक तत्कालीन शिलालेख में हुआ है।‘‘ इस मंदिर के निर्माण के सम्बंध में भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण किसी शबर राजा द्वारा कराया गया मानते हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और भोगहापारा (शिवरीनारायण) के मालगुजार पंडित मालिकराम भोगहा ने भी इस मंदिर का निर्माण किसी शबर के द्वारा कराया गया मानते हैं।
तंत्र मंत्र की साधना स्थली:-
उड़ीसा के प्रसिद्ध कवि सरलादास ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा है:-‘‘भगवान जगन्नाथ स्वामी को शिवरीनारायण से लाकर यहां प्रतिष्ठित किया गया है।‘‘ छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरि ठाकुर ने अपने एक लेख-‘‘शिवरीनारायण जगन्नाथ जी का मूल स्थान है‘‘ में लिखा हैः-‘‘इतिहास तर्क सम्मत विश्लेषण से यह तथ्य उजागर होता है कि शिवरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को पुरी कोई ब्राह्मण नहीं ले गया। वहां से उन्हें हटाने वाले इंद्रभूति थे। वे वज्रयान के संस्थापक थे।‘‘ डाॅ. एन. के. साहू के अनुसार- ‘‘संभल (संबलपुर) के राजा इंद्रभूति जिन्होंने दक्षिण कोसल के अंधकार युग (लगभग 8-9वीं शताब्दी) में राज्य किया था। वे बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे।
इंद्रभूति पद्मवज्र (सरोरूहवज्र) के शिष्य अनंगवज्र के शिष्य थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र इंद्रभूति को ‘‘उड्डयन सिद्ध अवधूत‘‘ कहा है। सहजयान की प्रवर्तिका लक्ष्मीकरा इन्हीं की बहन थी। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखा है लेकिन ‘‘ज्ञानसिद्धि‘‘ उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तांत्रिक ग्रंथ है जो 717 ईसवी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने इस ग्रथ में भगवान जगन्नाथ की बार बार वंदना की है। इसके पहले जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। वे उन्हें भगवान बुद्ध के रूप में देखते थे और वे उनके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे।
‘‘इवेज्र तंत्र साधना‘‘ और ‘‘शाबर मंत्र‘‘ के समन्वय से उन्होंने वज्रयान सम्प्रदाय की स्थापना की। शाबर मंत्र साधना और वज्रयान तंत्र साधना की जन्म भूमि दक्षिण कोसल ही है।‘‘ डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-‘‘इंद्रभूति शबरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।‘‘ आसाम के ‘‘कालिका पुराण‘‘ में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे।
मंदिरों की नगरी:-
शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अतः उन समाजों द्वारा यहां मंदिर निर्माण कराया गया है। यहां अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है। इसके अलावा यहां शैव और शाक्त परम्परा के प्राचीन मंदिर भी हैं। इन मंदिरों में निम्नलिखित प्रमुख हैंः-
केशवनारायण मंदिर:-
नारायण मंदिर के पूर्व दिशा में पश्चिमाभिमुख सर्व शक्तियों से परिपूर्ण केशवनारायण की 11-12 वीं सदी का मंदिर है। ईंट और पत्थर बना ताराकृत संरचना है जिसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के चैबीस रूपों का अंकन बड़ी सफाई के साथ किया गया है। जबकि द्वार के उपर शिव की मूर्ति है। अन्य परम्परागत स्थापत्य लक्षणों के साथ गर्भगृह में दशावतार विष्णु की मानवाकार प्रतिमा है। यह मंदिर कलचुरि कालीन वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। यहां एक छोटा अंतराल है, इसके बाद गर्भगृह। मंदिर पंचरथ है और मंदिर की द्वार शाखा पर गंगा-यमुना की मूर्ति है, साथ ही दशावतारों का चित्रण हैं।
चंद्रचूड़ महादेव:-
केशवनारायण मंदिर के वायव्य दिशा में चेदि संवत् 919 में निर्मित और छत्तीसगढ़ के ज्योर्तिलिंग के रूप में विख्यात् ‘‘चंद्रचूड़ महादेव‘‘ का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते राज पुरूष और रानी की हाथ जोड़े पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की मूर्ति के बगल में किसी सन्यासी की मूर्ति है। मंदिर के बाहरी दीवार पर एक कलचुरि कालीन चेदि संवत् 919 का एक शिलालेख है। इस शिलालेख का निर्माण कुमारपाल नामक किसी कवि ने कराया है और भोग राग आदि की व्यवस्था के लिए ‘चिचोली‘ नामक गांव दान में दिया है। पाली भाषा में लिखे इस शिलालेख में रतनपुर के राजाओं की वंशावली दी गयी है। इसमें राजा पृथ्वीदेव के भाई सहदेव, उनके पुत्र राजदेव, पौत्र गोपालदेव और प्रपौत्र अमानदेव के पुण्य कर्मो का उल्लेख किया गया है।
राम लक्ष्मण जानकी मंदिर:-
चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के ठीक उत्तर दिशा में श्रीराम लक्ष्मण जानकी का एक भव्य मंदिर है जिसका निर्माण महंत अर्जुदास की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के पश्चात् अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने कराया था। इसी प्रकार केंवट समाज द्वारा श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण रामघाट के पास लक्ष्मीनारायण मंदिर के पास कराया गया है। इस मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के चैबीस अवतारों की सुंदर मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंदिर के बगल में संवत् 1997 में निर्मित श्रीरामजानकी-गुरू नानकदेव मंदिर का मंदिर है।
महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर:-
महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उनके बारे में लिखा है। उनके अनुसार माखनसाव क्षेत्र के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामेश्वरम् की यात्रा की और 80 वर्ष की सुख भोगा। उन्होंने महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उनके पौत्र श्री आत्माराम साव ने मंदिर परिसर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण कराया और सुन्दर घाट और बाढ़ से भूमि का कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवार का निर्माण कराया। इस घाट में अस्थि विसर्जन के लिए एक कुंड बना है। इस घाट में अन्यान्य मूर्तियां जिसमें शिवलिंग और हनुमान जी प्रमुख है, के अलावा सती चैरा बने हुये हैं।
लक्ष्मीनारायण-अन्नपूर्णा मंदिर:-
नगर के पश्चिम में मैदानी भाग जहां मेला लगता है, से लगा हुआ लक्ष्मीनारायण मंदिर है। मंदिर के बाहर जय विजय की मूर्ति माला लिए जाप करने की मुद्रा में है। सामने गरूड़ जी हाथ जोड़े विराजमान है। गणेश जी भी हाथ में माला लिए जाप की मुद्रा में हैं। मंदिर की पूर्वी द्वार पर माता शीतला, काल भैरव विराजमान हैं। वहीं दक्षिण द्वार पर शेर बने हैं। भीतर मां अन्नपूर्णा की ममतामयी मूर्ति है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अकेली है। उन्हीं की कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ ‘‘धान का कटोरा‘‘ कहलाता है। नवरात्रि में यहां ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। जीर्णोद्धार में लक्ष्मीनारायण और अन्नपूर्णा मंदिर एक ही अहाता के भीतर आ गया जबकि दोनों मंदिर का दरवाजा आज भी अलग अलग है। लक्ष्मीनारायण मंदिर का दरवाजा पूर्वाभिमुख है जबकि अन्नपूर्णा मंदिर का दरवाजा दक्षिणाभिमुख है। मंदिर परिसर में दक्षिणमुखी हनुमान जी का मंदिर भी है।
राधा-कृष्ण मंदिर:-
मां अन्नपूर्णा मंदिर के पास मरार-पटेल समाज के द्वारा राधा-कृष्ण मंदिर और उससे लगा समाज का धर्मशाला का निर्माण कराया गया है। मंदिर के उपरी भाग में शिवलिंग स्थापित है। इसी प्रकार लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने मथुआ मरार समाज द्वारा राधा-कृष्ण का पूर्वाभिमुख मंदिर बनवाया गया है।
सिंदूरगिरि-जनकपुर:-
मेला मैदान के अंतिम छोर पर साधु-संतों के निवासार्थ एक मंदिर है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहीं आकर नौ दिन विश्राम करते हैं। इसीलिए इसे जनकपुर कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में जिस सिंदूरगिरि का वर्णन मिलता है, वह यही है। इसे ‘‘जोगीडिपा‘‘ भी कहते हैं। क्यों कि यहां ‘‘योगियों‘‘ का वास था। महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार ने यहां पर योगियों के निवासार्थ भवन का निर्माण संवत् 1927 में कराया। स्वामी अर्जुनदास की प्रेरणा से संवत् 1928 में श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने यहां एक हनुमान जी का भव्य मूर्ति का निर्माण कराया। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। काली और हनुमान मंदिर:- शबरी सेतु के पास काली और हनुमान जी का भव्य और आकर्षक मंदिर दर्शनीय है।
शिवरीनारायण मठ:-
नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं। वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस मठ के बारे में सन 1867 में जे. डब्लू. चीजम साहब बहादुर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस मठ की व्यवस्था के लिए माफी गांव हैहयवंशी राजाओं के समय से दी गयी है और इस पर इसके पूर्व और बाद में किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया है। संवत् 1915 में डिप्टी कमिश्नर इलियट साहब ने महंत अर्जुनदास के अनुरोध पर 12 गांव की मालगुजारी मंदिर और मठ के राग भोगादि के लिये प्रदान किया।
जगन्नाथ एवं अन्य मंदिर:-
मठ परिसर में संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार राजसिंह ने एक जगदीश मंदिर बनवाया जिसे उनके पुत्र चंदनसिंह ने पूरा कराया। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के अलावा श्रीराम लक्षमण और जानकी जी की मनमोहक मूर्ति है। परिसर में हनुमान जी और सूर्यदेव की मूर्ति है। सूर्यदेव के मंदिर को संवत् 1944 में रायपुर के श्री छोगमल मोतीचंद्र ने बनवाया। इसीप्रकार हनुमानजी के मंदिर को लवन के श्री सुधाराम ब्राह्मण ने संवत् 1927 में स्वामी जी की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के बाद बनवाया। इसके अलावा महंतों की समाधि है जिसे संवत् 1929 में बनवाया गया है। यहां हमेशा भजन कीर्तन आदि होते रहता है, भारतेन्दुयुगीन साहित्यकार पंडित हीरराराम त्रिपाठी भी गाते हैं:-
चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे।।
शिवरीनारायण का माघी मेला –
नगर के पश्चिम में महंतपारा की अमराई में और उससे लगे मैदान में माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्री तक प्रतिवर्ष मेला लगता है। माघ पूर्णिमा की पूर्व रात्रि में यहां भजन-कीर्तन, रामलीला, गम्मत, और नाच-गाना करके दर्शनार्थियों का मनोरंजन किया जाता है और प्रातः तीन-चार बजे चित्रोत्पलागंगा-महानदी में स्नान करके भगवान शबरीनारायण के दर्शन के लिए लाइन लगायी जाती है। दर्शनार्थियों की लाइन मंदिर से साव घाट तक लगता था। भगवान शबरीनारायण की आरती के बाद मंदिर का द्वार दर्शनार्थियों के लिए खोल दिया जाता है।
इस दिन भगवान शबरीनारायण का दर्शन मोक्षदायी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ इस दिन पुरी से आकर यहां सशरीर विराजते हैं। कदाचित् इसी कारण दूर दूर से लोग यहां चित्रोत्पलागंगा-महानदी में स्नान कर भगवान शबरीनारायण का दर्शन करने आते है। बड़ी मात्रा में लोग जमीन में ‘‘लोट मारते‘‘ यहां आते हैं। मंदिर के आसपास और माखन साव घाट तक ब्राह्मणों द्वारा श्री सत्यनारायण जी की कथा-पूजा कराया जाता था। रमरमिहा लोगों के द्वारा विशेष राम नाम कीर्तन होता था।
शिवरीनारायण में मेला लगने की शुरूवात कब हुई इसकी लिखित में जानकारी नहीं है लेकिन प्राचीन काल से माघी पूर्णिमा को भगवान शबरीनारायण के दर्शन करने हजारों लोग यहां आते थे…और जहां हजारों लोगों की भीढ़ हो वहां चार दुकानें अवश्य लग जाती है, कुछ मनोरंजन के साधन-सिनेमा, सर्कस, झूला, मौत का कुंआ, पुतरी घर आदि आ जाते हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन इसे मेला के रूप में व्यवस्थित रूप महंत गौतमदास जी की प्रेरणा से हुई। मेला को वर्तमान व्यवस्थित रूप प्रदान करने में महंत लालदास जी का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी की मद्द से अमराई में सीमेंट की दुकानें बनवायी और मेला को व्यवस्थित रूप प्रदान कराया।
पंडित रामचंद्र भोगहा ने भी भोगहापारा में सीमेंट की दुकानें बनवायी और मेला को महंतपारा की अमराई से भोगहापारा तक विस्तार कराया। चूंकि यहां का प्रमुख बाजार भोगहापारा में लगता था अतः भोगहा जी को बाजार के कर वसूली का अधिकार अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदान किया गया था। आजादी के बाद मेला की व्यवस्था और कर वसूली का दायित्व जनपद पंचायत जांजगीर को सौंपा गया था। जबसे शिवरीनारायण नगर पंचायत बना है तब से मेले की व्यवस्था और कर वसूली नगर पंचायत करती है। नगर की सेवा समितियों और मठ की ओर से दर्शनार्थियों के रहने, खाने-पीने आदि की निःशुल्क व्यवस्था की जाती है।
आजादी के पूर्व अंग्रेज सरकार द्वारा गजेटियर प्रकाशित कराया गया जिसमें मध्यप्रदेश के जिलों की सम्पूर्ण जानकारी होती थी। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ फ्यूडेटरी इस्टेट प्रकाशित कराया गया जिसमें छत्तीसगढ़ के रियासतों, जमींदारी और दर्शनीय स्थलों की जानकारी थी। आजादी के पश्चात सन 1961 की जनगरणा हुई और मध्यप्रदेश के मेला और मड़ई की जानकारी एकत्रित करके इम्पीरियल गजेटियर के रूप में प्रकाशित किया गया था। इसमें छत्तीसगढ़ के छः जिलों क्रमशः रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, सरगुजा, बस्तर के मेला, मड़ई, पर्व और त्योहारों की जानकारी प्रकाशित की गयी है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण, राजिम और पीथमपुर का मेला 100 वर्ष से अधिक वर्षो से लगने तथा यहां के मेला में एक लाख दर्शनार्थियों के शामिल होने का उल्लेख है।
यहां के मेला में वैवाहिक खरीददारी अधिक होती थी। बर्तन, रजाई-गद्दा, पेटी, सिल-लोढ़ा, झारा, डुवा, कपड़ा आदि की अच्छी खरीददारी की जाती थी। यहां के मेले में किसिम किसिम के घोड़े, गाय और बैल के साथ ही कृषि से सम्बंधित सामान मिलता था। मेला में अकलतरा और शिवरीनारायण के साव स्टोर का मनिहारी दुकान, दुर्ग, धमधा, बलौदाबाजार, चांपा, बहम्नीडीह और रायपुर का बर्तन दुकान, बिलासपुर का रजाई-गद्दे की दुकान, कलकत्ता का पेटी दुकान, चुड़ी-टिकली की दुकानें, सोने-चांदी के जेवरों की दुकानें, नैला के रमाशंकर गुप्ता का होटल और उसके बगल में गुपचुप दुकान, अकलतरा और सक्ती का सिनेमा घर, किसिम किसिम के झूला, मौत का कुंआ, नाटक मंडली, जादू, तथा उड़ीसा का मिट्टी की मूर्तियों की प्रदर्शिनी-पुतरी घर बहुत प्रसिद्ध था। यहां उड़िया संस्कृति को पोषित करने वाला सुस्वादिष्ट उखरा बहुतायत में आज भी बिकने आता है। कदाचित इसीलिए यहां के मेले का अत्याधिक महत्व होता था।
शिवरीनारायण और आस पास के गांवों में मेला के अवसर पर मेहमानों की अपार भीढ़ होती है। इस अवसर पर विशेष रूप से बहू-बेटियों को लिवा लाने की प्रथा है। शाम होते ही घर की महिलाएं झुंड के झुंड खरीददारी के निकल पड़ती हैं। खरीददारी के साथ साथ वे होटलों और चाट दुकानों में अवश्य जाती हैं और सिनेमा देखना नहीं भूलतीं। मेला में वैवाहिक खरीददारी अवश्य होती है। शासन दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए पुलिस थाना, विभिन्न शासकीय प्रदर्शिनी, पीने के पानी की व्यवस्था आदि करती है। लोग चित्रोत्पलागंगा में स्नान कर, भगवान शबरीनारायण का दर्शन करने, श्री सत्यनारायण की कथा-पूजा करवाने और मंदिर में ध्वजा चढ़ाने से लेकर विभिन्न मनोरंजन का लुत्फ उठाने और खरीददारी कर प्रफुल्लित मन से घर वापस लौटते हैं। यानी एक पंथ दो काज… तीर्थ यात्रा के साथ साथ मनोरंजन और खरीददारी। लोग मेले की तैयारी एक माह पूर्व से करते हैं। यहां के मेला के बारे में पंडित शुकलाल पांडेय ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में लिखते हैं:-
पावन मेले यथा चंद्र किरणें, सज्जन उर।
अति पवित्र त्यों क्षेत्र यहां राजिम, शौरिपुर।
शोभित हैं प्रत्यक्ष यहां भगवन्नारायण।
दर्शन कर कामना पूर्ण करते दर्शकगण।
मरे यहां पातकी मनुज भी हो जाते धुव मुक्त हैं।
मुनिगण कहते, युग क्षेत्र ये अतिशय महिमायुक्त हैं।।
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