सनातन धर्म में त्रिदेववाद और पंचायतन पूजा के साथ – साथ अष्टदिक्पालों की उपासना और पूजा पाठ का विशेष महत्व रहा है। दिकपालों को पृथ्वी का संरंक्षक कहा गया है। इन्हें लोकपाल भी कहा जाता है। साधारणतया भूतल और आकाश की दिशाओं को छोड़कर इस पृथ्वी पर आठ दिशाएं मानी गई है। इन्द्र पूर्व का, अग्नि दक्षिण पूर्व का, यम दक्षिण, निऋति दक्षिण पश्चिम, वरूण पश्चिम, वायु उत्तर पश्चिम, कुबेर उत्तर तथा ईशान उत्तर पूर्व का स्वामी माना गया हैं।
कुबेर को छोड़कर सभी दिक्पाल वैदिक देव के श्रेणी में आते है। कुबेर उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं। कुबेर को धनपति, धनद, वैश्रवण, अलकापति आदि अनेक संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। पुलस्य ऋषि का पौत्र व विश्रवा का पुत्र वैश्रवण कुबेर मूलतः राक्षस है। इन्हें शिव कि मित्रता के कारण उत्तर दिशा का आधिपत्य प्राप्त हुआ तथा यक्षों पर अधिकार मिला।
अथर्ववेद में इनके लिए यक्षराज विशेषण का उल्लेख हुआ है। रामायण में वैश्रवण ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं। माहाभारत में उन्हें विश्रवान तथा इढाविद का पुत्र तथा पुलस्य का पौत्र कहा गया है। महाभारत में ऐसा ही प्रसंग प्राप्त होता है कि विश्वकर्मा के द्वारा बनाए गए पुष्पक विमान पर कुबेर चलते हैं। यह विमान पर्यंक, आसन, माला तथा घोड़ों से भूषित रहता है। कुबेर नर वाहन भी है। वे अपने हाथ में कौबेरास्त्र धारण करते हैं।
वराह पुराण में इनके जन्म की कथा के विषय में एक सा कहा गया है। एक बार ब्रह्मा के मुख से पाषाण की वर्षा हुई। वर्षा समाप्त होने पर उन पाषाणों से उन्होंने एक दिव्यपुरूष बनाया और उसे धनपति बनाकर देव का कोष रक्षक नियुक्त कर दिया। कुबेर शब्द का अर्थ निम्न या भोड़ा शरीर वाला है। प्रतिमा-विज्ञान में कुबेर को थुलथुले शरीर वाला, धनपति होने के नाते धन की थैली लिए, एक भरे-पूरे सेठ के रूप में दिखलाने की प्रथा है। रामायण में उनको एकाक्ष भी कहा गया है पर मूर्तियों में उनकी यह विशेषता दिखलाई नहीं पड़ती। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कुबेर की प्रतिमा का प्रासाद में स्थापित करने का उल्लेख है।
पतंजलि के महाभाष्य में भी कुबेर का उल्लेख कई स्थानों में हुआ है। विष्णुपुराण में कुबेर को नृपति कहा गया है जबकि अन्य पुराणों में वे यक्षराज हैं। कालिदास ने राजाओं के राज के रूप में कुबेर का उल्लेख किया है। दक्षराज को शिव का भाई तथा कैलाश पर्वत को कुबेरशाला, कुबेर पर्वत कहा गया है। महाभारत में वैश्रवण को सूर्य के रंग वाला बताया गया है तथा ऋद्धि लक्ष्मी तथा भद्रा का उल्लेख उनकी शक्ति के रूप में किया गया है। बृहत्संहिता में कुबेर किरीट-मुकुट को धारण करने वाले तथा नर वाहन वाले कहे गये हैं।
विष्णुधर्मेत्तरपुराण के अनुसार धनद कुबेर वाहन संयुक्त हैं। उनका रंग पद्मपत्र के समान हैं। मुख में दांत तथा दाढ़ी है, उदीच्य वेश, कवच और हार धारण किए हुए हैं, लम्बोदर तथा चतुर्भुज हैं। उनके हाथों में गदा, शक्ति और रत्नपात्र धारण करने का निर्देश है। उनके पार्श्व में सिंहांकित ध्वजा होनी चाहिए तथा पैर एक ऊॅंची पीठिल पर रखी होनी चाहिए। उनकी निधि थैली, शंख तथा पद्म के आकार की होगी जो शंख और पद्म निधियों के सूचक है। उनकी बायीं गोद में द्विभुजी देवी ऋद्धि होंगी जिनके बाएं हाथ में रत्नपात्र होगा और दाहिने हाथ से कुबेर का आलिंगन कर रही होगी।
मत्स्यपुराण में कुबेर को महाका, महोदर अष्टनिधियों से युक्त, अनेक गुहाओं से आवृत, श्वेत वस्त्रधारी, अलंकरणों से सज्जित तथा नर वाहन पर आसीन बनाने का उल्लेख है। अग्निपुराण में उन्हे गदा धारण किए हुए मेष पर आसीन बताया गया है। वे उत्तर द्वार के रक्षक कहे गये हैं। अग्निपुराण में उन्हे सोम के साथ रखा गया है। सोम का ही आह्वान किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोम उत्तर दिशा के दिक्पाल थे, बाद मे उनके स्थान पर कुबेर की मान्यता बढ़ी। सोम वैदिक देवता हैं और ऋग्वेद का नवांमण्डल सोम की स्तुति से संबंधित है।
गुप्त काल तक कुबेर के लक्षण पूरी तरह से निश्चित हो चुके थे। प्रारंभ में वाहन के रूप में नर का उल्लेख है किन्तु आगे चलकर कुबेर को गजारूढ़ बताया गया है। अपराजितपृच्छा और रूपमण्डन में उनका वाहन गज चित्रित हुआ है और उनको चतुर्भुज बताया गया है। उनके चारों हाथों में गदा, निधि, बीजपूरक और कमण्डलु होने का उल्लेख है। आगमों में द्विभुज या चतुर्भुजी कुबेर को किरीट अथवा करण्ड मुकुट और अन्य अलंकरणों से सज्जित बताया गया है। द्विभुज होने पर एक हाथ मुद्रा में तथा दूसरा हाथ अभय मुद्रा में चित्रित करने का विधान है। चतुर्भुज होने पर कहा गया है कि वे एक हाथ से शक्ति विभवा और दूसरे से शक्ति वृद्धि का आलिंगन कर रहे होंगे। शेष दो हाथों में गदा और शक्ति होगी। अंशुमद्भेदागम् में मेष वाहन तथा पाश्र्वों में शंख तथा पद्म निधियों का उल्लेख है। सुप्रभेदागम में उनको विकराल दर्शन वाला बताया गया है। शिल्परत्न में नरचालित रथ पर आरूढ़ कुबेर को अष्ट निधियों से युक्त बताया है।
छत्तीसगढ़ में भी कुबेर की पूजा का प्रचलन रहा है। जिला पुरातत्व संग्रहालय बिलासपुर में ताला से प्राप्त लगभग चौथी शताब्दी ईस्वीं की एक चतुर्भुजी कुबेर की प्रतिमा स्थित है, जिसके सिर पर जटा तथा बाल कन्धे तक लटकते हुए प्रदर्शित है, गले में माला तथा वक्षहार, कमर में मेखला तथा पैरों के दोनो तरफ मूर्ति खण्डित अवस्था में है। बांयी ओर कमर में बंधी पोटली जो हाथ से पकड़े हुए हैं। केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के स्थल संग्रहालय, मल्हार में लगभग सातवी-आठवी शताब्दी ईस्वीं की कुबेर की प्रतिमा स्थित है। कुबेर की यह प्रतिमा द्विभुजी है। जिनके बाएं हाथ में रत्नपात्र, दाहिने हाथ में बीजपूरक है। सिर पर मुकुट एवं सभी वस्त्राभूषणों से अलंकृत, लम्बोदर कुबेर स्थानक मुद्रा में स्थित है।
सिद्धेश्वर मंदिर पलारी के उत्तरी भित्ति के कर्णरथ में कुबेर का स्पष्ट अंकन मिलता है। यह प्रतिमा द्विभुजी है जिसका दायां हाथ पालथी पर रखा है तथा बाएं हाथ से धन की गठरी पकड़े हुए सुखासन अवस्था में स्थित है। प्रतिमा के माथे पर मुकुट स्थित है। राजीव लोचन मंदिर के महामण्डप पर स्थित अष्टकोणीय स्तंभों पर ऊपर की भाग में गजलक्ष्मी, कुबेर का अंकन हुआ है। धूमनाथ मंदिर, सरगांव, जिला-बिलासपुर के निचली पंक्ति में पश्चिमी भद्ररथ में चतुर्भुजी कुबेर की वरदहस्त, गदा, पुस्तक और कलश धारण किए हुए प्रतिमा प्रदर्शित है। इस मंदिर के उध्र्व पंक्ति में भी उत्तरी भित्ति पर एक और चतुर्भुजी कुबेर का अंकन हुआ है जिसके हाथों क्रमशः वरद मुद्रा में पुस्तक, गदा और कलश स्थित है। यह मंदिर कलचुरि काल में तेरहवीं शताब्दी ईस्वीं के पूर्वार्द्ध में निर्मित किया गया है।
महेशपुर स्थित शिव मंदिर में आठवी-नवमी शताब्दी ईस्वीं की कुबेर की एक प्रतिमा सर्वतोभद्र स्तंभ के एक फलक के शिर्ष भाग में ललितासन मुद्रा में अंकित है। कुबेर के आसन चैकी के नीचे मूषक का अंकन हुआ है। कुबेर की यह प्रतिमा द्विभुजी है, जिसके बाएं हाथ में नकुल तथा दाएं हाथ में धारित वस्तु अस्पष्ट है। इसी तरह बेलसर से आठवी-नवमी शताब्दी ईस्वीं की कुबेर की एक द्विभुजी प्रतिमा, एक प्रस्तर फलक पर आसनस्थ मुद्रा में अवस्थित है। इस प्रतिमा का दाहिना हाथ खण्डित है।
कुबेर कानों में कुण्डल, हार, केयूर, कंकण और उपवित धारण किए हुए प्रदर्शित है। डीपाडीह में स्थल संग्रहालय पर भी नवमी-दसवी शताब्दी ईस्वीं की एक खण्डित अपूर्ण प्रतिमा स्थित है। इस प्रतिमा के पूरे शरीर में छेनी के निशान दिखाई दे रहे हैं जिससे स्पष्ट होता है कि इसे सुघड़ नहीं किया जा सका था। देवता के नाक-नक्श भी सही तरह से नहीं बने है। यह प्रतिमा द्विभुजी है। इस प्रतिमा के दाएं हाथ में धन की पोटली तथा बांया हाथ खण्डित है। कुबेर के उभय पाश्र्व में एक-एक परिचारिका खड़ी हुई प्रदर्शित है।
चन्द्रादित्य मंदिर, बारसूर के जंघा भाग में अष्ट दिकपाल की प्रतिमा उत्कीर्ण हैं। जिसमें एक प्रतिमा चतुर्भुजी कुबेर की भी है। इसी तरह सूर्य मंदिर डीपाडिह से भी द्विभुजी कुबेर की प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा ललितासन मुद्रा में प्रदर्शित है। इस प्रतिमा का दायां हाथ भग्न है और उनके बाएं हाथ मे निधिपात्र स्थित है।
विद्वानों ने इस प्रतिमा का काल दसवी-ग्यारहवी शताब्दी ईस्वीं माना है। इस प्रकार हम कह सकते है कि भारत देश के अन्य क्षेत्रों की तरह ही धन के देवता कुबेर की अराधना दक्षिण कोसल में भी होती रही है। जिसके प्रमाण यहां से प्राप्त होने वाली कुबेर की प्रतिमांए है।
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