बस्तर के जनजातीय समाज में भी अपने बुजुर्गों का सम्मान करने की परम्परा विद्यमान है, यह आदिम संस्कृति का आधारभूत सिद्धान्त है कि गाँव या समाज में सभी बड़ों का उचित तरीके से सम्मान किया जाये, जनजातीय समाज समय-समय पर अपने कार्य व्यवहार से इसे प्रदर्शित भी करता है। घर में, समाज में, जन्म से लेकर मृत्यु तक चाहे कोई भी अवसर हो जनजाति समाज का सदस्य अपने से बड़ों का सम्मान कर अपनी मूल भावना को प्रदर्शित करता है।
भले ही देखने वालों को नहीं लगता कि वह अपने से बड़े का आदर कर रहा है परन्तु यह कार्य उसके द्वारा दिखावे के लिये नहीं बल्कि बड़ों के प्रति उसकी भावना को समाज के समक्ष चिर स्थाई बनाने के लिये किया जाता है। बड़ों से बात करते वक्त उसके सम्बोधन में अपनत्व के साथ आदर का भाव होता है, जैसे किसी बुजुर्ग से उसे पूछना हो कि “कहाँ” तब वो कहेगा “बेके मुदिया”, गोण्डी में कहे गये इस शब्द का अर्थ कहाँ श्रीमान होता है, तब वह भी उसी प्यार एवं अपनत्व से जवाब देता है, “हीकेय नोना” याने इधर ही नोना (नोना छोटे के लिये संम्बोधन है) इसी तरह जब किसी बड़े के विषय में बात की जाती है, तब उसके नाम के साथ या सरनेम के साथ माने शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह भी आदर सूचक सम्बोधन है। दादी या बड़े भी अपने से बड़ों को संबोधित किया जाता है।
बस्तर के जनजातीय समाज की सामाजिक व्यवस्था में कोई छोटा बडा़ नही होता, परन्तु उम्र दराज लोगों का सभी मान-सम्मान करते हैं। सबके कार्य विभाजित होते हैं, जैसे माटी गांयता यह पद गाँव का सबसे सम्मानित पद है, जो देवताओं के एवं सामाजिक कार्य सम्पन्न कराता है। पुजारी ग्राम देवी का सेवादार होता है, ग्राम पटेल अपने गाँव का प्रमुख होता है। इसके अलावा भी लोगों के कार्य बटें हुये होते हैं, जिन्हें पूरी करने की उनकी जवाबदेही होती है। किशोर एवं युवा घोटुल के सदस्य होकर गाँव के सभी कामों को करते हैं, दोना-पत्तल खाना बनाने से लेकर सभी कुछ।
गाँव का यह संगठन गाँव के प्रति जवाबदेह होता है। इन सबके बीच छोटों का कार्य व्यवहार बड़ों के प्रति सम्मानजनक रहता है। आज की प्रशासनिक व्यवस्था में पंच, सरपंच, जनपद सदस्य, जिला पंचायत के सदस्य जो गाँव के नवयुवक होते हैं, वे सामाजिक बैठकों में जब बड़ों से अनुमति लेते हैं तभी अपनी बात रखतें हैं। जनजातीय समाज में एक स्वस्थ्य परम्परा है कि छोटा भी यदि लगातार सामाजिक बैठकों में अच्छे तरीके से अपनी बात रख रहा है, तो उसकी बात को महत्व दिया जाता है। पढे़-लिखे व्यक्ति से सलाह ली जाती है और ऐसे व्यक्ति भी समाज के सम्मानितों के प्रति श्रद्धा रखते है।
जनजातीय परिवार में अपने से बड़ों के पैर छूने की परम्परा उनके संस्कार में होता है और यह उन्हें जन्म से ही घर-परिवार में मिलता हैं। किसी भी शुभ अवसर पर छोटे लोग अपने से बड़ों का पैर छूकर उन्हें सम्मान देतें है। गाँव से कहीं बाहर जाना हो तो बड़ों से पैर छूकर आशीर्वाद लेकर जाते हैं, जिस गाँव में जाते हैं, वहाँ पहुँचने पर पहले उसे पैर धोने के लिये पानी दिया जाता है, पैर धोने के बाद वह अपने सगा-सम्बन्धी का पैर छूकर सम्मान प्रदर्शित करता है, फिर उस घर के छोटे लोग उसका पैर छूकर उसे सम्मानित करते हैं।
सगा घर से विदा लेने के लिये भी यही प्रक्रिया दोहराई जाती है। किसी जगह पर यदि कुछ लोग खड़े होकर वार्तालाप कर रहे होते हैं और वहाँ कोई व्यक्ति पहुँचता है तो वह अपने से बड़ों का पैर छूता है चाहे वह अंजान ही क्यों न हो, उपस्थित व्यक्ति में कोई छोटा हो तो वह उसे जोहार कहेगा और छोटा व्यक्ति उसका पैर छूयेगा, इसके बाद ही उन लोगों के प्रश्नों का उत्तर देता है। आदिवासी समाज का कोई भी सदस्य चाहे घर में हो या घर के बाहर सब जगह बड़ों को सम्मान देता है।
बस्तर के बडे़ गाँवों में सप्ताह में एक दिन हाट-बाजार लगता है और इसमें जनजातीय परिवार अनिवार्य रूप से जाता है। यहाँ उसे उसकी जरूरतों की वस्तुयें तो मिलती ही है साथ ही साथ पाँच-दस कि.मी. में बसे उनके सगा-सम्बन्धियों से भेंट भी हो जाती है। सूचना का आदान प्रदान होता है, दुःख-सुख बाँटते हैं। यह निश्चित नहीं होता कि किस गाँव के सगा से उस दिन मुलाकात होगी परन्तु वह मिलने की तैयारी से जाता है।
सगा विषम गोत्रीय होते हैं सम्बन्धी से उनका रिश्ता भाई का होता है, परन्तु उनके साथ जब भी मेल होता तब दोनों पक्ष अपने से बड़ों का पैर छूते हैं और छोटों को आशीर्वाद देते हैं। फिर अपने साथ लाये शराब को उनके सम्मान में प्रस्तुत करते है। हाट-बाजार में रिश्तेदार महिला-पुरूष एक स्थान पर साथ मिलकर बैठते हैं। अपने साथ लाई शराब को वहाँ उपस्थित सबसे उम्र में छोटी महिला चिपड़ी में परोसती है। बाजार में भी भेंट होने पर एक-दूसरे के पैर छूने की परम्परा है, छोटे को दुलार किया जाता है। इतना ही नहीं यदि गाँव का कोई बुजुर्ग बाजार या अन्य जगह पर नशे की हालत में है, तो उस गाँव के उम्र में छोटे व्यक्तियों द्वारा उसे ससम्मान घर तक छोड़ा जाता है।
बस्तर का जनजातीय समाज सामुदायिक जीवन-यापन करता है, वह अपने व्यक्तिगत कार्यो को भी सबके साथ मिलकर करता है। ऐसे में यदि इस तरह उनके कार्य व्यवहार में नियंत्रण नहीं होगा तो अजीब स्थिति उत्पन्न होगी। गाँव में कोई किसी की बात नहीं मानेगा, सब अपने अपने ढंग से काम करेंगे, इस स्थिति से बचने के लिये इनके पूर्वजों ने ऐसी परम्परा का निर्वहन किया और बाद में दूसरी पीढ़ी को सौंपा, जिसे आज भी आदिम समाज पालन करते आ रहा है।
यदि किसी व्यक्ति के घर में खेत में कोई बड़ा काम होता है, तब वह अपनी रिश्तेदारी में खबर करता है, वहाँ से जवान लोग आकर उस कार्य को करते हैं। गुड़ी या मंदिर से सिरहा पुजारी देवी-देवताओं की सेवा करने के बाद जब बाहर आतें हैं तब वहाँ उपस्थित लोग उनका पैर छूकर उन्हे सम्मान देते हैं।
गाँव के ग्राम पटेल, माटी गांयता या पुजारी लोग गाँव मे किसी के घर यदि अपने व्यक्तिगत काम से भी जातें हैं, तो उन्हें उतना ही आदर दिया जाता है, जैसे वह उनका कार्य करने आया हो। कोई भी गाँव का काम कर रहा होता है, तब उस व्यक्ति की सभी मदद करते हैं। कई अवसरों पर कुछ कार्यों को करके आदिवासी समाज अपने बड़ों के प्रति अपना आदर भाव प्रगट करता है।
आदिम समाज अपने रीति रिवाज परम्परा में इस कदर समाहित हो गया है कि प्रत्येक अवसर पर उसका पालन करने पर गर्व महसूस करता है। उसका सबसे बड़ा त्यौहार नवाखानी (पुनांग तिन्दाना) होता है। जनजातीय समाज किसी भी फल या उपज को पहले अपने देव को अर्पित करता फिर ग्रहण करता है।
नवाखानी में सबसे पहले परगना के देवता को नये धान के चावल से बाल (खीर) बनाकर अर्पण किया जाता है, वहाँ उपस्थित लोग उस बाल का एक-दूसरे को टीका लगाकर पैर पड़ते हैं। इसी तरह गाँव देवती स्थल (जागा रानी) और देव गुड़ी में भी किया जाता है, फिर निर्धारित दिन अपने घर में नवाखाया जाता है, घर की बड़ी विवाहित महिला सबको बाल ( खीर ) परोसती है। इसे खाने के बाद सब छोटे लोग बड़ों का पैर छूकर सम्मान प्रगट करते हैं।
नवाखानी के दूसरे दिन ठाकुर जोहरानी मनाया जाता है। यह आदिम समाज का अपने से बड़ों को या अपने गाँव के सभी बड़ों को सामूहिक रूप से सम्मानित करने की एक अच्छी परम्परा है। इस दिन सभी लोग अपने-अपने घर से माटी गांयता के यहाँ शराब लेकर जाते हैं, यहाँ माटी गांयता के साथ पुजारी और ग्राम पटेल और गाँव के जितने भी बुजुर्ग होते हैं, सबको संयुक्त रूप से शराब भेंट कर सब उनका पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं। उस दिन उत्सव का माहौल होता सभी नाचते हैं, गातें हैं, आनन्द मनाते है। अन्त में सभी बुजुर्ग एक लाईन में खड़े होकर सभी को आशीर्वाद देते हैं “इसी तरह सब हिलमिल कर रहो, खूब उन्नति करो” आदि।
गांयता, पटेल, पुजारी इस सम्मान के हकदार होते हैं क्योंकि वे अपना काम-धाम छोड़कर सारे गाँव का काम करते हैं। वे यह काम किसी लालच में नहीं वरन सम्मान के लिये करते हैं और गाँव वाले उन्हें यह सम्मान देते भी हैं। मान लीजिये किसी के द्वारा किसी कार्य का आयोजन किया गया और दुर्भाग्य से उस दिन इनमें से कोई बड़ा व्यक्ति अनुपस्थित रहा तो आयोजनकर्ता दण्ड का भागी होता है। उसे परगना की बैठक में दण्डित किया जाता है, भले ही वह जानबूझ कर यह कार्य नहीं किया हो। इस तरह के कई उदाहरण हैं।
एक परगना के एक परिवार को देव विवाह करना आवश्यक हो गया था, उसने इसका आयोजन भी किया परन्तु यह आयोजन दशहरा के समय हुआ था और परगने का मांझी सब देवों के साथ जगदलपुर दशहरा में गया था। मांझी अनुपस्थिति में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया, फलस्वरूप आयोजक परिवार को दण्डित किया गया।
जनजातीय समाज में अच्छे काम के लिये प्रोत्साहन और गलत के लिये दण्ड का हमेशा से प्रावधान रहा है। बड़ों को मान देने की नैतिक शिक्षा उसे किसी पाठशाला या कहीं और से नहीं मिलती बल्कि समाज में अपने लोगों को देखकर वह स्वयं सीखता है।
जनजातीय समाज साल भर प्रकृति प्रदत्त उपादानों से एवं अपने श्रम से उपजाये फसल को पहले अपने कुल देवता इष्ट देवता को अर्पित करता है, फिर स्वयं ग्रहण करता है। इसके लिये वह समय-समय पर चाड़ (साड़ का अपभ्रंष रूप) मनाता है, इसमें माटी गांयता और पुजारी की अहम भूमिका होती है। इनके द्वारा ही सभी कार्य सम्पादित किये जाते हैं, जैसे बैठकों का आयोजन करना, ग्राम देवती स्थल (जागारानी) में नेवता सोनी याने अपने ग्राम के सभी देवी-देवता का जागारानी में आह्वान करने के लिये रात को अपने सहयोगी के साथ उसी स्थान पर सोना और दूसरे दिन सारे पूजा विधान को करने का काम उनका होता है।
इस दिन पूजा करने के बाद माटी गांयता का सम्मान करने के लिये गाँंव वाले अपने साथ लाये शराब माटी गांयता को पिलातें हैं। तब स्वभाविक है कि उन्हे अधिक नशा होता है, ऐसी स्थिति हर बार उत्पन्न होती है। तब सारे गाँव के लोग मिलकर गांयता और पुजारी को पूरे सम्मान सहित गाजे-बाजे के साथ कन्धे पर उठाकर उनके घर तक छोड़ने जाते हैं। यह भी उनका सम्मान है। यह अब परम्परा बन गई है।
जनजातीय समाज के अलावा अन्य किसी समाज में ऐसी परम्परा नहीं है कि कोई समारोह आयोजित कर अपने बड़ें का सम्मान इस तरह किया जाता हैं। जनजातीय समाज में ही यह प्रथा प्रचलित है, इसके कई उदाहरण है जिसमें ठाकुर जोहरानी जैसा ही आमा खापनी भी है। अक्षय तृतीया के बाद आमा जोगाया जाता है, जिस दिन गाँव के जागारानी में आम जोगाया जाता है, उसी दिन शाम को नव युवतियाँ गाँव की सभी महिलाओं को आम खाने के लिये आमंत्रित करती हैं। \
यहाँ सब बुजुर्ग महिलायें अपने-अपने घर से शराब लेकर ऐसा कहते हुये आती है “मरका तिन्दाना दायना, अध्धी नेंड दाड़गों पयीस” मतलब आम खाने चलो आधा बाटल शराब लेकर, यहाँ सब युवतियाँ सबको आम कुच्चा परोसती हैं। बुजुर्ग लोग भी आमंत्रित होते हैं। सभी लोग महिलाओं द्वारा लाये हुये शराब को साथ बैठकर पीते हैं, इस आयोजन में गाँव के सभी बुजुर्ग आमंत्रित होते हैं।
इसी तरह एक साल दो साल में घोटुल के लड़के-लड़कियाँ “लयोर जावा” मनाते हैं, इसका अर्थ है नव युवको का पेज। घोटुल के लोग साल भर में अपने कार्यों से जो कमाते हैं, उसमें से कुछ बचाकर रखतें हैं, उससे लयोर जावा मनातें हैं। इसमें गाँव के सभी बुजुर्ग (महिला-पुरूष) के सम्मान में भोज का आयोजन किया जाता है। यह सब आयोजन आदिम समाज को अन्य समाज से पृथक करता है।
बड़े बुजुर्गों को सम्मान देना यह भारतीय परम्परा है, परन्तु इसको आयोजित कर मनाने की परम्परा केवल आदिवासी समाज में ही है। जनजातीय समाज इसे गर्व के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आयोजित कर रहा है, क्योंकि यह आदिम संस्कृति की आत्मा है।
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