खड़िया जाति भारत मे सर्वाधिक उड़ीसा, झारखंड के बाद छत्तीसगढ़ में पाई जाती है। जनगणना के अनुसार छतीसगढ़ में खड़िया 49032 है, जिसमें रायगढ़, फरसाबहार, जशपुर के बाद महासमुन्द जिले में इनकी आबादी अधिक है। बागबाहरा के जंगल क्षेत्र व बसना विकास खण्ड में भी इनकी बसाहट है।
खड़िया जाति के लोग घने जंगलों एवं नदियों की घाटी के समतल भूभाग में रहना पसंद करते हैं, जीविकोपार्जन के लिए जंगल साफ कर कोदो, खेड़ी, उड़द, मड़िया, व धान की फसल बोते हैं, इसके साथ जंगली कन्द – मूल फल-फूल, लासा संग्रहण कर आपने साल भर के खर्च का जुगाड़ करते हैं। किंतु अब आधुनिकता के चलते इनकी खेती बाड़ी करने के तरीके भी बदल रहे हैं।
इनके जीवन मे मिट्टी का बड़ा महत्व है, मिट्टी खोदाई की कला में दक्ष, शिकार करना और बिल के अंदर रहने वाले प्राणियों का शिकार करने में विशेषज्ञता हासिल है। इसलिए इन्हें मटकोडवा के नाम से भी जाना जाता है। इनके समुदाय में जल, जंगल और जमीन को देवता माना जाता है, पेड़ पौधे व वन्य प्राणियों की देव रूप में पूजा करते हैं। खड़िया जाति की जीवनशैली इनको अन्य से अलग पहचान बनाती है।
यहां तीन प्रकार के खड़िया देखने को मिलते हैं। पहला सबर खड़िया या पहाड़ी खड़िया जिन्हें घुमन्तू जीवन पसन्द है ये जंगल झाड़ी में घूमते फिरते अपना जीवन बसर करते हैं। दूसरा डेलकी या ढेलकी खड़िया यह समुदाय खेती किसानी कर जीवन निर्वाह करते है। तीसरे समूह को दूध खड़िया के नाम से जाना जाता है। महासमुन्द जिला में दूसरे समूह के खड़िया निवासरत हैं। खड़िया अपनी पहचान गोत्रों से होती है इनके अलग अलग गोत्र होते हैं जैसे सामाट, साईरन, मुडु , हसड़ा, चरहट, बांगे, तोपनों, मोइली, बरलिहा जैसे गोत्र हैं।
खड़िया मान्यताएँ
खड़िया जनजाति का जन जीवन दर्शन सरल तथा धर्म प्रकृति से जुड़े रहना है। मूल स्रोत सूर्य और चांद है, सूर्य की शक्ति को पोनो मोसोर कहा जाता है, चांद को सूर्य की पत्नी बेडोडय के रूप में पूजा जाता है।
खड़िया दर्शन
खड़िया कर्म फल के ऊपर विश्वास नही करते अपितू पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं, मान्यता है कि दूसरे जन्म में भी उसी घर मे जन्म लेकर अपने पूर्वजों का कर्ज अदा करेंगे ऐसी दृढ़ आस्था रखते हैं। खड़िया दूसरे धर्म को स्वीकार नही करते मान्यता है कि मनुष्य के अंदर दो शक्ति प्राण और छाया। प्राण अर्थात जेल चइन एवं छाया अर्थात मनुष्य का प्राण जब तक शरीर मे है तब तक जिंदा है, प्राण के रहते नाड़ी, सांस चलते रहता है प्राण के छूटते सब मिट्टी हो जाता है।
खड़िया विवाह संस्कार
खड़िया के पारम्परिक विवाह रीतिरिवाज में क्रय विवाह को अपनाया जाता है। कन्या के माता पिता को कन्या के बदले में रूपिया दे कर कन्या को बेटा बहु के रूप में अपने घर लाया जाता जाता है। इस समाज में सब मिलकर मांडणा बना कर उत्सव मनाने की परम्परा है, अपने घर के आंगन में मड़वा बनाकर कोई भी शुभ कार्य करते हैं।
खड़िया विद्यारंभ
पढ़ाई लिखाई के लिए शुभ मुहूर्त में गुरु के प्रतीक नारियल की स्थापना कर दवात कलम, खड़िया पट्टी की पूजा बच्चों से कराकर पढ़ाई प्रारंभ की जाती है।
खड़िया चित्रकारी
इनके जीवन मे चित्रकारी और उनकी विविधता देखते बनती है, जो उनकी संस्कृति की देन है। अपने घरों की दीवार पर देशी रंग जैसे सेंदुर, हरताल, नीला लपिसलाजुली, काला केरवस (कोयला), चाक, गेरू, सफेद व पीली छूही (मिट्टी), पत्ते के रस से हरा रंग से चित्रकारी करने में पारंगत होते हैं।
खड़िया तीज-त्योहार
खड़िया जनजाति का प्रमुख त्योहार सरहुल जिसे जंकोर भी कहा जाता है, दिमतड़ पूजा या गौशाला कोठा पूजा, बीड़ या धान बनी याने धान बोआई, बंधाई, पूजमन, माघे परब, माघ महीने में मनाया जाने वाला पर्व है, इसे झंडा पूजा भी कहते हैं, इस त्योहार को साल फूल गिरने से पहले मनाया जाता है।
त्योहार में कृषि कार्य करने वाले कमिहा की सेवा और आने वाले वर्ष में और काम करने के न्योता के रूप में मनाया जाता है याने काम करने वाले के लिए मान मनुअल करने का दिन होता है इस दिन काम करने वाले को साल भर के लिए एकमुश्त काम की गारन्टी का अनुबंध होता है, अनुबंध के पश्चात कामगार के शरीर मे तेल लगाकर महुआ रस व विविध भोजन भर पेट खिलाकर किसानी के औजार नागर, रापा, कुदारी, बसूला, बींधना झउहाँ, भेंट देकर किसानी का सांगा (जिम्मेदारी) दी जाती है।
नवान्न ग्रहण पर्व (नवाखाई)
जंकोर, सरहुल के नाम से जाना जाता है, हर वर्ष चैत्र माह की तीज चांद दर्शन के बाद पूर्णिमा तक अपने सहूलियत के हिसाब से मनाया जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में कम से कम पांच साल के पेड़ में धरती माता का स्मरण करते हुए तीन दिन पूजा के पश्चात चौथे दिन सरहुल याने साल के फूल अर्पित कर रबी फसल की उपज से प्राप्त अन्न का प्रसाद चढ़ाया कर सामूहिक भोज करते हैं। जिन्हें नवा पानी या नवाखाई या जेओ डेमा कहा जाता है जो इनका बड़ा त्योहार होता है। खड़िया संस्कृति प्रकृति के साथ साथ ज्ञान विज्ञान और आध्यात्म के अद्भुत है।
भारत में इनकी संख्या कम होती जा रही है, वनवासी होने के चलते जो विकास होनी चाहिए उसका लाभ नही मिल पाया विडम्बना यह भी है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में खड़िया समुदाय को जनजाति की अनुसूची में शामिल नही किया गया जिसके चलते उन्हें जाति प्रमाण पत्र के लिए लड़ना पड़ रहा है, कुछ पढ़े लिखे खड़िया अपने आप को गोंड़ की श्रेणी में रखकर जाति प्रमाण पत्र हासिल कर रहें हैं, महासमुंद जिले के बागबाहरा विकास खण्ड के सघन वनों में व बसना विकास खण्ड में जीवन निर्वाह कर रहे हैं।
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