कबीर पंथ के चौदहवे आचार्य पंथश्री गृन्धमुनिनाम साहब ने अपने ग्रंथ ‘सद्गुरु कबीर ज्ञान पयोनिधि’ की प्रस्तावना में लिखा है,- “संसार के लोग राख के ढेर पर ही पैर रखकर चलते हैं- जलती आग पर नहीं। किन्तु जो इसके ठीक विपरीत होते हैं, आग पर चलकर अग्नि परीक्षा देते हैं उन्हें ही महापुरुष की उपाधि उपलब्ध होती है। वे ही युग प्रवर्तक होते हैं जो मानव समाज को मानवता के सही मार्ग पर चलने के लिए बाध्य कर देते हैं।… सद्गुरु कबीर साहब ऐसे ही लोकनायक थे जिन्होंने अपने युग का प्रवर्तन किया था। उनके युग में प्रकृति के आधार-भूत नियम, सुसंगति, एकता, मानव और भ्रातृभाव के प्रति सहृदयता आदि मानवीय सद्गुणों को पैरों तले रौंद दिया गया था जिससे अस्त-व्यस्तता, पारस्परिक विद्वेष और युद्ध की प्रचंड ज्वाला धधक उठी थी। इस प्रज्ज्वलित आग में साहस-पूर्वक कूदकर उसे शान्त कर देने का कार्य सद्गुरु कबीर साहब ने ही किया था।”
इसी तरह हिन्दी महान साहित्यकार पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने ग्रंथ ‘कबीर’ में लिखते हैं, – “ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्त-मौला; स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़; भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड; दिल के साफ, दिमाग से दुरुस्त; भीतर से कोमल, बाहर से कठोर; जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे अनुभव के आधार पर कहते थे, इसलिए उनकी उक्तियाँ बेधनेवाली और व्यंग्य चोट करनेवाले होते थे।“
उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में सद्गुरु कबीर साहब के प्रखर व्यक्तित्व और जीवन-कार्यों का सार दिखाई देता है। श्रद्धालु-गण संत कबीर को ‘सदगुरु’ कहकर उन्हें बंदगी करते हैं, साहित्यकार उन्हें ‘भक्तकवि’ कहते हैं और समाजसेवी उन्हें ‘समाज सुधारक’ के रूप में स्मरण करते हैं।
हिन्दी साहित्य ग्रंथों में साहित्यकारों ने सद्गुरु कबीर साहब इस धरा पर आगमन के विषय में अनेक बातें कही गई हैं। कई स्थानों पर लिखा गया है कि संत कबीर का जन्म विधवा ब्राम्हणी के गर्भ से हुआ तथा लोक-लाज के डर से उन्होंने उसे एक तालाब के किनारे छोड़ दिया जिसे नीरू-नीमा नामक मुस्लिम जुलाहे अपने घर ले गए। जबकि कबीरपंथ के साहित्य-ग्रंथों के अनुसार, “विक्रम संवत् 1455 ज्येष्ठ पूर्णिमा, दिन सोमवार को काशी नगरी के लहरतारा क्षेत्र में लहर तालाब के किनारे स्वामी रामानन्द के शिष्य अष्टानन्द ध्यान-साधना में निमग्न थे।
तभी एक दिव्य प्रकाश के रूप में आकाश मार्ग से होता हुआ एक तेज पुंज लहर तालाब के एक पूर्ण विकसित श्वेत कमल पर आकर स्थिर हो गया। तब चारों दिशाओं में एक अद्भुत प्रकाश छा गया। इस प्रकाश की ओर स्वामी अष्टानन्द का ध्यान खींच जाता है। देखते ही देखते यह प्रकाश पुंज एक बालक की आकृति में रूपांतरित हो जाता है। यह देखकर स्वामी अष्टानन्द को बड़ा आश्चर्य होता है और वह अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए दौड़कर अपने गुरु रामानन्द स्वामी के पास जाते हैं।
उसी समय नीरू बाबा अपनी पत्नी नीमा का गौना कराकर इसी रास्ते से गुजरते हैं। माता नीमा अपनी प्यास बुझाने लहर तालाब के किनारे पहुंचती हैं, सहसा उनकी दृष्टि कमल पुष्प पर अटखेलियां करते बालक पर जा टिकती है और अविलम्ब तालाब में उतरकर बालक को अपने हाथों में उठा लेती हैं, हृदय से लगा लेती हैं। नीरू बाबा भी पहली दृष्टि में आकृष्ट होते हैं लेकिन लोक-लाज के भय से बालक को वहीं छोड़ देने की बात नीमा से कहते हैं। तब आकाशवाणी होती है कि हे नीरू बाबा, मुझे अपने साथ घर ले चलो, मैं आपके और जगत के उद्धार के लिए प्रगट हुआ हूं। और इस प्रकार निर्भय होकर नीरू बाबा और नीमा माता उन्हें अपने साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लेकर जाते हैं।” इस सम्बन्ध में यह साखी प्रसिद्ध है :-
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी तिथि प्रगट भए।।
तथा
गगन मंडल से उतरे, सद्गुरु पुरुष कबीर।
जलज मांहि पौढ़न कियो, दोऊ दिनन के पीर।।
सद्गुरु के भारतवर्ष में आगमन के विषय पर कुछ कहने या मानने से पूर्व, हमें सद्गुरु कबीर साहब की वाणियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिसमें उन्होंने स्वयं इस धरा पर अपने आगमन का वृत्तान्त बताया है। सद्गुरु ने अपने प्रधान शिष्य धर्मदास साहब को अपने सम्बन्ध में यह कहा है :-
अब हम अविगत से चलि आये, मेरो भेद मरम न पाये।
ना हम जन्मे गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाये।
काशी शहर जलहि बीच डेरा, तहां जुलाहा पाये।
हते विदेह देह धरि आये, काया कबीर कहाये।
बंश हेत हंसन के कारन, रामानन्द सामुझाये।
ना मोरे गगन धाम कछु नाही, दीसत अगम अपारा।
शब्द स्वरूपी नाम साहब का, सोई नाम हमारा।
ना हमरे घर मात पिता है, नाहि हमरे घर दासी।
जात जोलाहा नाम धराये, जगत कराये हांसी।
ना मोरे हाड़ चाम ना लोहू, हौं सतनाम उपासी।
तारन तरन अभय पद दाता, कहैं कबीर अविनाशी।।
सद्गुरु कबीर साहब ने अपने प्रगट होने का कारण भी बताया है। उन्होंने कहा है :-
अमर लोक से हम चले आये, आये जगत मंझारा हो।
सही छाप परवाना लाये समरथ के , कड़िहारा हो।
जीव दुखित देखत भवसागर, ता कारण पगु धारा हो।
वंश ब्यालिश थाना रोपे, जम्बू दीप मंझारा हो।।
इससे स्पष्ट होता है कि सद्गुरु कबीर साहब भवसागर में जीव को दुःखी देखकर उनके उद्धार के लिए इस धरा पर आए थे। हम जानते हैं कि सद्गुरु के कालखंड में भारत में मुगलों का शासन था और हिन्दुओं पर भारी अत्याचार हो रहा था। वहीं हिन्दू जीवन-पद्धति में कर्मकांड चरम पर था तथा धर्म के नाम पर सामान्य जनता डरा-धमका कर उन्हें पाखंडियों द्वारा लूटा जा रहा था। साथ ही विभिन्न-स्तरों पर हिन्दू-मुस्लिमों के बीच भारी कटुता थी। सद्गुरु कबीर साहब ने एक ओर हिन्दू तथा मुस्लिम समुदाय को आपसी कटुता को समाप्त करने के लिए भारी प्रयत्न किये, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भक्तिभाव की ऐसी धारा प्रवाहित की कि जिसमें आज भी भक्त-प्रेमी डुबकी लगा रहे हैं।
चार दाग से सतगुरु न्यारा – जो सद्गुरु होते हैं वे चार दाग से मुक्त होते हैं। संत मलूक दास ने सद्गुरु कबीर साहब का वर्णन करते हुए अपने पद में कहा है,
“चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर।
दास मलुक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर।।”
दाग का अर्थ धब्बा नहीं है, वरन दाग का अर्थ है अग्नि। ये चार दाग हैं – गर्भाग्नि, कामाग्नि, जठराग्नि तथा चिताग्नि। सद्गुरु कबीर साहब इन चारों अग्नि से मुक्त थे, वे किसी के गर्भ से नहीं जन्में थे, वे काम-वासना से पूर्णतः मुक्त थे, उन्हें भूख नहीं सताता था और जब वे इस संसार से गए तब भी उनका पार्थिव देह नहीं मिला। भक्तों ने देखा कि श्वेत चादर के नीचे पुष्प ही रखे हैं। आधे पुष्प हिन्दू उठा ले गए और उन्होंने उसे स्थापित कर वहां उनकी समाधि बना दी। जबकि आधे पुष्प मुस्लिम ले गए और उसे दफनाकर मकबरा बना दिया। उल्लेखनीय है कि सद्गुरु कबीर साहब संसार के एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं जो एक हैं तथापि उनकी दो स्मृति स्थली है – एक उनकी समाधि और दूसरा मजार- एक ही स्थान मगहर (उत्तर प्रदेश) में अलग-अलग बना है।
कबीर वाणी
कबीर साहित्य का हम अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि सद्गुरु की वाणी में पूर्ण प्रामाणिकता दिखाई देती है। कबीर साहब के दोहे को ‘साखी’ कहा जाता है। साखी का अर्थ है – साक्षी। पढ़ी-लिखी या सुनी-सुनाई बात को सद्गुरु नहीं कहते, वे ‘आंखन देखी’ बात कहते हैं वह भी पूर्ण प्रामाणिकता के साथ। सद्गुरु कहते हैं –
साखी आंखी ज्ञान की, समुझ देख मन मांहि।
बिन साखी संसार की, झगड़ा छूटत नांहि।।
साहब की वाणी में अद्भुत शक्ति है। उनके शब्द बहुत सी सरल, सुबोध और मर्मस्पर्शी हैं जो पाठक अथवा श्रोताओं के हृदय में सीधे प्रवेश करते हैं। आज भारत ही नहीं विश्व के कोने-कोने में सद्गुरु के पद बड़े आनंद से गाये जाते हैं। अपनी बात को प्रमाणित करने अथवा स्पष्टता से समझाने के लिए अनगिनत लोग संत कबीर की साखी का आधार लेते हैं। यह सद्गुरु की वाणी के प्रति लोगों की श्रद्धा और प्रेम ही है जिसका प्रभाव आज भी सर्वत्र देखने को मिलता है।
बहुत धनी व्यक्ति जब अभावग्रस्त मनुष्य की पीड़ा देखकर भी उसे अनदेखा कर देता है और बड़े-बड़े मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें करता है। तब साहब की यह साखी तुरन्त जनसामान्य के मन में आ जाती है :-
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
वहीं सद्गुरु निंदकों को अपने पास रखने की बात करते हैं जिससे कि हम अपनी गलतियों को सुधार सकें।
निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
सद्गुरु कबीर साहब अपने मन को सदैव निर्मल बनाए रखने की, पवित्र रखने की बात करते हैं। पवित्र हृदयवाले भक्त के पीछे-पीछे तो स्वयं परमात्मा घूमते रहते हैं।
कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
ताके पीछे हरि फिरे, कहत कबीर कबीर।।
सद्गुरु की भावाभिव्यक्ति अद्भुत है। वे कहते हैं :-
साजन नैनन में बसो, पलक ढांक तोहे लूं।
ना मैं देखूं और को, ना तोहे देखन दूं।।
वे अपनी बातें दो टूक कहते हैं, एकदम स्पष्ट, सीधे हृदय में उतरता है।
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जात बरन कुल खोय।।
तथा
काम बिगाड़े भक्ति को, क्रोध बिगाड़े ज्ञान।
लोभ बिगाड़े त्याग को, मोह बिगाड़े ध्यान।।
कबीर साहब सदैव विनम्र रहने तथा अहंकार मुक्त रहने की बात करते हैं। वे कहते हैं :-
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
तथा
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचे होइ सो भरि पिये, ऊँचा प्यासा जाय।।
सद्गुरु कबीर साहब की वाणी में ‘मनुष्य निर्माण’ के अनगिनत सूत्र हैं। गुरुभक्ति, ईश्वर प्राप्ति, प्रेम और भक्ति के सूत्र, सामाजिक समरसता, धार्मिक सद्भाव, पाखंड का कड़े शब्दों में विरोध आदि विविध विषयों का समागम साहब की सखियों, रमैनियों तथा पदों में दिखाई देते हैं। वे कहते हैं :-
सब काहू का लीजिए, सांचा शब्द विचार।
पक्ष विपक्ष न मानहूं, कहे कबीर विचार।।
वे प्रेम की महिमा का बखान करते हैं और कहते हैं :-
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, शीश देई ले जाय।।
कबीर साहब के पदों के अन्त में प्रायः ‘कहत कबीर सुनो भाई साधो’ होता है। साधो का अर्थ साधु नहीं है। वे जन सामान्य को बड़े प्रेम से ‘भाई’ कहते हैं और आह्वान करते हैं कि मैं जो कह रहा हूं उसे अपने आचरण में उतारो। साधो अर्थात साधना करो। अतः कहने और सुनने में सद्गुरु की वाणी बहुत सरल, सहज और स्पष्ट अवश्य लगती है पर उनकी वाणी के अनुसार चलना अथवा साधना करना बड़ा कठिन है। इसलिए वे कहते हैं :-
सांचा शब्द कबीर का, सुनकर लागे आग।
अज्ञानी तो जल मरे, ज्ञानी जावे जाग।।
ऐसे अनगिनत साखी, शबद, रमैनी व पदों से भरपूर सद्गुरु कबीर साहब की वाणियों पर विचार कर यदि हम उसे अपने आचरण में उतारते हैं तो निश्चित रूप से हम अपने को और अपने समाज को आदर्श के रूप में गढ़ सकते हैं।
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