बस्तर का आदिवासी समुदाय देवी देवताओं की मान्यतानुसार कार्य करता है, वर्ष में इन देवी देवताओं की आराधना करने के लिए जातरा पर्व का आयोजन विभिन्न परगनों में होता है। एक परगना में परगना में चालिस पचास गांवों का समूह होता है, जो अपने आराध्य देवी-देवता को प्रशन्न करने के लिए नियत तिथि पर देव स्थान पर एकत्रित होते हैं। ऐसा ही बीरनपाल का जातरा पर्व है।
बीरनपाल में कचरापारी परगना (40 से 50 ग्राम) की प्रमुख आराध्य देवी झारगयाइन (काली कंकालिन) का निवास है। इस देवी का सम्बंध बस्तर के राज परिवार से है, और मान्यता है कि यह बस्तर की आराध्य देवी “दंतेश्वरी” के साथ वारंगल (ओंरगाल) से यहां आयी थी। मान्यता है कि ‘झारगाइन’ की उत्पत्ति ‘दुर्गा’ और ‘रक्तबीज’ संग्राम के समय हुई।
हिन्दू पौराणिक कथाओं में, रक्तबीज एक असुर था जिसने दैत्यराज शुम्भ-निशुम्भ के साथ मिलकर देवी दुर्गा के साथ युद्ध किया। धार्मिक मान्यता के अनुसार वह एक ऐसा दानव था जिसे शिव से यह वरदान था कि जब जब उसके लहू की बूंद इस धरती पर गिरेगी तब तब हर बूंद से एक नया रक्तबीज जन्म ले लेगा जो बल , शरीर और रूप से मुख्य रक्तबीज के समान ही होगा।
तब दुर्गा देवी ने काली का अवतार लेकर रक्तबीज की गर्दन काटकर उसे खप्पर में रख लिया और उसके लहू को निरंतर पीती रहीं। जो भी असुर रक्तबीज के रक्त से उनकी जिह्वा पर पैदा होता, उसे वे खा जातीं। इस प्रकार रक्तबीज का अंत हुआ।
ग्रामीण मान्यताओं के अनुसार इसमें थोड़ा अंतर है। चूंकि रक्तबीज का रक्त ज़मीन पर गिरता तब कई रक्तबीज पुनः पैदा हो जाते, तब दुर्गा इसके निदान हेतु रक्तपान करने वाली देवी काली के रुप में आई। बस्तर में इस देवी को पंगनिन भी कहा जाता है।
लोककथा है कि एक बार भैरमगढ़ (दक्षिण बस्तर) के देव ‘पाटभैरम’ किसी कार्य से बड़े डोंगर गए। वहाँ एक अति सुंदर देवी ‘झारगाइन’ अपनी सहेली ‘कोटगुड़िन’ के साथ आई हुई थी। मंत्रमुग्ध ‘पाटभैरम’ ने अपने पुत्र ‘जानाभैरम’ का विवाह इससे कर दिया। ‘झारगाइन’ और ‘जानाभैरम’ के मेल से ‘भैरम’ का जन्म हुआ।
समय बीतने पर ‘झारगाइन’ ने अपने पुत्र का विवाह कचरापारी परगना की अनेक सुंदर देवियों से किया पर अपने पंगनिन स्वभाव के अनुरूप अपनी बहुओं की हत्या कर वह रक्तपान किया करती थी।
इस बार ‘झारगाइन’ ने अपने पुत्र का विवाह एक अन्य सुंदर देवी ‘कनकदई’ से किया जो वारंगल मूल की शक्तिशाली देवी ‘भैरीडोकरी'(सुन्दरदाई) और ‘डोला देव’ की कन्या थी। ‘भैरीडोकरी’ का निवास स्थान सिड़मुड़ ग्राम था। चूंकि ‘भैरीडोकरी” की शक्ति भी ‘झारगाइन’ के शक्ति के बराबर थी, इस कारण ‘कनकदई’ के प्राण बच गए।
यह भी मान्यता है कि ‘झारगाइन’ ने एक कन्या को भी जन्म दिया, जिसका नाम ‘दुलारदाई’ था बाद में उसकी हत्या करने के उद्देश्य से पुसपाल के जंगल मे गाड़ आयी। वहाँ से गुज़र रही ‘खड्गधारी हिंगलाजिन देवी’ ने इसे देखा और इसे निकाल कर पाला पोसा और ‘भेरीडोकरी’ के पुत्र ‘सोनकुंवर’ से विवाह करा दिया।
‘झारगाइन’ देवी स्वभाव में रक्त पिपासु होने के बाद भी अपने मानने वालों की हर मनोकामना को पूर्ण करती है ऐसा ग्रामीणों की मान्यता है। जतरा में जब देवी देवताओं का जमावड़ा होता है तब ‘झारगाइन’ को सबसे पहले बिदाई दी जाती है। यही कारण है कि वर्ष में एक बार इस देवी का जतरा मनाया जाता है
जहां इसके मानने वाले एक तोरण और धागे से बने यंत्र बना कर, अपनी आस्था और विश्वास के अनुरूप अन्य सामग्री ग्राम के पुजारी द्वारा निर्मित डोली में दान करते हैं। पुजारी द्वारा डोली में अर्पित तोरण और यंत्र को चौराहों और रास्तों के दोनों ओर गाड़ते हुए बीरनपाल स्थित ‘झारगाइन’ देवी के मंदिर (गुड़ी) तक पहुंचते हैं।
यहां डोली को विसर्जित कर दिया जाता, परगना के अधिकांश ग्रामीण देवी के समक्ष दिए वचन के अनुरुप काला बकरा, काला मुर्गा या काली बदक की बलि चढ़ा कर उसका आशीर्वाद लेते हैं तथा सुख समृद्धि की कामना करते हैं, अच्छी फ़सल का आशीष लेते हैं।
विभिन्न पुजारियों से चर्चा करने से यह बात सिद्ध हुई कि अधिकांश देवियाँ वारंगल की ही थीं, जो स्थानीय देवगण के साथ विवाह कर यहीं रच बस गईं।
नोट – (उक्त समस्त घटनाओं को ग्राम बीरनपाल, नानगुर,कवाली,सिडमुड़,पुसपाल के बुजुर्गों, सिरहा,गुनिया,पुजारियों द्वारा प्राप्त जानकारियों के आधार पर लिखा गया है, यदि किसी भी व्यक्ति/समूह/सम्प्रदाय को किसी घटना पर शंका हो तो आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराएं ताकि तथ्यों को संकलित किया जा सके)।
लेखक बस्तर की संस्कृति के जानकार हैं।
आलेख एवं छायाचित्र