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साहित्यलोक में व्याप्त वसंत : विशेष आलेख

वसंत ॠतु आई है, वसंत ॠतु के आगमन की प्रतीक्षा हर कोई करता है। नये पल्लव लिए वन, प्रकृति, मानव अपने पलक पांवड़े बिछाए उसका स्वागत करते दिखते हैं। भास्कर की किरणें उत्तरायण हो जाती हैं और दक्षिण दिशा से मलयाचल वायु प्रवाहित हो उठती है। वसुंधरा हरे परिधान धारण करती है, तो उसके शृंगार के लिए अमलतास सोने की आभा देते हैं। वहीं उसके भाल पर रक्तिम पलाश की लाली सज जाती है। जूही, चमेली, चम्पा और रातरानी पूरे वातावरण में सुगंध बगरा देते हैं। हर ओर मस्ती और उल्लास के स्वर उभरने लगते हैं।

प्रकृति का नयनाभिराम स्वरुप वसंत में देखते बनता है, वसंती बयार से पूरे वातावरण में अजीब सी मादकता व्याप्त हो उठती है। ॠतुराज वसंत इसीलिए ही इसे कहा जाता है। प्रकृति और सौंदर्य के प्रतिरुप श्री कृष्ण ने श्रीमद भागवत गीता में अपने को “ॠतुनां कुसमाकर” इसीलिए ही कहा है। वसंत तो कामदेव को आहुत करता है जिसके कण कण में मादकता उदीप्त होती है। जगत का सृजन और उसे प्रेरित करता काम तब प्रखर पर हो उठता है।

कूल कलरव और थिरकने के साथ वसंत राज जब पदार्पण करता है, जब चाराचर प्रकृति के साथ जनजीवन भी उल्लासित हो उठता है। ऐसे सौंदर्य को प्रकृति अपना सुर देती है। तो कविगण उसे शब्द देते हैं। अनुपम छटा को निहारते कवियों वसंत की प्रशस्ति गाई है, पूरे विश्व में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ के कवियों की पंक्तियों में ॠतुराज नहीं है। वसंती बयार के साथ कण कण उद्वेलित हो उठता है। कोयल कूक उठती है, मानो वसंत के आने का संदेश दे रही हो।

कवि भूषण कोयल की कूक के साथ विरह वेदना से व्यथित हो प्रेमी के आतुर मन की दशा को चित्रित करते हुए प्रियतम को संदेश देने की बात कुछ ऐसे कहते हैं –
विषम विडारिभ को बहत समीर मंद
कोयल की कूक कान कानन सुनाई है
इतनो संदेशो है जू पथिक तिहारे हाथ
कहो जाए कंत सो वसंत ॠतु आई है।

कोकिला का स्वर वियोगी हृदय में वेदना को तीव्र कर देता है, प्रिय का वियोग जीवन का विषाद उसकी सारी सरसता का अपहरण कर लेता है। वसंत उसे उतप्त कर देता है। करवी भी पुकार उठती है, कवि सुमित्रा नंदन पंत ने पक्षियों के स्वरों को अपनी काव्य पंक्तियों में ऐसा कहा है –
काली कोकिला सुलगा उर में
स्वरमयी वेदना का अंगार
आया वसंत घोषित दिगंत
करवी भर परक की पुकार

वसंत का नयनाभिराम स्वरुप वृक्ष लताओं में दिख पड़ता है। नवीन कोपलों के साथ पुष्पित वृक्ष सज उठते हैं, इन्हीं के साथ-साथ पक्षी अपनी अपनी बोली में राग वसंत गा उठते हैं। संत कवि तुलसीदास भी वसंत वर्णन में पीछे नहीं है। वसंत का स्वागत गान चातक, कोयल और चकोर की मधुर धुन के साथ वर्णन को चैतन्यता प्रदान करते कहते हैं –
लागे विटप मनोहर नाना
वरन वरन कर बोली बिताना
नव पल्लव फ़ल सुमन सुहाए
निज संपत्ति सुर रुप सजाए
चातक, कोकिला, कौर, चकोरा
कुंजन विहंग नरत कलमोरा

विरह कि व्यथा वसंत में बढ़ जाती है, जब वन उपवन की सुंदरता में कामदेव उतर आता है, मधुर पवन विरह की व्यथा को बढ़ा देता है। जिन्हें देख कोयल मस्त हो कूकने लगती है और गुंजारित कर वातावरण को उद्दीप्त कर देते हैं ऐसे में विरहणी की अनुभूति को कवि देव ने अपनी पंक्तियों में कहा है-
काम कमान ते बात उतारी है
देव नहीं मधु माधव रे है
कोकिल हूँ कल कोमल बोलत
बोली के आप अलोभ कहे हैं
माही महा दुख दे सजनी रजनी
कर और रजनी घटी जे हैं
प्राण पियारी तो ऐ हैं धरे पर
प्राण पयान के फ़ेरिन ऐं हैं।

कवि बिहारी के दोहे यों ही तीर सा वार करते हैं, हृदय में गहरी चोट करते हैं। फ़ूलों का परागण लिए पवन का झकोरा मधुर मदमाती गंध लिए फ़ैलता है। हर ओर तब भवरों का गुंजन और पराग कणों को अपने में समेट लेने को आतुर अंधा सा रहता है। कवि बिहारी का दोहा गुदगुदा जाता है।
छकि रसाल सौरभ सने मधुर माधवी गंध
ठौर ठौर झूमत झमत भौर भौर मधु अंध

ॠतुओं में वसंत का गुणगान किए बगैर हर काव्य अधूरा है। वसंत की निराली छटा प्रकृति सुंदरतम छटा देख कवि मन से स्वमेव शब्द फ़ूट पड़ता है, काव्य निर्झरणी बांसुरी की तान छेड़ देती है। कोयल और भंवरों का स्वर शब्द बन जाता है। इन्हीं भावों का संयोग और वर्णन के कवि सूरदास ने किया है –
कोकिल बोली बन बन फ़ूल
सुनि भयो भोर टोर बंदिन को
मदन महिपति आंगे

सर्वत्र कोयल की कुहू कुहू की ध्वनि मन को मुग्ध कर देती है। कवि केशव उत्प्रेक्षा करते हैं कि कामदेव रुपी महाराज की वीरता और विजय को बताने के लिए उनका सेनापति (भट्ट) वसंत कोकिलों के गुंजन से शोर मचाता जगत में प्रविष्ट हुआ है। वसंत के भट्ट इन पंक्तियों में यही संदेश देते हैं –
अह कोईल-कुल-रव-मुहूल
भुवणि वसंतु पइटठू
भट्टभव मयणा-महा निवह
पयंडिअविजय भरट्ट

काव्य की निर्झरणी हर ओर प्रवाहित हुई है, संस्कृत कवियों से लेकर हिन्दी के महान कवियों तक अविराम चली है। काव्यमयी शब्द तो मन से निकलते हैं, वे शब्द किसी परिधि से सिमट कर नहीं रहते, जिन शब्दों में जन-जन का धर्म और आध्यात्म समाया रहता है। अविकल निर्झर काव्यमयी पंक्तियाँ हर किसी का मन मोह लेती हैं।

प्रकृति और पशु-पक्षी भी उसी लीक पर चलते हैं, इसीलिए ही व्याकरण की दृष्टि से परिपूर्ण दोहा, चौपाई और गीत हो उनमें प्रकृति और पक्षियों का समावेश कवियों ने किया है तो बोलियों में उन्हीं भावों के साथ उन्हें पिरोया है। अनजान गीतकारों ने लोकगीतों में वसंत और विरह का वर्णन इतना सुंदर किया है, जिसे हम बरबस गुनगुना उठेंगे। यह कि गहरे पैठ लगाना जरुरी है।

विरह की मार्मिक अभिव्यंजना कवि कालीदास एक मेघदूत में मिलती है जहाँ यक्ष बादलों को अपना संदेश वाहक बनाता है। प्रकृति और मानव के बीच का सहसंबंध यहां जीवंत होता है। अवधि के विरह गीतों में प्रकृति के उपादानों से संदेश भेजने की परम्परा मिलती है, एक लोकगीत में कौंवे को संदेशवाहक बनाते हुए कहा गया है-
महल के ऊपर कागा बोले
सनिन वचन सुनाई
उड़ूं उड़ूं काग देइहो मैं
धागा जोरे बिरन धर जाई

गिरधर के प्रेम में मीरा तो दीवानी थी, मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, में मीरा का उत्कट प्रेम झलकता है, जिन्होंने प्रेम के मार्ग को अपना कर अपना पति श्री कृष्ण को बनाया। प्रेम सर्वोत्कृष्ट स्वरुप कहीं और नहीं मिलता। प्रेम दीवानी मीरा ने काले कौंवे को अपना माध्यम बनाया। विरह में वह कहती है –
काढि कलेजा मैं धरूं कागा तू ले जाए
जहाँ मेरो पिब बसे, वे देखे तू खाए।

इस तरह वसंत ॠतु ने कवियों को लेखनी चलाने के लिए उद्वेलित किया। यह ॠतु है ही ऐसी कि वातावरण उद्दीप्त हो जाता है विरह एवं संयोग के कारण काव्य स्वत: निसृत हो जाता है।

आलेख

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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