भारत पर्वोत्सव की परम्परा अत्यन्त प्राचीन रही है फिर चाहे वह कोई भी त्यौहार क्यो न हो, हमारी उत्सवधर्मी संस्कृति में इसकी न केवल सदीर्घ परम्परा मौजुद है वरन् कई-कई प्रचलित रीतियों के साथ-साथ लोकमान्यताओं, अध्यात्मिक चेतना एवं धार्मिर्क आस्थाओं के बीज भी विद्यमान है। ऋतुराज वसंत की पूर्णाहुति पर आने वाला होली का त्यौहार भारत का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है जिसे प्राचीनकाल से ही भारत में अत्यन्त हर्षोल्लास से मनाया जाता रहा है। होलिकाउत्सव की प्राचीनता के संदर्भ अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तको में मिलता है।वेदों, पुराणो और इतिहास में भी इसका संदर्भ वर्णित है।
इतिहासकारों केअनुसार आर्यो मे भी इस त्यौहार का प्रचलन था। वेदों में यह “नवान्न संयष्टि यज्ञ” के नाम से वर्णित है।वस्तुतः नव उतपन्न धन औऱ गेंहू की बालियों को नारियल औऱ अन्य हविष्य के साथ गोबर के उपलों एवं अन्य वैदिक हवन सामग्री के यज्ञ करने का विवरण प्राप्त होता है जिसमे विशेष कर धरती पुत्र अपने उत्पाद का एक भाग देवर्पन करते थे जिससे पर्यावरणीय प्रदूषण भी दूर हो और देवताओं का भाग भी अग्निदेव के माध्यम से उन तक पहुंच जाए और नई फसल की खुशी भी हिलमिल कर मनाई जा सके।
युगांतर में अनेक अन्य परम्पराएँ भी इसमें जुड़ती गई किंतु यह परंपरा आज भी अल्प रूप में ही सही कई स्थलों पर विद्यमान है। प्राचीन ग्रंथ जैमिनी के पूूर्व मीमांसा-सूूत्र और कथा ग्राह्य-सूत्र में भी होलिकाउत्सव में जनमेदिनी द्वारा आल्हादित होने का वर्णन है। नारद पुराण, भविष्य पुराण में भी इस पर्व का वर्णन यह तय करता है कि होली भारतीयों का उस काल में भी यह एक प्रिय त्यौहार रहा है। ये बात अलग है कि अलग-अलग काल में होली को विविध नामों से अभिषिक्त किया गया है।
प्राचीन वैदिक सभ्यता में आर्य इसे ‘नवात्रेष्टि-यज्ञ’ के नाम से जानते थे। आर्य र्संस्कृति के लोग नवान्न एवं अधपके अन्न को यज्ञ में आहुत कर होली मनाते थे। अपनी फसल की प्रथम आहुती देवो के निमित्त अग्नि को समर्पित करने की यह प्राचीन प्रथा आज भी किसी न किसी रुप में होली पर्व के संदर्भ में दृष्टव्य होती है। क्योकि आर्य लोग अधपके अन्न के हविष्य को ‘होला’ कहते थे इसलिए इस पर्वोत्सव का नाम होलिका उत्सव पड़ा। आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ के ‘होला समर्पण’ के बाद ही प्रसाद के रुप में अन्न रूप में लेते थे। अग्निदेव के माध्यम से उगे हुए धान का एक हिस्सा इस बहाने से देवताओं को अर्पित कर ही इसका उपयोग करते थे,इस प्रकार के वर्णन वैदिक साहित्य में मिलते है।
भारतीय ज्योतिष ग्रंथो में इस पर्व को अगला दिन चैत्र प्रतिपदा व नववर्ष के रुप में वर्णित है। भविष्य पुराण के उत्तर पर्व मे होलीका उत्सव का वर्णन नारद-युधिष्ठिर संवाद रुप में प्राप्त होता है। ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद द्वारा उपदेश किया गया है कि इस दिन बालको द्वारा घास-फूस, काष्ठ आदि को जलाना चाहिए। संभव है शिशिर की ठिठुरन और वसंत की पूर्णाहुति का जश्न मनाना ही इस पर्व का कारण रहा हों।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथ ‘हेमाद्ररी-खण्ड’ में भी होली का वर्णन कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद के माध्यम से राक्षसी ढूँढा एवं राजा रघु की कथा के संदर्भ में किया गया है। काठक गृह्य -सूत्र के व्याख्याकार- टीकाकार देवपाल के अनुसार “होला कर्म विशेष सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते, तत्र होलाके राका देवता, यास्ते तत्र राके सुमतयः।” अर्थात होला एक कर्मविशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। उस कार्य में ‘राका’ पूर्ण चंद्र देवता है।
फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग एक दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधीत चूर्ण बिखेरते हैं। हैमाद्री काल के वृहदधर्म का एक श्लोक उद्धृत किया है जिसके अनुसार होलिका पूर्णिमा को ‘होता शनि’ कहा जाता है। लिंग पुराण में वर्णन आता है कि फाल्गुन पूर्णिमा को ‘फाल्गुनिका’ कहा जाता है। लिंग- पुराण के अनुसार -“फाल्गुनी पूर्णमासी च सदा बालविकासिनी ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकविभूतये। “अर्थात यह एक बाल-क्रिड़ाओं से परिपूर्ण पर्व है और लोगों को विभूति या ऐश्वर्य देता है।
वाराह पुराण के अनुसार -“फाल्गुनै पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी’ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये।”वराह -पुराण में वर्णीत है कि “पटवास -विलासिनी चूर्ण’ से युक्त क्रिड़ाओं वाला होलिका पर्व सुख व एश्वर्यप्रदाता होता है। रंगोत्सव व होलिका दहन की प्रचलित सर्वविदित कथाओं में एक शिव द्वारा कामदेव के दहन की तथा दूसरी हिरण्यकशिपु की भगिनी होलीका एवं प्रहलाद भक्त की कथा सर्वज्ञात है किंतु इनके अतिरिक्त एक कथा जो भविष्योत्तर पुराण (132/1/51) में प्राप्त होती है उससे कम ही लोग परिचित हैं।
यह कथा भगवान श्रीकृष्ण -युधिष्ठिर संवाद के रूप में प्राप्त होती है। इस कथा के अनुसार युधिष्ठिर ने फाल्गुन पूर्णिमा पर मनाए जाने वाले रीति-रिवाजों के विषय में जब श्रीकृष्ण से पूछा तो कृष्ण ने उन्हें राजा रघु के विषय में एक कथा सुनाई। कृष्ण द्वारा उद्घृत इस कथानुसार राजा रघु के पास प्रजा परेशान होकर गई और कहा कि ‘ढूंढा’ नामक राक्षसी बच्चों को डराती है। राजा ने अपने पुरोहितों से पूछा तो उन्होंने बताया कि मालिन की पुत्री राक्षसी’ढूंढा ‘को शिव से वरदान प्राप्त था कि उसे देव, मानव आदि कोई नहीं मार सकता और ना अस्त्र-शस्त्र, जाड़ा, गर्मी और वर्षा से उसका अंत हो सकता था किंतु शिव ने इतना अवश्य कहा था कि हँसते मुस्कुराते क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा कर वह भाग सकती है। यही कारण है कि हमारे दक्षिण राजस्थान में शिशुओं के ‘ढूँढ़ोत्सव’ बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है।
इस पुराण के वर्णनानुसार यह निर्देशित किया गया है कि शीत ऋतु के समाप्ति व ग्रीष्म के आगमन का समय फाल्गुन पूर्णिमा को होता है। अतः इस दिन बच्चे इसे आनंद से मनाएं। बच्चे लकड़ी के टुकड़े, गोबर के उपले, नवांकुर गेंहू व जौ की बालियां आदि लेकर अग्नि की तीन बार प्रदिक्षिणा करें, हंसे और खुश होकर शोरगुल करे तो वह ढूँढा राक्षसी मृत्यु को प्राप्त होगी। इसी कारण से इस उत्सव को अडाडा या होलिका कहा गया है।
एक अन्य पुराण ‘लिग-पुराण’ में होली को बाल क्रीड़ाओ से ऐश्वर्य प्रदाता, हास्य-विनोद का उत्सव बताते हुए ‘फाल्गुनिका’ नाम दिया गया है क्योकि यह फाल्गुन, पुनम को मनाई जाती है। कालांतर में आए ‘उत्सव-वायु पुराण’ में भी इसे होलिका ‘अडाडा’ और ‘पट्टवास-विलासिनी’ के माध्यम से ‘ढूँढा’ राक्षसी को अग्नि मे जलाकर भस्म करने की कथा उल्लेखित है। यही होली आज तक प्रचलित है। ’मत्स्य पुराण’ में वर्णित अशोक महोत्सव भी वर्तमान होली से साम्य रखता है।
इन पौराणिक ग्रथो के अलावा होली का उल्लेख ऐतिहासिक एवं साहित्यिक कृतियों में भी मिलता है।वात्साययन के रचित ‘कामसुत्र’ में ‘होलिका उत्सव’ एवं ‘उदुकक्ष्वेडिका’ रस्म का वर्णन आता है जो वर्तमान युग की होली एवं छरडी से सवर्था समरुप दृष्टव्य होती है।इसके अलावा इस होली के आनन्दोत्सव का वर्णन भोजदेव कृत ‘रसस्वती कुठा भरण,’जयमंगलटीका और शारदातन रचित ’भावप्रकाश’ में भी मिलता है परंतु कुछ रीतियां भिन्न वर्णित है यथा होली पर्व पर पुष्पावचायिका, उद्यानयात्रा, लुकाछिपी खेलना आदि परम्पराएं कुछ हद तक अब लुप्त हो चुकी है।
कुछ संस्कृत ग्रथो मे होलिका का फाल्गुन के बजाय चैत्रमास में मनाये जाने वाले उत्सव के रुप मे किया गया है। कुल मिलाकर प्राचीन वैदिक आर्ष ग्रथ ही नही संस्कृत के ऐतिहासिक साहित्यिक सांस्कृतिक ग्रथ होली के विविध रीति रिवाजों,आनंदोत्सव, दोलोत्सव के अनेकानेक आख्यानों से भरे पडे है। इस प्रकार भले ही होली का वर्तमान स्वरुप बदल चुका हो परंतु यह तय है कि होलीका उत्सव उतना ही पुरातन है जितना प्राचीन भारत की सभ्यता व संस्कृति है।
काल के प्रवाह में हो सकता है होली मनाये जाने वाले दिन व माह आगे पिछे हुए हो, यह भी संभव है कि युग परिवर्तन के साथ होली के आनन्दोत्सव में कुछ नवीन रंग व रस्में जुड़ गई हो, कुछ पुरातन-परम्पराओ ने अपना स्वरुप बदल दिय हो ये कुछ परम्पराऐं अपने मूल स्वरुप को खो कर काल के गाल में समा गई हो परंतु ऐतिहासिक पौराणिक संर्दभो से यह निश्चित है। कहा जा सकता है कि हर युग में भारत में होली उत्सव आयोजित होता रहा है।
वर्तमान होलीका उत्सव प्राचीन भारत की गौरवमयी परम्परागत उत्सव जनित भारतीय संस्कृति का ही मूल रुप है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो होली का त्योहार अपने सांस्कृतिक अनुष्ठानों के साथ चंद्रगुप्त द्वितीय के चौथी शताब्दी के शासनकाल के दौरान वर्णित मिलता है। पुराणों दासकुमार चरिता और कवि कालिदास द्वारा इसका उल्लेख अपने ग्रंथों में किया गया है। कालांतर में होली के उत्सव का उल्लेख सातवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक “रत्नावली” में भी होलिका उत्सव का वर्णन मिलता है इसके अलावा सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में भारतीयों के इस होलिकोत्सव का वर्णन किया है।
भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचना अथवा कृति में इसका उल्लेख किया है कि रंगों का यह त्यौहार होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते रहे हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मध्यकालीन ग्रंथों एवं पेंटिंग्स में मिलता है।
अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी अर्थात रंगों की बौछार कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।
मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके इतर प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के सोलहवीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के खेलते हुए दिखाया गया है।
सोहलवीं शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजन्य -दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। दोलन अथवा हिंडोला या झुलझुलन भी इस रंगोत्सव का प्रमुख हिस्सा रहा है। इस चित्र में भी साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं।
मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं।यहां तक कि विदेशी भी हमारे होली एवं रंगोत्सव के आकर्षण से बच नही पाए थे। होली के त्योहार और उत्सव के इस सतरंगी छटा ने सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय व्यापारियों और ब्रिटिश औपनिवेशिक कर्मचारियो को भी अपने आकर्षण में डूब गए थे।
यही हमारे सनातन संस्कृति की विशेषता है कि परदेसी भी इससे अछूते नही रह पाते,और हमारी संस्कृति उसे अपने रंग में रंग कर अपने मे उसी प्रकार समाहित कर लेती है जैसे पानी मे पानी मिलता है।यही हमारी प्राणवंत सांस्कृतिक धारा है जिसका एक रंग यह उत्सव भी है जो दिलो की दूरियां मिटा कर सबको एक कर देता है।
आलेख
बहुत सुंदर जानकारी👌👌👌