भारतीय धर्म दर्शन तो सनातन है, अगर ऋग्वेद को भारतीय सभ्यता और धर्म का आधार मानें तो कम से कम 10,000 वर्ष से देश के सामाजिक, सांस्कृतिक तत्वों की निरंतरता बनी हुई है। किसी देश में रहने वाले लोगों की पहचान का आधार उनकी भाषा है जैसे फ्रांस के लोग फ्रांसीसी कहलाए क्योंकि वे फ्रेंच भाषा बोलते हैं, इसी तरह अंग्रेज, जर्मन, रूसी, जापानी कहलाए।
लेकिन भारत की जनता का संबोधन भौगोलिक हुआ, जैसे ग्रीक, ईरानी ने सिंधु नदी का संबोधन इंदु (Indus) के रूप में किया तो हम इंडियन कहलाए इसके बाद अरबी, तुर्की में सिंधु नदी का उच्चारण हिंदू हो गया तो हम हिंदुस्तानी कहलाने लगे। नामकरण भले ही बदलते रहे लेकिन संपूर्ण भारत के संस्कार और जीवन पद्धति यथावत रहे।
समय समय पर देश की सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था में कुरीतियां व्याप्त हुईं यह देश का सौभाग्य रहा की भटके समाज और लोगों को सही मार्ग दिखाने महापुरुष इस धरती पर अवतरित होते रहे। महात्मा बुद्ध भी ऐसे ही एक समाज सुधारक महापुरुष हुए।
गौतम बुद्ध एक शाक्यवंशी क्षत्रिय थे जिनका जन्म ईसा पूर्व 563 के वैशाख पूर्णिमा के दिन कपिलवस्तु के लुंबिनी वन में हुआ। राजकुमार होने के कारण उनका लालन पालन बड़े लाड़ से संपूर्ण सुविधाओं से युक्त हुआ। विवाह उपरांत एक बालक के पिता बन जाने के बाद उनके वैराग्य लेने का विचार यूं ही अकस्मात नहीं था।
उस कालखंड पर गौर करें तो सिद्धार्थ के विचारों को तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक व्यवस्था के दोषों ने प्रभावित किया। वह महाजनपद काल था जिसमें जनपद आपस में युद्धृरत थे, प्रत्येक शक्तिशाली जनपद अन्य जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर बड़े राज्य निर्माण की प्रक्रिया में लगा था। युद्ध से रक्तपात हो रहा था, समाज युद्ध की विभीषिका से जूझ रहा था, हिंसा से लोग मरे जा रहे थे। इसलिए सिद्धार्थ को समाज के लिए शांति और अहिंसा की आवश्यकता महसूस हुई।
तत्कालीन समाज आर्थिक प्रगति के दौर से गुजर रहा था। ऐतिहासिक काल अनुसार यह उत्तरी पॉलिश मृदभांड का काल है, जिसमें भारत उद्योग और व्यापार की उन्नति हो रही थी। समाज धन संपत्ति के प्रति आकर्षित था जो अनेक कुसंस्कारों को जन्म दे रही थी। समाज उपभोक्तावादी दौर से गुजर रहा था जिसमें नैतिकता, मर्यादा और सामाजिक मान्यताओं का ह्रास हो रहा था।
ऐसे समय में गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह (संग्रह न करना), अस्तेय (चोरी न करना) और ब्रह्मचर्य पर अधिक जोर दिया जिसे पंच महाव्रत कहा गया। उस समय समाज में व्याप्त यह सामान्य दुराचार रहे होंगे इसलिए महात्मा बुद्ध के अलावा उस दौर के सभी महापुरुषों जैसे महावीर स्वामी ने भी अपने उपदेशों के केन्द्र में रहा।
गौतम बुद्ध हों या महावीर स्वामी उस समय के सभी महापुरुषों ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और धार्मिक पाखंड को दुरूस्त करने का महान कार्य किया जिससे समाज अपने जडत्व को तोड़ते हुए पुनः प्रगति पथ पर आगे बढ़े।
भगवान बुद्ध ने अपने उपदेशों में कभी धर्म प्रारंभ करने का दावा नहीं किया था किन्तु उनके अनुयायियों ने हिंदू धर्म से अलग मानकर नए धर्म का चलन प्रारंभ कर दिया। देश के पूर्व राष्ट्रपति एवं दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष की भूमिका में लिखा है, ‘बुद्ध यह नहीं समझता था कि वह एक नया धर्म घोषित कर रहा है वह जन्म , विकास और मृत्यु के समय हिंदू था। वह भारतीय आर्य-सभ्यता के पुराने आदर्शों को एक नई अर्थ- महत्ता के साथ उपस्थित कर रहा था।
भगवान बुद्ध ने कहा था, “अतः भिक्खुओ, मैंने एक प्राचीन राह देखी है , एक ऐसा प्राचीन मार्ग जो कि पुरातन काल के पूर्ण जागरितों द्वारा अपनाया गया था …. उसी मार्ग पर मैं चला और उस पर चलते हुए मुझे कई तत्त्वों का रहस्य मिला। वही मैंने भिक्षुओं, भिक्षुणियों, नर-नारियों, और दूसरे सर्वसाधारण अनुयायियों को बताया।”
महात्मा बुद्ध ने वैदिक कर्मकांड का विरोध किया, व्यक्ति और समाज के आचरण को दुरुस्त करने का प्रयास किया। वैसे तो वैदिक कर्मकांडों और ब्राह्मणों के आचार व्यवहार को लेकर उपनिषदों में भी चोट की गई लेकिन बुद्ध ने जिस कठोरता के साथ सामाजिक कुरीतियो, धार्मिक पाखंडों का विरोध किया उसका असर ज्यादा हुआ। भगवान बुद्ध ने सीधे सरल तरीके से समाज में नैतिकता का पाठ पढ़ाया जिसने उस समय और उसके बाद के लोगों को प्रभावित किया।
बुद्ध ने अतिवादी विचारों को त्याग मध्य मार्ग का अनुसरण किया। उन्होंने व्यक्ति के जीवन के दुखों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। बुद्ध ने दुख को जीवन का अंग बताया, प्रत्येक जीव किसी न किसी दुख से पीड़ित है और प्रत्येक मनुष्य जन्म में दुख होगा ही। इसका समाधान मोक्ष की प्राप्ति में है, जिसका अर्थ है जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहर आ जाना। हर व्यक्ति दुखों से मुक्ति चाहता है सो बुद्ध की बात सबको समझ में आई।
गौतम बुद्ध ने एक ओर जीवन के मोक्ष की बात की और दूसरी ओर इसे पाने के लिए जीवन में सही रास्ते पर चलने का उपदेश देते हैं, यानि अष्टांगिक मार्ग। बुद्ध के विचार कर्मवादी हैं, उनके अनुसार मोक्ष पाने के लिए कर्म से विरक्त नहीं होना है बल्कि कर्म को सम्यक तरीके से करना है। बुद्ध के अष्टांगीक मार्ग केवल मोक्ष प्राप्ति का मार्ग नहीं है अपितु यह किसी भी कार्य में सफलता प्राप्ति के सूत्र हैं।
इस प्रकार बुद्ध के सिद्धांत जीवन और कार्य के प्रबंधन से भी जुड़ा है जिसमें नैतिकता भी है। बुद्ध ने किसी भी तत्व, समय काल और प्रकृति को सदैव परिवर्तनशील माना है, इसका अर्थ यह है कि जीवन का सुख दुख भी स्थाई नहीं है। अष्टांगिक मार्ग से सभी दुखों से छुटकारा संभव हैं।
व्यक्ति को वर्तमान दुख से मुक्ति का आश्वासन भी है, उसकी निराशा की मुक्ति का मार्ग बताता है।भगवान बुद्ध ने तत्कालीन राजनीतिक हिंसा और समाज में व्याप्त अनैतिकता और कुरीतियों को ठीक किया, इस प्रकार भारत के सनातन धर्म को शुद्ध कर भविष्य की उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया।
इस विषय पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विचार उचित प्रतीत होता है, ‘‘ बुद्ध ने हिंदुओं के सांस्कृतिक दाय का उपयोग धर्म के कुछ आचारों को शुद्ध करने के लिए किया। वह नष्ट करने के लिए नहीं, परंतु अपूर्ण को पूर्ण बनाने के लिए पृथ्वी पर आया। बुद्ध हमारे लिए, इस देश में हमारी धार्मिक परंपरा का एक अलौकिक प्रतिनिधि है। यहां बुद्ध के अपने घर में उसकी शिक्षा हमारी संस्कृति में समाविष्ट हो गई और उसका आवश्यक अंग बन गई।‘‘
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