ग़ज़ल इशारों की भाषा है। सूफ़ी नज़्मों और ग़ज़लों में भी इशारों-इशारों में रूहानी प्रेम के जरिए ईश्वर तक पहुँचने की बात होती है। सूफ़ी एक स्वभाव का नाम है। सूफ़ी रचनाओं का सार भी यही है कि ईश्वरीय प्रेम के लिए धरती पर इंसान और इंसान के बीच परस्पर प्रेम का रिश्ता हो । संगीत भी मानव जीवन के लिए प्यार और शांति की भाषा है। -यह कहना है छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध संगीत शिल्पी मदन सिंह चौहान का ,जिन्हें भारत सरकार ने इस वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित करने की घोषणा की है।
मार्च के आख़िरी या अप्रैल के पहले हफ़्ते में नई दिल्ली में होने वाले जलसे में राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद 141 हस्तियों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित करेंगे । इनमें से 7 लोगों को पद्मविभूषण, 16 लोगों को पद्मभूषण और श्री चौहान सहित 118 शख़्सियतों को पद्मश्री अलंकरण से अलंकृत करने की घोषणा की है। उधर गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले 25 जनवरी की शाम नई दिल्ली में यह घोषणा हुई और इधर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के राजा तालाब मोहल्ले में श्री चौहान के घर पर उन्हें शुभकामनाएं देने उनके चाहने वालों का सैलाब उमड़ पड़ा।
उन्हें बधाई देने कुछ दिनों बाद मैं भी अपने कवि मित्र और श्रृंखला साहित्य मंच पिथौरा के अध्यक्ष प्रवीण प्रवाह के साथ उनके घर पहुँचा। उंन्होने बड़ी आत्मीयता से हमारा स्वागत किया। मैंने उन्हें अपने काव्य संग्रह ‘मेरे दिल की बात’ की एक सौजन्य प्रति भेंटकर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया । अंतरंग बातचीत में श्री चौहान ने अपनी सुदीर्घ कला यात्रा के कई अनुभवों और स्मृतियों को हमारे साथ साझा किया ।
श्री मदन चौहान छत्तीसगढ़ के उन प्रतिभावान सितारों में से हैं, जो अपने हुनर की रौशनी से देश और प्रदेश के सांस्कृतिक आकाश को लगातार आलोकित कर रहे हैं। सहज, सरल और सौम्य स्वभाव के श्री चौहान हिन्दी और उर्दू में गीत, ग़ज़लों और भजनों के सुमधुर गायक के रूप में प्रसिद्ध हैं और सूफ़ी गायन में भी पूरे देश में उनकी ख्याति है। लेकिन 73 वर्षीय श्री चौहान ने 50 वर्षों से जारी अपनी संगीत साधना की शुरुआत छत्तीसगढ़ी लोक संगीत से की।
उस दौर के मशहूर लोक गायक शेख हुसैन के साथ उन्होंने वर्षो तक तबले पर संगत की। शेख हुसैन अक्सर अपने साथी सन्त मसीह दास के लिखे गाने गाते थे। ये गाने छत्तीसगढ़ी लोक गीतों की एक लोकप्रिय विधा ‘ददरिया’ के रूप में होते थे। वह रेडियो का ज़माना था और रायपुर में आकाशवाणी केन्द्र खुले दस साल से कुछ ज्यादा वक्त हो चुका था।
इस केन्द्र से छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के फरमाइशी कार्यक्रमों में शेख हुसैन की मधुर आवाज़ में और मदन चौहान के तबला वादन के साथ प्रसारित सन्त मसीहदास के लोकगीतों ने पूरे छत्तीसगढ़ में तहलका मचा दिया। इन गीतों की अपार लोकप्रियता की सबसे बड़ी वज़ह थी इनकी कर्णप्रियता और अपनी माटी की सोंधी महक से भरपूर अपनी भाषा में लोक -जीवन की रंग -बिरंगी अभिव्यक्ति।
इनमें से ‘चना के दार राजा’, ‘गुल -गुल भजिया खा ले’ और ‘मन के मनमोहनी” जैसे कई सदाबहार गीत सुनकर लोग आज भी झूम उठते हैं। उन दिनों लोकगीतों के कार्यक्रमों के प्रसारण के समय लोग अपने-अपने रेडियो सेट के सामने बड़ी तल्लीनता से बैठे रहते थे। चाय और पान की दुकानों में ग्राहकों के संगीत प्रेमी श्रोताओं की भीड़ लग जाती थी।
आकाशवाणी रायपुर के अलावा-विविध भारती से भी इन गीतों का प्रसारण यदाकदा होता रहता है। इन लोकगीतों की असली मिठास को तो हम इन्हें सुनकर ही महसूस कर सकते हैं, फिर भी छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के रसिकजन आज भी अक्सर इन्हें गुनगुना उठते हैं। जैसे यह लोकप्रिय ददरिया गीत –
“बटकी म बासी अऊ चुटकी म नून
मंय गावत हौं ददरिया ,तयं कान देके सुन …ओ चना के दार ।
टुरा पर बुधिया ,होटल म भजिया झडक़त हे ओ ….!”
आत्मीय बातचीत में मदन चौहान ने एक दिलचस्प संस्मरण भी सुनाया । उन्होंने बताया- उन दिनों शेख हुसैन साहब की आवाज़ में एक और छत्तीसगढ़ी गीत काफी हिट हुआ था ,जिसकी पंक्तियाँ थीं —
‘एक पइसा के भाजी ल दू पइसा म बेचे गोई -बइठे मरारिन बज़ार म ।’
सब्जी विक्रेताओं के बीच यह गाना बहुत पसंद किया गया । इससे प्रभावित होकर छुईखदान (जिला-राजनांदगांव) के सब्जी विक्रेताओं ने शेख साहब को अपनी टीम के साथ कार्यक्रम पेश करने वहाँ आमंत्रित किया था। वहाँ सादगीपूर्ण ढंग से आयोजित कार्यक्रम में हम लोगों को दर्शकों और श्रोताओं का भरपूर स्नेह मिला। वह हमारे लिए एक यादगार आयोजन था।
शेख हुसैन और सन्त मसीह दास अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन अपने इन दोनों पुराने साथियों को याद करते हुए मदन चौहान बहुत भावुक हो जाते हैं। यह पूछे जाने पर कि तबला वादन की ओर झुकाव कैसे हुआ, चौहान जी अपनी यादों को खंगालते हुए बताते हैं कि बचपन में वनस्पति घी के खाली कनस्तरों को तबले की तरह बजाना उन्हें अच्छा लगता था।
बाद में यही शौक उनको तबला वादन की ओर ले आया। कुछ स्थानीय आर्केस्ट्रा पार्टियों के साथ भी वह जुड़े रहे। श्री चौहान कहते हैं-तबला सीखने और तबला वादक के रूप में कामयाब होने में तीस साल लग गए। तबला वादन किसी भी गायन और संगीत का ज़रूरी हिस्सा होता है।
श्री चौहान आकाशवाणी रायपुर के मशहूर तबला वादक कन्हैयालाल भट्ट को अपना पहला गुरु मानते हैं, जिनसे उन्होंने इसका अनौपचारिक शास्त्रीय ज्ञान हासिल किया। जयपुर के उस्ताद काले खां साहब उन दिनों कार्यक्रमों के सिलसिले में यहां आकाशवाणी आते-जाते थे। तबला वादन की कई बारीकियां उनसे भी सीखी। भिलाई नगर के रतनचंद वर्मा से गायन कला का अनौपचारिक प्रशिक्षण लिया। श्री चौहान आकाशवाणी रायपुर के उस दौर के एक वरिष्ठ तबला वादक आशिक अली खां को भी याद करते हैं । वह कहते हैं -मैंने उनसे भी बहुत कुछ सीखा ।
मदन सिंह चौहान का जन्म रायपुर के राजा तालाब मोहल्ले में 15 अक्टूबर 1947 को हुआ था। उनके पिता भिलाई इस्पात संयंत्र के कर्मचारी थे । रिटायर होने के बाद रायपुर में बस गए । मदन चौहान की पांचवीं तक की पढ़ाई इसी राजा तालाब मोहल्ले की प्राथमिक पाठशाला में हुई।
रायपुर के ही प्रतिष्ठित राष्ट्रीय विद्यालय में उन्होंने मिडिल और मेट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने मित्र शेख हुसैन के साथ उन्होंने कुछ दिनों तक ऑटो पार्ट्स की एक दुकान में नौकरी की। फिर कुछ समय स्थानीय श्यामनगर गुरुद्वारे में 120 रुपए मासिक मानदेय पर तबला वादक के रूप में गुरुवाणी के कार्यक्रमों में संगत करने लगे।
शबद -कीर्तन की रचनाओं का उन पर गहरा असर हुआ। यहीं से उनका झुकाव आध्यात्मिक संगीत की ओर हुआ। इस बीच स्थानीय नगर निगम द्वारा संचालित निवेदिता कन्या हायर सेकेंडरी स्कूल में उन्हें वर्ष 1977 में तबला संगतकार के रूप में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्ति मिल गयी, जहाँ 32 वर्षो की लम्बी नौकरी के बाद वर्ष 2009 में वह सेवा निवृत्त हो गए।
उन्होंने पुरानी यादों के झरोखे से झाँकते हुए यह भी बताया कि छत्तीसगढ़ी गीतों की लोकप्रिय गायिका श्रीमती निर्मला इंगले की प्रेरणा से वह तबला वादन के साथ-साथ गायन में भी रुचि लेने लगे। आज सुगम संगीत के मंजे हुए गायक कलाकारों में उनकी गिनती होती है।
मदन चौहान की खनकदार मख़मली आवाज़ में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भजनों के अनेक एलबम जारी हो चुके हैं। इनमें माँ दुर्गा की आराधना पर आधारित ‘दयामयी दया करो ‘ शिरडी वाले साईं बाबा को समर्पित ‘दो अक्षर का नाम साईं’ और ‘बच्चों पे रहम ‘ और गणेश वंदना ‘गजानंद स्वामी ‘ शीर्षक से जारी म्यूज़िक एलबम भी शामिल हैं।
उनकी आवाज़ में शिरडी के साईं बाबा पर केन्द्रित म्यूज़िक एलबम ‘रहम नज़र करो अब मोर साईं’ भी काफी पसंद किया जा रहा है। भजन एलबमों में कई रचनाएँ चौहान जी द्वारा स्वयं लिखी गयी हैं। उर्दू में भक्ति गीतों का उनका एक म्यूज़िक एलबम ‘आओ आओ नबी ‘ शीर्षक से आया है,जिसके गीतकार इसरार इलाहाबादी हैं। श्री चौहान के भजनों के कई एलबम छत्तीसगढ़ी में भी हैं।
छत्तीसगढ़ में 18 वीं सदी में हुए महान समाज सुधारक बाबा गुरु घासीदास को समर्पित, दिलीप पटेल का लिखा पंथी गीत ‘जगमग लागे अंजोर’ भी मदन चौहान की आवाज़ में काफी लोकप्रिय हो रहा है। सूफ़ियाना रंगत की उनकी प्रस्तुतियां श्रोताओं का मन मोह लेती हैं। श्री चौहान के अनेक म्यूजिक एलबम, विभिन्न कार्यक्रमों में दी गयी प्रस्तुतियां और समय-समय पर टेलीविजन चैनलों में दिए गए इंटरव्यू आदि की रिकार्डिंग यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।
श्री चौहान ने सन्त कबीर सहित अनेक प्राचीन कवियों की पारम्परिक रचनाओं के अलावा नये दौर के कवियों और शायरों की रचनाओं को भी अपना स्वर और संगीत दिया है। उनकी धीर-गंभीर, लेकिन मीठी आवाज़ में उत्तरप्रदेश के वरिष्ठ कवि उदयभानु ‘हंस’ की यह ग़ज़ल किसी भी महफ़िल की रौनक और रंगत को और भी गाढ़ा कर देती है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं —
” कब तक यूं बहारों में
पतझर का चलन होगा ,
कलियों की चिता होगी ,
फूलों का हवन होगा ।
हर धर्म की रामायण
कहती है ये युग-युग से,
सोने का हिरन लोगे,।
सीता का हरण होगा।”
इस रचना के बारे में चौहान जी अपनी यादों को शेयर करते हुए एक दिलचस्प प्रसंग भी सुनाते हैं – वर्षों पहले पूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर एक बार ओड़िशा जाते हुए कुछ समय रायपुर में रुके थे। उन दिनों वह प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र दे चुके थे। स्थानीय लोगों ने उनके सम्मान में एक आयोजन किया था, जहां उनके आग्रह पर मेरे द्वारा उदयभानु ‘हंस'” की यह रचना अपनी आवाज़ में पेश की गयी।
चंद्रशेखर जी इस रचना से इतने प्रभावित हुए कि वापसी में अपने एक सुरक्षा अधिकारी को मेरे पास भेजकर इसकी रिकार्डिंग मंगवाई । यह निश्चित रूप से रचनाकार और गायक के लिए सम्मान की बात थी। मजे की बात यह कि उदयभानु ‘हंस’ से श्री चौहान की कोई मुलाकात अब तक नहीं हुई है, लेकिन उनकी इस ग़ज़ल ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वो इसे सुरों में सजाकर सांगीतिक आयोजनों में प्रस्तुत करने लगे । पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली भी रायपुर में एक बार मदन चौहान का कार्यक्रम देखकर उनसे काफी प्रभावित हुए थे।
चौहान जी ने स्थानीय शायरों में से अता रायपुरी की कई ग़ज़लों और नज़्मों को भी स्वर दिया है। जैसे अता की एक ग़ज़ल की इन पंक्तियों को देखिए –
“तमाशा मैं बन जाऊं, ये डर नहीं है,
मेरा पाँव चादर से, बाहर नहीं है ।
बहुत ऊँचे लोगों की, बस्ती है लेकिन
कोई मेरे कद के, बराबर नहीं है।
अता को भी खुरच कर, देखा है हमने
कोई चेहरा चेहरे के, ऊपर नहीं है ।
हमारी मोहब्बत, बड़ी सीधी -सादी ,
इशारों -विशारों का, चक्कर नहीं है।”
पिथौरा (जिला-महासमुन्द) के कवि प्रवीण प्रवाह की कई रचनाओं को भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी है। राजधानी रायपुर के अनेक सरकारी और गैर सरकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक आयोजनों में गीत-संगीत के प्रस्तुतिकरण के लिए मदन चौहान को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाता है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती और पुण्यतिथि पर होने वाली प्रार्थना सभाओं में भी वह सर्वधर्म समभाव पर आधारित भजन और गीत प्रस्तुत करते हैं। सूफ़ी गायन में बाबा बुल्ले शाह, बाबा फ़रीद, अमीर ख़ुसरो, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उनके मनपसंद शायर हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने कला के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए मदन चौहान को वर्ष 2017 में राजा चक्रधर सिंह राज्य अलंकरण से सम्मानित किया था। राजधानी रायपुर में आयोजित राज्य स्थापना दिवस समारोह ‘राज्योत्सव’ में मुख्य अतिथि की आसंदी से राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने उन्हें इस अलंकरण से नवाज़ा था।
सुगम संगीत के क्षेत्र में आज के अनेक नामचीन कलाकार श्री चौहान के शिष्य रह चुके हैं। इनमें गायिका गरिमा दिवाकर और अभ्रदिता मोइत्रा जैसे कई मशहूर नाम शामिल हैं। अभ्रदिता पहले रायपुर में रहती थीं। वह अब त्रिवेंद्रम(केरल) में रहकर हिंदुस्तानी संगीत पर काम कर रही हैं । मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ साल पहले उन्हें ‘लता मंगेशकर पुरस्कार’ से सम्मानित किया था।
श्री चौहान कहते हैं- संगीत हर इंसान को कुदरत की एक अनमोल देन है। गाना-गुनगुनाना हर इंसान के स्वभाव में होता है। रियाज़ अथवा अभ्यास से उसे निखारा जा सकता है। भारत में संगीत की वर्तमान स्थिति पर उनका विचार है कि इस कम्प्यूटर युग में नये कलाकारों के लिए पहले की तुलना में आज कहीं ज़्यादा व्यापक संभावनाएं हैं । हमारे समय में इस फील्ड में काफी चुनौतियाँ थीं ।
यह सुगम संगीत का दौर है ,लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शास्त्रीय संगीत ही इसकी बुनियाद है। सुगम संगीत में आगे बढ़ने के लिए शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को समझना ज़रूरी है। नये लोग जो इस क्षेत्र में आना चाहते हैं ,वे अगर संगीत को पूजा अथवा इबादत के रूप में लें तो उन्हें क़ामयाबी जरूर मिलेगी।
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