“जब शंकाएं मुझ पर हावी होती हैं, और निराशाएं मुझे घूरती हैं, जब दिगंत में कोई आशा की किरण मुझे नजर नहीं आती, तब मैं गीता की ओर देखता हूं।” – महात्मा गांधी।
संसार का सबसे पुराना दर्शन ग्रन्थ है भगवद्गीता। साथ ही साथ विवेक, ज्ञान एवं प्रबोधन के क्षेत्र में गीता का स्थान सबसे आगे है। यह केवल एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु एक महानतम प्रयोग शास्त्र भी है। केवल पूजा घर में रखकर श्रद्धाभाव से आराधना करने का नहीं, अपितु हाथ में लेकर युद्धभूमि में लड़कर जीत हासिल करने का सहायक ग्रन्थ है।
महाभारत युद्ध के प्रारम्भ में कर्ममूढ़ होकर युद्ध से निवृत होने की इच्छा व्यक्त करने वाले अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीतोपदेश के द्वारा ही कर्म पूर्ण करने की प्रेरणा दी। अर्जुन ऐसा कहते हैं कि युद्ध करने से भी अच्छा अर्थात विहित कर्म करने से भी श्रेष्ठ युद्ध भूमि छोड़कर जाना है।
वह तर्क देते हैं कि युद्ध के कारण बहने वाले खून की नदी पार करके विजयी बनने से भी अच्छा भिखारी बनना है। भगवान श्रीकृष्ण उनको पुरुषार्थ का महत्व बताते हैं। अपना कर्म छोड़ने की प्रवृति नीच और अनार्य है, ऐसा ज्ञान गीता देती है। द्वितीय अध्याय के दूसरे एवं तीसरे श्लोकों में भगवान पूछते हैं –
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितं।
अनार्यजुष्टमस्वगर्यमकीर्तिकरमर्जुन॥
हे अर्जुन, तुझे इस दुःखदाई समय में मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ। क्योंकि यह अश्रेष्ठ पुरुषों का चरित है। यह स्वर्ग को देने वाला नहीं है और अपकीर्ति को करने वाला ही है। उतना मात्र नहीं, अगले श्लोक में और जोर से भगवान प्रहार करते है –
कलैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैनत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं ह्रदयदौर्बल्यं त्यक्तोत्तिष्ठ परन्तप ॥
भगवान का मत ऐसा है कि धर्म छोड़ना यानि कलीवता अथवा नपुंसकता है। उसको मत प्राप्त हो। क्योंकि तुम्हारे में यह उचित नहीं है। इसलिए हृदय की दुर्बलता को त्यागकर अपना कर्तव्य निभाने के लिए (युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ।
यह भगवदगीता के महत्वपूर्ण उपदेश हैं। यह बात केवल युद्ध सम्बंधित नहीं है। जीवन के सब क्षेत्रों में यह लागू होती है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना धर्म होगा। चाहे वह अध्यापक होगा या विद्यार्थी, मजदूर या अधिकारी कुछ भी हो अपने लिए मिले हुए धर्म को अवश्य मनःपूर्वक सफलतापूर्वक पूर्ण करना चाहिए। उसको ध्यानपूर्वक निपुणता के साथ करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। उसके प्रति अनदेखी करके व्यवहार करना हीनता है।
आज के युग में यह सन्देश सर्वदा प्रासंगिक है। अपने निजी धर्म, संस्कृति को छोड़कर बाकि चमकने वाले अन्य आदर्शों के पीछे दौड़ने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। स्वदेशी का सन्देश रखते हुए महात्मा गांधीजी ने इसी बात का विस्तार से प्रतिपादन किया है। उन्होंने बताया है कि स्वदेशी याने स्वधर्म और उसके साथ स्वभाषा और स्वभूषा भी है।
स्वदेशी कल्पना को गांधीजी ने व्यापक अर्थ में दिया है। वह ‘स्व’ से जुड़े हुए सब है। धर्म (Religion) के बारे में गांधीजी कहते हैं। हमारी परम्परा एवं परिसर में विद्यमान धर्म छोड़ना महापाप है। इसी प्रकार हमारी मातृभाषा एवं अपनी संस्कृति एवं सदाचार मूल्यों के साथ मेल खाने वाली नागरिक जीवन शैली भी होनी चाहिए।
महात्माजी को इस तरीके का मार्ग एवं सिद्धांत अपनाने की प्रेरणा भगवदगीता से मिली। उन्होंने कई बार यह बात प्रस्तुत भी की थी। भगवदगीता को मन जैसा मानकर अनुसरण करने से संकटों से पार पा सकते हैं। गांधी जी को भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व करने की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन भगवद्गीता ने दी।
अंततोगत्वा गीता प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म सम्बंधित ज्ञान देती है। और किसी भी स्थिति में धर्म पालन का अनुसरण और आवश्यकता पड़ने पर रक्षा करने के लिए रणभूमि में उतरने की ताकत भी देती है। इस बात को गहराई से समझकर उसका क्रियान्वयन करने वालों में केवल गांधीजी ही नहीं थे।
सही अर्थ में स्वातंतत्र्य का सामान्य समाज में भाव बनाने वाले लोकमान्य तिलक जी के पूरे क्रियाकलापों का सैद्धांतिक अधिष्ठान भी गीता दर्शन से ही बना। महर्षि अरबिंदो ने समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर राष्ट्रबोध की आग लगाने के लिए भगवद्गीता का भाष्य लिखा।
‘जय हिन्द’ का नारा लगाकर भारत मुक्ति के लिए अथक परिश्रम करने वाले महान देशभक्त नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज के सदस्यों को पढ़ने के लिए भगवद्गीता दी थी। लाखों करोड़ों देशवासियों के अन्दर देशभक्ति का ज्वार इसलिए जला और स्वातंत्र्य आन्दोलन के कठिनतम मार्ग में वे कूद पड़े।
यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि भगवदगीता अपने इस देश के स्वत्व को ही प्रगटित करती है। स्वाभाविक है, सच्चे देशभक्तों को उससे प्रेरणा मिली। स्वधर्म पालन के रास्ते में चलने पर यदि मृत्यु भी प्राप्त हो गई तो भी परवाह नहीं। ऐसी सुव्यक्त जीवन दिशा भी उस निमित उन्हें मिली। गीता के तीसरे अध्याय का 35वां श्लोक इस दृष्टि पर उल्लेखनीय है –
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्व नुष्ठितात।
स्वधर्मे निधनं श्रेयःपरधर्मो भयावह॥”
अपना स्वधर्म चाहे परधर्मों के साथ तुलना करने के समय थोडा बहुत कम होगा, कम चमकने वाला होगा, लेकिन उसको छोड़ना नहीं। परधर्म अपनाना नहीं। वह भयावह है। इसलिए स्वधर्म में तो मरना भी श्रेयस्कर है। भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा सूली पर चढ़ने के समय भी भगवद्गीता हाथ में रखने का कारण और दूसरा कुछ भी नहीं था।
आज भी स्थिति एक प्रकार से समान है। परधर्म अभी भी चमकने वाली वेशभूषा पहनकर देश में अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद है। स्वत्व बोध के आभाव के कारण बहुत सारे लोग भ्रमित होकर परधर्म के पीछे जाते हैं।
शिक्षा से लेकर आर्थिक क्षेत्र तक, संस्कृति से लेकर धार्मिक मोर्चा तक सब दूर स्थिति गंभीर है। यह बात ठीक है कि राष्ट्रीय आदर्शों का प्रभाव भी बढ़ रहा है, लेकिन उसकी गति बढ़ाने की जरूरत है। इस बीच हमको प्रेरणा देने की ताकत अपने राष्ट्र ग्रन्थ भगवद्गीता में है। फिर से एक बार गीता मां के पीछे चलकर स्वधर्म रक्षा के लिए सबको तैयार होना चाहिए –
अंब त्वामनुसंदधामी भगवद्गीते भवद्वेशीनीं।
– लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक हैं।
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