सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि अंचल में सनातनी त्यौहार नागपंचमी से प्रारंभ होकर गंगा दशहरा तक मनाये जाते हैं। इस तरह गंगा दशहरा को वर्ष का अंतिम त्यौहार माना जाता है। इस त्यौहार को समाज की सभी जातियाँ एवं जनजातियाँ उत्साहपूर्वक मनाती हैं।
गंगा दशहरा मनाने की प्रथा सनातन है। किसी भी त्यौहार, पर्व को मनाये जाने के पीछे एक मान्यता होती है। क्षेत्र में गंगा दशहरा मनाने के भिन्न-भिन्न तरीके जरूर हैं, लेकिन गंगा दशहरा मनाने के विधान एक हैं। पौराणिक मान्यतानुसार गंगा दशहरा पर्व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को मनाया जाता है। हिन्दू त्यौहारों की श्रृंखला में वर्ष के अंतिम त्यौहार के रूप में मनाये जाने की परम्परा है।
हमारी पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन पापनाशनी मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था। इसके अलावा यह भी शास्त्रोक्त मत है कि महाराज सगर के 60 हजार पुत्रों का नाश ऋषि कपिल के शाप से हुआ था, जिनके मोक्ष के लिए इक्ष्वाकु वंश के राजा भगीरथ ने तपस्या कर भगवान ब्रह्मा से माता गंगा को मांगा था। जिनका अवतरण पापों का नाश करने के लिये स्वर्ग से धरती पर हुआ था। महर्षि कपिल ने राजा सगर को मां गंगा के रूप में मोक्ष का रास्ता बताया था। ऋषि शाप से भस्मीभूत हुए उनके 60 हजार पुत्रों को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। मां गंगा के कृपा के फलस्वरूप सगर के पुत्रों को मोक्ष मिला।
सुरसुरी गंगा का धारा प्रवाह जहां जहां जिन दिशाओं में हुई वह तीर्थ स्थल बन गया। गंगा अवतरण के और भी क़िस्से है जो लोक में कहे सुने जाते हैं। सरगुजा में सनातन से गंगा दशहरा मनाने की चलन रही है। धार्मिक रूप से गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान करने का विशेष महत्व हैं, मान्यता है दस पापों का नाश होता है। लोग नदी तालाब, सरोवर, जलस्त्रोतों को गंगा स्वरूप मानकर डुबकी लगाते हैं एवं दानपुण्य करते हैं।
इस दिन छोटे बच्चों के कटे नाल, दुल्हे के मुकुट, चौल मुंडन संस्कार में कटाये गये बाल का विसर्जन तालाब जल सरोवरो में किया जाता है। शादी विवाह में प्रयुक्त कलश धोये जातें हैं, महिलाओं के साथ बच्चे परिजन भी इस मांगलिक कार्य में सम्मिलित होते हैं। सभी वर्ग विशेष के लोग गगा दशहरा पर्व मिल जुल कर मनाते हैं।
इस दिन सरोवरों के तटों पर मेले भी लगते हैं। सदियों से चली आ रही प्रथानुसार इस दिन ग्राम बैगा द्वारा दशहरा तालाब या जल सरोवरों के किनारे श्रद्धालुओं द्वारा लाये गये वर वधु के मुकुट, नौनिहालों के मुंडन केश, कटे नाभि के अवशेष, कलश, वर्ष भर में कराये गये पूजा अनुष्ठान में उपयोग किये गये सामाग्रियों का ग्राम बैगा से पूजा कराने उपरांत तालाब में विसर्जन किया जाता है। जिसे सराना कहते हैं।
नदी, तालाबों, सरोवरों को गंगा स्वरूप मानकर पूजन आरती की जाती है। वैसे भी सरगुजा में नदी, तालाब, सरोवर, पेड़, पहाड़, हवाओं, घटाओं, पत्थर, ज़मीन उन तमाम चीजों को देवी देवताओं की संज्ञा दी गई है या दी जाती है, जहां से लोगों की आस्था जुड़ी हुई है, जहां से आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। देव स्वरुप प्राकृतिक शक्तियों को पूजा जाता है। गंगा दशहरा के दिन लगने वाले मेले का श्रद्धालु परिवार सहित उठाते है।
वनवासी बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण अलग-अलग तिथियों में, अलग-अलग गांवों में गंगा दशहरा मनाया जाता है। इतना ही नहीं, धोती-कुर्ता, पगड़ी-साफा में सजे धजे पुरुष वर्ग तथा खूबसूरत परिधानों में सजे महिला, बच्चे गंगा दशहरा मनाने तालाब, झील, नदी आदि के तट पर पहुंचते हैं। यह बड़ा ही खूबसूरत नजारा होता है।
गंगा दशहरा के दिन श्रद्धालुओं द्वारा लाये गये सामाग्रियों का अनुष्ठान बैगा द्वारा किया जाता है। इसके फ़लस्वरुप बैगा को चावल आटे से की बनी रोटी एवं दान दक्षिणा अर्पित किया जाता है।
गंगा दशहरा के दिन दादर गाने का प्रचलन रहा है, गायन विधाओं में दादर गायन वनवासी बहुल इलाके का प्रमुख हिस्सा रहा है। युगल महिला पुरुष के बीच सवाल जवाब कर दादर गायन की प्रतिस्पर्धा होता है। हार-जीत होती। जो जीतता है उसे हारने वाले के तरफ़ से नारियल तथा मिष्ठान खिलाया जाता है।
पहले जमाने में दादर गायन में सहभागी के बीच शर्त होती थी, एक दूसरे को जीवन साथी के रूप में भी स्वीकार करते थें। आज़ ओ दौर नहीं रहा, परन्तु गंगा दशहरा मनाये जाने की परम्परा जस की तस बनी हुआ है। वनवासी समुदाय के लोग अपने इष्ट मित्रों को गंगा दशहरा के मौके पर चावल से बने हंड़िया तथा कच्ची महुआ शराब पिलाते हैं एवं पकवान खिलाते हैं। अंतिम तथा मुख्य पर्व होने से इस गंगा दशहरा को उत्साहपूर्वक से मनाया जाता है।
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