जीवन में दान का बड़ा महत्व है। चाहे विद्या दान हो या अन्न दान, धनराशि दान हो या पशु दान स्वर्ण या रजत दान। चारों युगों में दान की महिमा का गान हुआ है। दान दाता की शक्ति पर यह निर्भर करता है। दान के संबंध में ये उक्तियाँ लोक में आदि काल से प्रचलित है- ‘तुरत दान महा कल्याण‘ या फिर ‘पुन के जर पताल में‘ और ‘धरम धारन अगास‘ आदि। उपरोक्त वर्णित दान सबके बस की बात नहीं है, किन्तु अन्नदान ऐसा दान है, जिसे गरीब से गरीब व्यक्ति भी दे सकता है। इसलिए अन्नदान की महत्ता अधिक है। अन्न से भूख शांत होती है। आत्मा को तृप्ति मिलती है।
दान की महत्ता से छत्तीसगढ़ का जनमानस भलिभांति परिचित है। क्योंकि पौराणिक पात्र राजा मोरध्वज दानी की कथा छत्तीसगढ से जुडी हुई है। मोरध्वज की कथा से सभी परिचित हैं, जिन्होंने अपने वचन पालन के लिए अपने पुत्र ताम्रध्वज के अंग को राजा-रानी ने मिलकर आरे से काटा था। और भूखे शेर के सामने उसे परोस दिया। वह स्थान आज भी छत्तीसगंढ़ में आरंग के नाम से जाना जाता है। आरा+अंग = आरंग अर्थात वह स्थान जहाँ आरे से अंग को काटा गया हो। आरंग नामक रायपुर जिले में स्थित है। विरासत में मिली दानशीलता की यह परम्परा लोक जीवन में परिव्याप्त है। दान की यह लोक परम्परा अन्नदान के रूप में गाँव-गाँव में प्रचलित है। जिसे ‘छेर छेरा‘ कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ की दानशीलता जग जाहिर है। यहाँ के लोग स्वयं भूखे रहकर अतिथि और अभ्यागत की सेवा करते हैं। संतोष इनके इनके जीवन का प्रमुख गुण है। श्रम के साथ-साथ संतोषी स्वभाव इनका आभूषण है। इसलिए ये सहज और सरल हंै। इनकी सहजता और सरलता का लोग नाजायज फायदा उठाते हैं। इसलिए इनका जीवन अभावों में पलता है। अभावों के बीच रहकर भी ये अतिथियों की सेवा करते हैं। ‘‘छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया‘‘ की उक्ति इनके इसी गुण के कारण चल पड़ी है। यह भी कहा जाता है कि छत्तीसगढ़िया गऊ अर्थात गाय जैसा सिधवा, भोला-भाला होता है। शायद इसी भोलेपन के कारण इनका शोषण भी हो रहा है। पग-पग पर ये ठगे जा रहे हैं, छले जा रहे हैं। फिर भी इन्होने अपनी सहजता और सरलता नही छोड़ी है। और छोडेंगे भी नहीं। क्योंकि संतोषी स्वभाव दानशीलता और उदारता के गुण इनके नस-नस में बसा है। छेरछेरा का पर्व इन्हीं गुणों का प्रतिफलन है।
अन्नदान का महापर्व ‘छेर छेरा‘ पौष माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। प्रत्येक पर्व के पीछे लोक कल्याण की भावना छिपी रहती है। लोक कल्याण की इसी भावना के कारण लोक पर्वो का स्वरूप व्यापक बन पड़ता है। लोक कल्याण की इसी उदात्त भावना का लोकपर्व है ‘छेरछेरा‘। छेरछेरा मनाये जाने की परम्परा छत्तीसगढ़ में ही दिखाई देती है। यह सहकार, सद्भाव और सामाजिक सौहार्द्र का लोक पर्व हैं। गाँव के सभी जन आबाल-वृद्ध, स्त्री-पुरूष याचक के रूप में अन्न माँगते हैं। और गृह स्वामी या गृह स्वामिनी उदारता के साथ अन्न का दान कर दानी की संज्ञा पाते हैं। गाँव में छेरछेरा की अनुगूँज इस तरह सुनाई पड़ती है।
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेर छेरा।
माई कोठी के धान ल हेर हेरा।।
उपरोक्त पंक्तियों को गाते हुए बच्चों और युवाओं के साथ ही सयानों की अलग-अलग टोली ढोलक, हारमोनियम, बेंजो व झांझ-मंजीरों के साथ घर-घर भ्रमण करती है। और कहती है- ‘‘हम छेर छेरा मांगने आए हैं। यह अन्नदान का महापर्व है। अपनी माई कोठी (बड़े अन्नागार) से धान निकालकर दान करो और पुण्य के भागी बनो। बच्चों में विशेष उत्साह होता है। वे अपनी कमर में घांघरा व पैरों में पैजन-घुँघरू पहन कर नाचते हैं। तब गृह स्वामिनी उन्हें यथाशक्ति अन्नदान कर पुण्य की भागिनी बनती है। छेरछेरा अन्नदान का महापर्व है, जिसमें सभी लोग मालिक-मजदूर, छोटे-बडे़ सब बिना भेद भाव के परस्पर एक-दूसरे घर जाकर छेरछेरा नाचते हैं। इससे आदमी का अंहकार मिटने पर ही मनुष्य विनम्र बनता है। छेरछेरा नाचने से श्रेष्ठता या अंहकार तिरोहित हो जाता है। मांगने से विनम्रता आती है। अंहकार की भावना समाप्त हो जाती है। गाँव में छेरछेरा के दिन प्रत्येक घर में आवाज गूजँती है।
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेरछेरा
माई कोठी के धान ल हेर हेरा।
अरन दरन कोदो दरन
जबे देबे तभे टरन।
धनी रे पुनी रे ठमक नाचे डुवा-डुवा
अंडा के घर बनाए पथरा के गुड़ी
तीर-तीर मोटियारी नाचे, माँझ म बूढ़ी।
धन रे पुनी रे ….
कारी कुकरी करकराय, पुसियारी सेय,
बुढ़िया ल पाठा मिले, मोटियारी रोय।
धनी रे पुनी रे …….
कबरी बिलई दऊड़े जाय, कुकुर पछुवाय,
बिलई ह टाँग मारय कुकुर गर्राय।
धनी रे पुनी रे ……
अन्नदान में विलम्ब होते देख बच्चे फिर गाते हैं –
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेरछेरा
माई कोठी के धान ल हेर हेरा
अरन-दरन कोदो दरन
जभे देबे तभे टरन।
एक बोझा राहेर काड़ी दू बोझा काँसी
पिंजरा ले सुवा बोले,मन हे उदासी।
तारा ले तारा लोहाटी तारा
जल्दी-जल्दी बिदा कारो जाबो दूसर पारा।
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेरहेरा।
छत्तीसगढ़ का लोक जीवन प्राचीन काल से ही दान परम्परा का पोषक रहा है। कृषि यहाँ का जीवनाधार है और धान मुख्य फसल। किसान धान को बोने से लेकर कटाई और मिंजाई के बाद कोठी में रखते तक दान परम्परा का निर्वाह करता है। छेर छेरा के दिन शाकंभरी देवी की जयंती मनाई जाती है। ऐसी लोक मान्यता है कि प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ में सर्वत्र घोर अकाल पड़ने के कारण हाकाकार मच गया। लोग भूख और प्यास से अकाल मौत के मुँह में समाने लगे। काले बादल भी निष्ठुर हो गए। नभ मंडल में छाते जरूर पर बरसते नहीं। तब दुखी जनो के पूजा-प्रार्थना से प्रसन्न होकर अन्न, फूल-फल व औषधि की देवी शाकम्भरी प्रगट हुई और अकाल को सुकाल में बदल दिया। सर्वत्र खुशी का माहोल निर्मित हो गया है। इन्ही शाकंभरी देवी की याद में ‘छेर छेरा‘ बनाया जाता है। यह भी लोक मान्यता है कि भगवान शंकर ने इसी दिन नट का रूप धारण कर पार्वती (अन्नपूर्णा) से अन्नदान प्राप्त किया था। छेरछेरा पर्व इतिहास की ओर भी इंगित करता है। प्राचीन समय में गाँव की व्यवस्था मुखिया के हाथों में होती थी। मुखिया किसानों से टेक्स (भरना) अन्न के रूप में प्राप्त करते थे और उसे राजा तक पहुँचाते थे। पौष पूर्णिमा को यह टेक्स बाजे-गाजे के साथ वसूला जाता था। परम्परा का प्रारंभ चाहे जिन मान्यताओं से हुआ हो, ‘छेरछेरा‘ अन्नदान का महापर्व है।
छेरछेरा से प्राप्त अन्न से छत्तीसगढ़ में कितनी ही संस्थाएं रामायण मंडली, लीला मंडली, सहकारी बैंक के रूप में रामकोठी, शिक्षा मंदिर के रूप में जनता स्कूल आदि की शुरूआत हुई है, जो सहकारिता की भावना को पुष्ट करती है। भौतिकवादी, स्वार्थी व शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था से पीड़ित लोगों की मुक्ति के लिए छेरछेरा सहकार का संदेशवाहक है। गाँवों में आज भी स्कूली बच्चे छेरछेरा के दिन छेरछेरा मांग कर शाला के विकास में सहभागी बनते हैं और अपनी सुखद भविष्य के लिए सहकारिता की भावना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। छेरछेरा का महापर्व अन्नदान के साथ-साथ सहकार की भावना का प्रबोधक है।
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