कथा कहानियों में से इतिहास निकल कर सामने आता है। एक बार की बात है, पलासिनी (जोंक) नदी के किनारे डूंडी शाह एवं कोंहंगी शाह नामक भाईयों ने आठ एकड़ भूमि पर चने की फ़सल उगाई थी। इस फ़सल को कोई जानवर रात्रि में आकर नष्ट कर जाता था। भाईयों ने उस जानवर का पता करने के लिए रात्रि की चौकीदारी की, इस दौरान उन्हें विशालकाय पाँच पैर वाला सुअर फ़सल नष्ट करता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने तीर चलाकर उसे घायल कर दिया।
वह जानवर चिंघाड़ कर भागा, पीछा करने पर वह गढ़पटना पहुंचा। वहां जाने पर इन्हें पता चला कि यह पाँच पैर का सुअर नहीं बल्कि हाथी है। उन्होंने दरबार में पहुंच कर शिकार पर दावा किया और हाथी को खींच कर बाहर निकाल लाए। गढ़पटना का राजा इनके दुस्साहस से चकित था, उसने कूटनीति खेली।
सजा देने की बजाए सोनईगढ़ (नर्रा) को इनसे कब्जा करवाने की सोची। उसने सोनईगढ के राजा भैना को मारकर राज्य जीतने कहा। दोनों भाईयों ने वीरता पूर्वक लड़कर राजा भैना को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद गढपटना के राजा ने इन भाईयों को वह राज्य सौंप दिया। कहते हैं हाथी को सुअर समझ कर मारने के कारण सोनई गढ़ का नाम सुअरमारगढ़ पड़ा।
छत्तीसगढ़ अंचल में मृदाभित्ति दुर्ग बहुतायत में मिलते हैं। प्राचीन काल में जमीदार, सामंत या राजा सुरक्षा के लिए मैदानी क्षेत्र में मृदाभित्ति दुर्गों का निर्माण करते थे एवं पहाड़ी क्षेत्रों में उपयुक्त एवं सुरक्षित पठार प्राप्त होने पर वहाँ प्रस्तर दुर्ग का निर्माण किया जाता था। दुर्गों के चारों तरफ़ गहरी खाई (परिखा) हुआ करती थी। जिसमें भरा हुआ पानी गढ की सुरक्षा एवं निस्तारी के काम आता था।
ऐसा ही दुर्ग सुअरमारगढ़ रायपुर से लगभग 115 किलोमीटर पूर्व दिशा में स्थित है, जिसे सुअरमालगढ़ या सुअरमारगढ़ कहा जाता है। इसे रायपुर राज का 13 वां गढ़ माना जाता है। वर्तमान महासमुंद जिले की बागबाहरा तहसील से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह गढ़ गोंड़ राजाओं के आधिपत्य में था। वर्तमान में कोमाखान में इन गोंड़ राजाओं के वंशज निवास करते हैं। कोमाखान में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में इनका महल भी है।
जनश्रुति है कि इस गढ़ के गढ़पति राजा भैना को गोंड बंधु डूंडी शाह एवं कोहगी शाह ने परास्त कर सुअरमार जमीदारी की नींव डाली थी। इस जमीदारी का सुअरमार नाम होने के पार्श्व में रोचक किंवदन्ती आपको प्रारंभ में बताई ही गई है। इस गढ़ को कलचुरियों जीतने का काफ़ी प्रयास किया परन्तु सफ़लता नहीं मिली।
छत्तीसगढ़ अंचल में सोनई-रुपई की चर्चा प्रत्येक जगह पर मिल जाती है। गत वर्ष देऊरपारा (नगरी) जाने पर वहाँ तालाब के किनारे सोनई-रुपई की चर्चा सुनने मिली। वहाँ मंदिर के पुजारी राजेन्द्र पुरी ने इन्हें धन से जोड़ दिया था और बताया था कि इस स्थान पर हंडा ढूंढने वाले आते हैं और यह सोनई और रुपई है।
सुअरमारगढ़ का प्राचीन नाम सोनई डोंगर था। इसे भी सोनई-रुपई के साथ संबंध किया गया है। किंवदन्ती है कि सोनई-रुपई नामक दो बहनें गोंडवाना राज्य की पराक्रमी योद्धा थी। ये बहनें प्रजावत्सल होने के साथ न्यायप्रिय होने के कारण प्रजा में सम्मानित थी।
इनका नाम सोना और रुपा था जो कालांतर में सोनई और रुपई के रुप में प्रचलित हो गया। इन बहनों कि बहादुरी के चर्चे दक्षिण कोसल में सभी स्थानों पर होने के कारण इन्हें देवी के रुप में पूजा जाने लगा। इसलिए अन्य स्थानों पर भी सोनई-रुपई की कहानी मिलती है।
सुअरमारगढ़ की परिखा 25 एकड़ में फ़ैली हुई है। पहाड़ी के पठार पर राजनिवास के अवशेष मिलते हैं। यह हिस्सा दो भागों में विभाजित है जिसे खोलगोशान कहा जाता है इसके अगुआ को गणपति कहते हैं। देवियाँ गढ़ पर विराजा करती हैं, यहाँ की गढ़ देवी को महामाया कहा जाता है।
कहा जाता है कि पूर्व में देवी को खुश करने के लिए नरबलि दी जाती थी। कालांतर में भैंसों की बलि दी जाने लगी अब बकरों और मुर्गों की बली दी जाती है। खोलगोशान के नीचे संत कुटीर है। राजा गुप्त मंत्रणा करने लिए इस कुटी में राजगुरु से मिलने आते थे। यहाँ का दशहरा प्रसिद्ध है, दशहरा मेला दस दिनों तक चला करता था। वर्तमान में नरबलि की प्रथा समाप्त हो चुकी है।
गढ़ का राजा न्यायप्रिय था, वह न्याय पाखर पर बैठ कर प्रजा की फ़रियाद सुना करता था और न्याय दिया करता था। दंड देने के लिए अपराधी को पत्थर से बांध कर पहाड़ी से नीचे फ़ेंक दिया जाता था। कहते हैं कि जो अपराधी पहाड़ी से गिरकर भी जिंदा बच जाता था उसे कुलिया गांव के सरार में दफ़ना दिया जाता था। इसलिए तालाब को टोनही सरार कहा जाने लगा।
वैसे भी मान्यता है कि टोनहीं मृत शरीर की साधना करके उसे जीवित कर लेती हैं और साधना करने के लिए एकांत के रुप में श्मशान या सुनसान स्थानों का उपयोग करती हैं। टोनही सरार की मान्यता के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है। किसी जमाने में यह स्थान दुर्गम वनों से आच्छादित क्षेत्र था। वर्तमान में सारे वन कट चुके हैं। गढ़ के एक स्थान को रानी पासा कहा जाता है, किंवदन्ती है कि पूर्व में रानियाँ मनोरंजनार्थ यहां पर पासा खेला करती थी।
कोमाखान रियासत के ठाकुर उमराव सिंह द्वारा सन 1856 में गढ परिसर में खल्लारी माता के मंदिर का निर्माण किया गया। जिसकी पूजा अर्चना सतत जारी है। वर्तमान में सुअरमार गढ़ के पूर्व जमींदार ठाकुर भानुप्रताप सिंह के प्रपोत्र ठाकुर उदय प्रताप सिंह एवं ठाकुर थियेन्द्र प्रताप सिंह मौजूद हैं तथा कोमाखान में निवास करते हैं। इनका पुराना राजमहल भी मौजूद है जो वर्तमान में खंडहर हो चुका है।
इन्होने सुअरमार गढ़ के विकास के लिए 33 एकड़ भूमि का दान किया है। सुअरमार जाने के लिए बस एवं रेल्वे की सुविधा उपलब्ध है। सुअरमार गढ़ के मुख्यालय कोमाखान से मात्र 2 किलोमीटर की दूरी पर रेल्वे स्टेशन हैं। जहां प्रतिदिन 6 रेलगाड़ियों का ठहराव है। रायपुर एवं महासमुंद से यहाँ के लिए बस एवं टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है। किसी जमाने में सुअरमार गढ़ छत्तीसगढ़ की महत्वपूर्ण रियासत थी। जिसके अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं। फ़ोटो- अतुल प्रधान से साभार
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