अभिनय मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। हर्ष, उल्लास और खुशी से झूमते, नाचते-गाते मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है अभिनय। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की झांकी गांवों के खेतों, खलिहानों, गली, चौराहों और घरों में स्पष्ट देखी जा सकती है। इस ग्रामीण अभिव्यक्ति को ‘लोक नाट्य’ कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य की प्राचीन परंपरा रही है। यही आगे चलकर नाटक के रूप में विकसित हुआ। ‘नाट्य शास्त्र’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रणयन दूसरी सदी में हुआ। भरत मुनि ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय, और अथर्वेद से रस लेकर इसकी रचना की। भरत मुनि के समक्ष लोकधर्म का आदर्श सर्वोपरि था। कदाचित् इसी कारण उन्होंने लोकधर्म के प्रति अपना अनुराग दर्शाया है। नाट्य शास्त्र में भी उल्लेख है :-
तद्ध्यात्माभिसंभूतं छन्द: भाब्द समन्वितम्।
लोकसिद्धं भवेत्सिद्धं नाट्यं लोकात्मकंत्विदम्।।
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य की प्राचीन परंपरा सरगुजा के रामगिरि और सीता बोंगरा गुफा में स्थित नाट्य शाला से सिद्ध होती है। यहां के शिलालेख में भी इसका उल्लेख है :-
आदि पयंति हृदयां सभावगरूकवयों यं रातयंदुले।
अवसंतिया हांसानुभूते कुदस्पीसं एवं अलंगेति।।
इन गुफाओं में स्थित नाट्य शालाओं की तुलना प्राचीन ग्रीक थियेटर से की जाती है। रंग शाला यानी थियेटर और लोकनाट्य के बारे में लोगों में अनावश्यक भ्रम होता है। थियेटर अपेक्षाकृत व्यापक भाब्द है और यूनानी भाब्द ‘थिया’ से लिया गया है। इसका अर्थ है ‘दृश्य’ और विशेषकर ‘देखने’ के अर्थ में यूनानी भाषा के ‘थडमा’ से साम्य रखता है। इसका अर्थ है-‘ऐसी वस्तु जो घूर घूरकर देखने को बाध्य करे’ दूसरी ओर ‘ड्रामा’ भाब्द भी यूनानी भाब्द ‘ड्रान’ से लिया गया है जिसका अर्थ है-‘अभिनय करना।’ भारतीय परिवेश में ‘थियेटर’ शब्द को ‘रंगभूमि’ का और ड्रामा को नाट्य के नजदीक माना गया है।
अविक्य कियोपतेम तिसत्वातिभाशितम्।
लोलांगहारभियं नाट्य लक्ष्मण लक्षितम्।।
स्वरालंकार संयुक्तमस्वर्भूरूशाश्रयम्।
यदोध शं भवेन्नाट्यं नाट्यधर्मोतुसास्मृता।।
अर्थात् नाट्य प्रकृत स्थिति भिन्न कलात्मक और विशिष्ट उद्देश्य का अग्रणी होता है, जबकि लोकनाट्य प्राकृतजन की अभिव्यक्ति को लोक रंजन के लिए कृतिम रूप से प्रस्तुत करता है। कालिदास ने ‘नाट्यं भिन्न स्वेजनिस्य बहुधात्येक समाराधनम्’ कहकर नाटक को सभी के लिए ग्राह्य बताया है। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध संस्कृत कवि और ‘उत्तर राम चरित्र’ के रचयिता भवभूति कहते हैं-‘ कालोह्यं निरवधि विपुला च पृथ्वी:।’
लोकनाट्य के तीन प्रमुख अंग होते हैं- १. बहिरंग। इसके अंतर्गत कथा का उद्याम आवेग, आंचलिक बोली, आंचलिक प्रतीकात्मक पात्र, आडम्बरहीन रंगमंच और सहज शृंगार प्रमुख होते हैं। २. अंतरंग। इसमें गीत और नृत्य प्रमुख होते हैं। ३. अभिनय। इन तीनों अंगों की समवेत प्रस्तुति ही मूलत: लोकनाट्य है। गीत इसके प्राण हैं और अभिनय से यह सजीव हो उठता है।
श्री गोपाल भार्मा अपने लेख-‘मध्यप्रदे श का हिन्दी नाट्य साहित्य’ में लिखते हैं-‘जिस समाज में रंगमंच का अभाव हो, वहां नाट्य साहित्य का उचित विकास नहीं हो पाता। रंगमंच से केवल एक पर्दे से सजे हुए मंच का बोध नहीं होता। इसके अंतर्गत कई बातें आती हैं। जिस समाज की अभिनय की ओर रूचि न हो, अभिनय कला को संगीत और चित्रकला के समान सम्मान और श्रद्धा की भावना से न देखा जाता हो, नाटक के प्रति आकर्शण के साथ साथ उसके तंत्र और साहित्य संबंधी बारीकियों का अर्थ समझकर आनंद लेने की वृत्ति न उत्पन हुई हो उस समाज में रंगमंच का अभाव है, ऐसा समझना चाहिए।’
एक समय था जब नाट्य साहित्य मुख्यत: अभिनय के लिए लिखा जाता था। कालिदास, भवभूति और शुद्रक आदि अनेक नाटककारों की सारी रचनाएं अभिनय सुलभ है। नाटक की सार्थकता उसकी अभिनेयता में है अन्यथा वह साहित्य की एक विशिष्ट लेखन भौली बनकर रह जाती। नाटक वास्तव में लेखक, अभिनेता और द र्शकों की सम्मिलित सृष्टि है। यही कारण है कि नाटक लेखकों के कंधों पर विशेष उत्तरदायित्व होता है। रंगमंच के तंत्र का ज्ञान पात्रों की सजीवता, घटनाओं का औत्सुक्य और आकर्षण तथा स्वाभाविक कथोपकथन नाटक के प्राण हैं। इन सबको ध्यान में रखकर नाटक यदि नहीं लिखा गया है तो वह केवल साहित्यिक पाठ्य सामाग्री रह जाती है। भारतीय हिन्दी भाशी समाज में रामलीला और नौटंकी का प्रसार था। कभी कभी रास मंडली भी आया करती थी जो अष्टछाप के काव्य साहित्य के आधार पर राधा कृष्ण के नृत्यों से परिपूर्ण संगीत प्रधान कथानक प्रस्तुत करती थी। रामलीला और रासलीला को लोग धार्मिक भावनाओं से देखते थे। गांवों में जो नौटंकी हुआ करती थी उसका प्रधान विषय वीरगाथा अथवा उस प्रदेशिक भाग में प्रचलित कोई प्रेम गाथा हुआ करती थी। ग्रामीणजन का मनोरंजन करने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता था।
मुगलों के आक्रमण के पूर्व भारत के सभी भागों में खासकर राज प्रसादों और मंदिरों में संस्कृत और पाली प्राकृत नाटकों के लेखन और मंथन की परंपरा रही है लेकिन उनका संबंध अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित था। ग्रामीणजन के बीच परंपरागत लोकनाट्य ही प्रचलित थे। मुगलो के आक्रमण से भारतीय परंपराएं छिन्न भिन्न हो गयी और यहां के प्रेक्षागृह भग्न हो गये। तब नाटकों ने दरबारों में भाण और प्रहसन का रूप ले लिया। लेकिन लोकनाट्य की परंपरा आज भी जीवित है…चाहे ढोलामारू, चंदायन या लोरिकियन रूप में हो, आज भी प्रचलित है। आज हमारे बीच जो लोकनाट्य प्रचलित है उसका समुचित विकास मध्य युग के धार्मिक आंदोलन की छत्रछाया में हुआ। यही युग की सांस्कृतिक चेतना का वाहक बना। आचार्य रामचंद्र ने राम कथा को और आचार्य बल्लभाचार्य ने कृष्ण लीला को प्रोत्साहित किया। इनके शिष्यों में सूर और तुलसी ने क्रमश: रासलीला और रामलीला को विकसित किया। इसी समय बंगाल में महाप्रभु चैतन्य ने जात्रा के माध्यम से कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य दो रूपों में विकसित हुआ। एक तो निम्न वर्ग के देवार, नट, भट आदि लोगों में आल्हा उदल, ढोला मारू जैसी परंपरा को तथा पंडु, कंवर और संवरा जाति में पंडवानी और पंथी को विकसित किया। छत्तीसगढ़ में इसका प्रचार प्रसार लगभग १६ वीं और १७ वीं शताब्दी के मध्य हुआ। उत्तर भारत के रासलीला और रामलीला मथुरा, वृंदावन, का शी और इलाहाबाद से सतना, रीवा, अमरकंटक होते हुए पेंड्रा, रतनपुर, शिवरीनारायण, अकलतरा, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, नरियरा, बलौदा, कवर्धा, कोसा और राजिम आदि में फैल गया। इसलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में ब्रज और अवधी का पुट मिलता है। दूसरी ओर बंगाल की जात्रा, उड़ीसा की पाल्हा, जगन्नाथपुरी से सुंदरगढ़, संबलपुर, सारंगढ़, चंद्रपुर, पुसौर, रायगढ़, और तमनार आदि जगहों मेंं फैल गया। यहां की नाट्य परंपराओं में इसका स्पश्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
डॉ. बल्देव से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह के भाशसनकाल में नगर दरोगा ठाकुर रामचरण सिंह जात्रा से प्रभावित रास के निश्णात कलाकार थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रामलीला और रासलीला के विकास के लिए अविस्मरणीय प्रयास किया। गौद, मल्दा, नरियरा और अकलतरा रासलीला के लिए और शिवरीनारायण, किकिरदा, रतनपुर, सारंगढ़ और कवर्धा रामलीला के लिए प्रसिद्ध थे। नरियरा के रासलीला को इतनी प्रसिद्धि मिली कि उसे ‘छत्तीसगढ़ का वृंदावन’ कहा जाने लगा। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, उनके बहनोई कोसिरसिंह और भांजा वि वे वर सिंह ने नरियरा और अकलतरा के रासलीला और रामलीला के लिए अथक प्रयास किया। उस काल में जांजगीर क्षेत्रान्तर्गत अनेक गम्मतहार सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मणदास चिकरहा को नाचा पार्टी में रास का यथेष्ट प्रभाव देखने को मिलता था। उस समय दादूसिंह गौ्ड़ और ननका रहस मंडली, रानीगांव रासलीला के लिए प्रसिद्ध था।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन् देश के कोने में प्रसिद्ध था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। ”छत्तीसगढ़गौरव” में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है :-
ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। भोगहा जी की एक मात्र प्रकाशित नाटक ”राम राज्य वियोग” में उन्होंने लिखा है :- ”यहां भी कई वर्ष नित्य हरि कीर्तन, नाटक और रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक समय मेरे छोटे भाई श्रीनिवास ने ”कंस वध उपाख्यान” का अभिनय दिखाकर सर्व सज्जनों को प्रसन्न किया। इस मंडली में हमारे मुकुटमणि श्रीमान् महंत गौतमदास जी भी सुशोभित थे। श्रीकृष्ण भगवान का अंतर्ध्यान और गोपियों का प्रलापना, उनके हृदय में चित्र की भांति अंकित हो गया जिससे आपकी आनंद सरिता उमड़ी और प्रत्यंग को आप सोते में निमग्न कर अचल हो गये। अतएव नाटक र्कत्ताका उत्साह अकथनीय था और एक मुख्य कारण इसके निर्माण का हुआ।”
इस सदी के दूसरे दशक में महंत गौतमदास के संरक्षण में पंडित विश्वेश्वर तिवारी के कुशल निर्देशन में एक नाटक मंडली संचालित थी जिसे उनके पुत्र श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने ”महानद थियेटिकल कम्पनी” नाम से कुशलता पूर्वक संचालित और निर्देशित किया। इसी प्रकार श्री भुवनलाल शर्मा ”भोगहा” के निर्देशन में नवयुवक नाटक मंडली और श्री विद्याधर साव के निर्देशन में केशरवानी नाटक मंडली यहां संचालित थी। श्री कौशलप्रसाद तिवारी ने भी एक बाल महानद थियेटिकल कम्पनी का गठन किया था। आगे चलकर इस नाटक मंडली को उन्होंने महानद थियेटिकल कंपनी में मिला दिया। पंडित कौशलप्रसाद तिवारी पारसी थियेटर के अच्छे जानकार थे। उनको नाटकों का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे नाटक मंडली के केवल निर्देशक ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। कलकत्ता के नाट्य मंडलियों और निर्देशकों से उनका सतत् संपर्क था। हिन्दुस्तान के प्राय: सभी नाट्य कलाकार शिवरीनारायण में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। तिवारी जी सभी कलाकारों का बहुत ख्याल रखते थे। उनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की बहुत अच्छी व्यवस्था करते थे। वे कलकत्ता के के. सी. दास एण्ड कंपनी से रसगुल्ला और फिरकोस नामक दुकान से जो आज फ्लरिज के नाम से प्रसिद्ध है, से पेस्टी मंगाते थे। चूंकि नाटकों के मंचन और उसकी तैयारी में बहुत खर्च होता था और यहां के लोगों के लिये ही नाटक एक मात्र मनोरंजन का साधन होता था। अत: मठ के महंत श्री गौतमदास और मठ के मुख्तियार श्री विश्वेश्वर प्रसाद तिवारी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को नाटक की तैयारी और मंचन के लिये आर्थिक मदद देने लगे। इससे यहां का नाटकों का मंचन बहुत अच्छा होता था। दशहरा-दीपावली के बाद से नाटकों का रिहर्सल शुरू होता था और गर्मी के मौसम में रात्रि में नाटकों का मंचन होता है जिसे देखने के लिये छत्तीसगढ़ के राजा, महाराजा और जमींदार तक यहां आते थे। नाटकों का मंचन पहले केशवनारायण मंदिर का प्रांगण में होता था। फिर मठ के गाधी चौरा प्रांगण में और बाद में बाजार में कुआं के बगल में नाटकों का मंचन होता था। महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को कलकत्ता के डॉ. अब्दुल शकूर और खुदीराम बोस रिहर्सल कराने आते थे। तब उन्हें ”बाजा मास्टर” कहा जाता था। सबके प्रयास से नाटकों का मंचन प्रभावोत्पादक, मनोरंजनपूर्ण और आकर्षक होता था। इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का सुन्दर समन्वय होता था। श्री कौशलप्रसाद तिवारी, श्री रथांग पांडेय और श्री गुलजारीलाल शर्मा से मेरी इस सम्बंध में चर्चा होती थी। नाटकों के प्रति मेरी अभिरूचि देखकर वे उस काल की जानकारी दिया करते थे। उन्होंने मुझे बताया कि सन् १९४४-४५ के मेला में अंग्रेज सरकार के सहायतार्थ नाटकों का मंचन मेला के मैदान में किया गया था। इसे देखने के लिये सारंगढ़ के राजा, भटगांव, बिलाईगढ़, अकलतरा, पिथौरा के जमींदार और अनेक गांव के मालगुजार और अंग्रेज अधिकारी और बिलासपुर जिले के कलेक्टर सहित बहुत लोग आये थे। सभी सिनेमा और सर्कस खाली और जैसे पूरी भीड़ नाटक देखने के लिये उमड़ पड़ी थी। नाटक के एक ट्रिक सीन को देखकर अंग्रेज अधिकारी बहुत उत्तेजित हो गये थे जिन्हें बड़ी मुश्किल से शांत किया जा सका था। एक विश्वस्त सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी के द्वारा महानद थियेटिकल कंपनी का निर्माण और नाटकों का पहला मंचन सन् १९२५ में हुआ और अंतिम नाटक सन् १९५२ में खेला गया था।
महानद थियेटिकल कम्पनी के द्वारा मंचित नाटकों में प्रमुख रूप ये धार्मिक और सामाजिक नाटक होते थे। धार्मिक नाटकों में सीता वनवास, सती सुलोचना, राजा हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु, दानवीर कर्ण, सम्राट परीक्षित, कृष्ण और सुदामा, भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीष आदि सामाजिक नाटकों में आदर्श नारी, दिल की प्यास, आंखों का नशा, नई जिंदगी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, आदि प्रमुख थे। इस थियेटिकल कम्पनी के प्रमुख पात्रों में श्री कौशलप्रसाद तिवारी, पंडित श्यामलाल, पंडित गयाराम, पंडित ओंकारप्रसाद, विश्वेशर चौबे, बनमाली भठ्ठ, प्यार पठान, गुलजारीलाल शर्मा, लक्ष्मण चौबे, रामगुलाम साव, जवाहर जायसवाल, भीम साव, बोधी पांडेय, दीनबंधु पोद्दार, मोहन भट्ट, रथांग पांडेय, भूषण तिवारी, मातादीन सेठ, हरि महाराज, सीताराम हलवाई, याकूब पठान, भालचंद्र तिवारी, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी, केदार मुकिम, लादूराम पुजारी आदि प्रमुख थे। इनमेें गयाराम पांडेय अर्जुन और कंस, गुलजारीलाल शर्मा हिरण्य कश्यप, मातादीन केडिया दुर्योधन, लादूराम पुजारी द्रोणाचार्य और शंकर, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी राणाप्रताप और भालचंद्र तिवारी प्रमुख नायक के रूप में तथा विश्वेशर चौबे, लक्ष्मण शर्मा, केदार मुकिम प्रमुख नायिका के अभिनय के लिये बहुत चर्चित थे। श्यामलाल शर्मा, बनमाली भट्ट और विश्वेश्वर चौबे हास्य कलाकार थे।
श्री भुवनलाल शर्मा भोगहा द्वारा निर्देशित और संचालित ”नवयुवक नाटक मंडली” वास्तव में पंडित मालिकराम भोगहा के नाटक मंडली का नवीनतम रूप था। इस नाटक मंडली को कलाकारों के आपसी झगड़े के कारण बनाया गया था। इनके नाटकों का मंचन केशवनारायण मंदिर प्रांगण में और भोगहापारा में थाना चौक के आसपास किया जाता था। इस मंडली के प्रमुख पात्रों में भुवनलाल शर्मा, रामेश्वर पांडेय, साहेबलाल तिवारी, दुखुराम तिवारी, ज्ञानदेव, ननकेसर उपाध्याय, लक्ष्मी दाऊ, रामगोपाल तिवारी, सीताराम तिवारी, चुन्नीलाल तिवारी, रामशरण पांडेय, देवीप्रसाद तिवारी, केशव भट्ट, विशाल रावत, रामजी यादव, बद्री यादव, होली नाई, छेड़ूराम, लखन छिपिया, रामरूप, टकसार दास वैष्णव, पुरूषोत्तम कश्यप, कुंजराम कर्ष, विजयकुमार तिवारी, कपिल तिवारी, गंगाराम पोद्दार आदि प्रमुख थे। इस नाटक मंडली द्वारा बहुत दिनों तक नाटकों का मंचन किया जाता रहा है। इनमें धार्मिक, सामाजिक और हास्यप्रद नाटकों की बहुलता होती थी। आज भी भोगहा जी के घर और मंदिर प्रांगण में नाटक की सामाग्री देखने को मिल जायेंगे।
श्री विद्याधर केशरवानी द्वारा निर्देशित और संचालित ”केशरवानी नाटक मंडली” माखन साव परिवार के बच्चों की जिद का परिणाम था। इस नाटक के प्रमुख कलाकारों में तिजाऊप्रसाद, भालचंद्र तिवारी, भीमप्रसाद, रामेश्वरप्रसाद, देवालाल, सेवकलाल, अम्बिकाप्रसाद, सत्यनारायण, परमेश्वर प्रसाद, और मोतीलाल केशरवानी के अलावा मोहितराम सराफ और शरद् तिवारी प्रमुख थे। श्री मोहितराम सराफ नाटक और संगीत को इतने समर्पित थे कि वे दुरपा से रात में अकेले शिवरीनारायण आ जाया करते थे। आज वे चांपा में सराफा के व्यावसायी हैं। मैं भी यहां के माखन वंश का बहुत छोटा पौध हूं। बचपन में मुझे हमारे कुलदेव के मंदिर परिसर में स्थित धर्मशाला के एक कमरे में नाटकों की सामाग्री, मोर मुकुट और पोशाक देखकर नाटकों में भाग लेने की इच्छा अवश्य होती थी। कुछ ऐसे अवसर भी आये जब मित्रों के साथ श्री भुवनलाल शर्मा के ”भोगहा नाटक मंडली” के मंच में उतरने का मौका मिला। भाई जीवन यादव, वीरेन्द्र तिवारी, सुखीराम कश्यप, तीजराम केंवट, राजेन्द्र केशरवानी, आदि ऐसे कलाकार हमारे साथ थे जिनकी आज केवल स्मृतियां शेष हैं। पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं :-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़! किसी प्रान्त से कम नहीं।।
इन नाटक मंडलियों के कलाकार प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे थे और केवल मनोरंजन के लिये नाटक मंडलियों से जुड़े थे। क्योंकि उस समय मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं था। महंत लालदास के जीते जी महानद थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को आर्थिक सहयोग मठ से मिलता रहा उसके बाद पूरी नाटक मंडली बिखर गयी। यहां के नाटकों में अल्फ्रेड और कोरियन्थर और पारसी थियेटर का स्पष्ट प्रभाव था। यह यहां के साहित्यिक पृष्ठभूमि का मजबूत अभिनय पक्ष है।
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