सावन माह लगते ही सवनाही तिहार मनाने का समय आ गया। सावन के पहले रविवार से गाँव-गाँव में सवनाही मनाने का कार्य प्रारंभ हो चुका है। इस दौरान ग्रामवासी गाँव एवं खार (खेत) में स्थिति समस्त देवी-देवताओं की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करने का यत्न करते हैं, जिससे गाँव में किसी तरह का रोग, महामारी आदि का प्रवेश न हो।
रथयात्रा के बाद सावन माह से छत्तीसगढ अंचल में त्यौहारों की झड़ी लग जाती है। छत्तीसगढ के लगभग सभी त्यौहार कृषि कर्म से जुड़े हुए हैं। सावन के महीने में वर्तमान में कांवरियों का जोर रहता है। प्रत्येक सोमवार को कांवरिये श्रद्धानुसार नदियों का जल लाकर समीस्थ शिवमंदिरों में अर्पित करने हैं। जिससे सावन भर पूजा-पाठ की चहल-पहल रहती है।
सावन के महीनें टोना-टोटका एवं जादू मंतर का भी जोर रहता है। नए जादू-टोना सीखने वाले इस महीने में गुरु बनाकर शिक्षा ग्रहण करते हैं तो गुरु अपने सिद्ध मंत्रों का प्रयोग कर उसको जाँचते भी हैं। मान्यता है भोले बाबा को सुर-असुर दोनो प्रिय हैं। इसलिए सावन के महीने में दोनो शक्तियाँ प्रबल रहती हैं और साधना करने पर शीघ्र फ़ल मिलता है।
ग्रामीण अंचल के लोग टोना-टोटका को मानते हैं और इसके दुष्प्रभाव से डरे रहते हैं। जादू-टोना से गाँव के जान-माल की रक्षा के लिए गाँव के देवता की पूजा की जाती है। उसे होम-धूप देकर प्रसन्न किया जाता है और उससे विनती की जाती है कि गाँव में किसी तरह रोग-शोक, बीमारी और विघ्न बाधा न आए।
सवनाही तिहार परम्परा पर इतवारी बैगा ने बताया कि गाँव के देवी-देवताओं की पूजा के लिए प्रत्येक गाँव में एक बैगा नियुक्त किया जाता है। बैगा की नियुक्ति गुरु-शिष्य परम्परा की गद्दी के हिसाब से तय होती है। जिस तरह किसी अखाड़े का महंत अपने किसी शिष्य को योग्य मानकर अपना उत्तराधिकारी बनाता है ठीक उसी तरह वृद्ध बैगा भी अपने किसी योग्य शिष्य को ही पाठ-पीढा (उत्तराधिकारी बनाता है) देता है। जिसे ग्रामवासी मान्यता देते हैं।
त्यौहारों एवं झाड़-फ़ूंक करने पर बैगा को उचित मान-दान दिया जाता है। जिससे उसका निर्वहन होता है। बैगा के हाथों में ही सभी ग्रामीण त्यौहार मनाने की जिम्मेदारी होती है। इसी तरह आषाढ के अंतिम सप्ताह या सावन के प्रथम सप्ताह में आने वाले प्रथम रविवार को “सवनाही तिहार” मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे उद्देश्य है कि जादू-टोना हारी-बीमारी से गाँव के जन, गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़ एवं अन्य पालतू जीव जंतुओं की हानि न हो। गाँव में चेचक, हैजा जैसी बीमारियां प्रवेश न करें एवं सभी सानंद रहें।
सवनाही तिहार मनाने के लिए पहला रविवार ही निश्चित किया जाता है। गाँव का कोटवार इसकी सूचना हाँका (मुनादी) करके समस्त ग्रामवासियों को देता है। इस दिन गाँव में सभी कार्य बंद रहते हैं। गाँव का निवासी यदि कहीं गाँव से बाहर भी काम करने जाता है तो उस दिन उसे भी छुट्टी करनी पड़ती है। खेतों में कोई हल नहीं जोतता, कोई बैलागाड़ी नहीं फ़ांदता। सभी के लिए यह अनिवार्य छुट्टी का दिन होता है।
अगर कोई इस आदेश का उल्लंघन करता है तो उसके दंड की व्यवस्था भी है। दंड खिलाने-पिलाने से लेकर आर्थिक भी हो सकता है। इतवारी के दिन सिर्फ़ गाँव के चौकीदार को काम करने की छूट रहती है। सवनाही तिहार मनाने के लिए गाँव में बरार (चंदा) किया जाता है। जिससे पूजा पाठ का सामान खरीदा जाता है और बैगा की दान-दक्षिणा दी जाती है। सवनाही पूजा करने बाद ही गाँव में इतवारी छुट्टी मनाने की परम्परा है। जो 5-7 इतवार तक मानी जाती है। अधिकतर गांवों में पाँच इतवार ही छुट्टी की जाती है।
शनिवार की रात में बैगा के साथ प्रमुख किसान गाँव के समस्त देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। इस रात बैगा के साथ जाने वाले समस्त लोग रात भर घर नहीं जाते और सोते भी नहीं। गाँव के किसी सार्वजनिक स्थान (मंदिर, देवाला, स्कूल) में रात काट देते हैं।
फ़िर रविवार को पहाती (सुबह) होते ही चरवाहे गाँव के सभी मवेशियों को को चारागन में इकट्ठा कर देते हैं, उसके बाद मवेशियों के मालिक अपने घर से पलाश के पत्ते में कोड़हा (धान का चिकना भूसा) से बनी हुई अंगाकर रोटी के साथ कुछ द्रव्य लाकर राऊत और बैगा को देते हैं। जिसे लेकर बैगा और राऊत मवेशियों के साथ गाँव की पूर्व दिशा में सरहद (सियार) पर जाते हैं। वहाँ स्थित सवनाही देवी की पूजा की जाती है।
पूजा के लिए एक जोड़ा नारियल, सिंदूर, नींबू, श्रृंगार का सामान, काले, सफ़ेद, लाल झंडे, टुकनी, सुपली, चूड़ी, रिबन, फ़ीता के साथ काली मुर्गी एवं कहीं-कहीं दारु का इस्तेमाल भी किया जाता है। पूजा के लिए नीम की लकड़ी की छोटी सी गाड़ी बनाई जाती है। जिसे लाल,काले और सफ़ेद ध्वजाओं से सजाया जाता है।
बैगा अपने साथ लाया हुआ पूजा का सामान देवी-देवताओं को अर्पित करता है और समस्त ग्राम देवी-देवताओं का स्मरण कर गाँव की कुशलता की प्रार्थना करता है। इसके बाद देवी की सात बार परिक्रमा करके कोड़हा की रोटी का देवी को भोग लगाकर सियार के उस पार रख देता है।
इसके पश्चात काली मुर्गी के सिर पर सिंदूर लगा कर उसे सियार के उस पार भुत-प्रेत-रक्सा की भेंट के लिए छोड़ दिया जाता है। फ़िर बैगा वहां से चल पड़ता है, इस समय उपस्थित लोगों के लिए पीछे मुड़ कर देखना वर्जित होता है। ऐसी मान्यता है कि पीछे मुड़ कर देखने से सवनाही देवी नाराज होकर सभी भूत-प्रेतों को सियार (सरहद) पर ही छोड़ कर चली जाती है।
सभी जानवरों को वापस गाँव में लाया जाता है। नारियल फ़ोड़ कर प्रसाद बांटा जाता है, यह प्रसाद सिर्फ़ उन्हे ही दिया जाता है जो बैगा के साथ पूजा-पाठ में सम्मिलित रहते हैं। भोग लगाने के बाद बची हुई कोड़हा की रोटी को मवेशियों को खिलाया जाता है।
सवनाही तिहार के दिन लोग घरों में गाय के गोबर से हाथ की चार अंगुलियों द्वारा घर के दरवाजे पर आदिम आकृति बनाई जाती है। जो कहीं मनुष्याकृति होती है तो कहीं शेर इत्यादि बनाने की परम्परा है। इन आकृतियों से जोड़ कर चार अंगु्लियों की गोबर की रेखा घर के चारों तरफ़ बनाई जाती है। जैसे गोबर की रेखा से घर को चारों तरफ़ से बांध दिया गया हो।
इस बंधने का उद्देश्य यही है कि कोई भूत प्रेत या गैबी शक्ति घर के निवासियों को परेशान न करे। अगर गैबी ताकतें आती भी हैं तो बंधन होने से घर में प्रवेश नहीं कर पाएगीं जिससे परिवार हानि से बचा रहेगा। यह टोटका गाँव के कच्चे पक्के घरों में दिखाई देता है। घरों के बाहर गोबर की लकीरें खींची हुई दिखाई देती है।
वर्तमान युग में भले ही यह कार्य आदिम लगता हो, लेकिन गाँव में अभी तक प्रचलित है और ग्रामवासियों को संतुष्टि देता है। जिससे वे साल भर अपना कृषि कार्य निर्बाध होकर करते हैं। लगभग छत्तीसगढ के सभी जिलों में यह त्यौहार मनाया जाता है।
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