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वासंती माटी पर खिले भारत की स्वाधीनता के पुष्प

(आजादी के अमृत महोत्सव पर विशेष आलेख)

प्रसिद्ध इतिहासकार ई. एच. कार ने कहा था-“इतिहास वर्तमान काल और भूत काल के बीच एक निरंतर संवाद है। इतिहास का दोहरा काम मनुष्य को अतीत के समाज को समझने और वर्तमान समाज के अपने ज्ञान को बढ़ाने में सक्षम बनाना है।” इतिहासकार ई. एच. कार के उपर्युक्त कथन के सन्दर्भ में आज हमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और आजादी के अमृत महोत्सव की महत्ता को समझने हेतु भारतीय इतिहास और संस्कृति की सम्पूर्ण व्याख्या को पुनः निःस्वार्थ भाव से स्मरण करने की जरूरत है और इस हेतु आवश्यक है कि हम अपनी मृतवत संवेदना को जगाए और भारत के गौरवशाली इतिहास और दीर्घ स्वतंत्रता संग्राम पर निष्काम भाव से विहंगम दृष्टिपात करे ताकि हम अपने उस आवृत, छुपे हुए इतिहास से परिचित हो सके जिसमे अनगिनत ऐसे नाम भी सम्मिलित है जिनके योगदान के बिना हमारी आजादी कभी सम्भव न होती।

आज जब 15 अगस्त 2022 को भारत की स्वतंत्रता का 75 वर्ष पूरे हो जाएंगे और हम सभी आजादी के अमृत महोसत्व को सहर्ष मना रहे है तब भी अनगिनत नाम ऐसे है जिनके त्याग,बलिदान और आजादी के संघर्ष से हम परिचित ही नही है और वे इतिहास की गुमनाम गलियो में ही खो कर रह गए है। ऐसे में उन्हें याद करना ही आजादी के महोत्सव का गौरव भी है और उनके ऋण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का सही तरीका भी होगा।क्या हमें आजादी उन चंद महापुरुषों के संघर्ष से ही मिल गई थी जिनसे हम आज परिचित है? नही, सत्य तो यह है कि भारत की आज़ादी एक पैकेजिंग की तरह थी। इसमे पुरुर्षो, महिलाओं, बच्चों, उदारवादियों, उग्रवादियो, अहिंसावादियो, क्रान्तिकारियों, वैज्ञानिकों, साधु-संतों, सन्यासियों, गृहस्थियों, श्रमिको, मजदूरों, किसानों सब ने मिलकर यह लड़ाई लड़ी, यहां तक कि डकैतों तक ने इस लड़ाई को अपनी तरह से लड़ा था।

यह हमें नही भूलना चाहिए लड़ने का तरीका चाहे कोई भी हो, मूल भाव सिसकती हुई भारत माता को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराना ही था और इस मूल भाव के पीछे हमारी भारतीय संस्कृति का भी बहुत बड़ा योगदान था जिसकी मूल चेतना आध्यात्मिक है इसलिए स्वामी विवेकानंद ने ठीक ही कहा है कि-“भारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता की अमर आधारशिला पर स्थित है और भारत की स्वतंत्रता का भवन इसी पर निर्मित होगा।” और आगे जा कर अक्षरशः हुआ भी वही जो उन्होंने कहा था। क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति की भूलभुलैया में गुमराह हुई तत्कालीन युवा पीढ़ी जो प्राचीन भारतीय संस्कृति के गौरव को भूल कर स्वयं को हीन और तुच्छ समझने लगी थी, उन्हें पुनः जगाने और उठाने का जो महती कार्य इन सन्यासियों, योगियों ने आध्यात्मिक चेतना के बलबूते पर किया, वह कोई नही कर सकता था।

स्वामी विवेकानंद का मात्र एक आह्वान भारतीय युवाओं को जाग्रत करने को मशाल की भांति था-“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।”क्या भारत के स्वतंत्रता संग्राम का वास्तविक उद्घोष कठोपनिषद के स्वामीजी के चुने गए उक्त कथन में समाहित नही है।क्या भारतीय आजादी का सारा सार इसी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर नही फला फूला था? यह विचारणीय है कि भारतीय इतिहास ने भारतीय संस्कृति के मूल तत्व आध्यात्मिक बल को कैसे भूल दिया?साधु-संतों,योगियों, महर्षियों और सन्यासियों के महती अविस्मरणीय योगदान को भुलाया नही जा सकता है।

स्वामी विवेकानंद तो एक उदाहरण मात्र है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे संत सन्यासी जोगियों की पूरी एक कतार दिखाई पड़ती है- विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविंदो, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी सहजानंद सरस्वती, राम मोहनराय, केशवचंद्र सेन आदि अनेको नाम है जिन्होंने सोई हुई भारतीयता को जगा कर समाज मे राष्ट्रीय चेतना का स्वर फूंका। इन भारतीय संतों ने देश को स्वतंत्र कराने और यहां के धर्म, संस्कृति और सभ्यता को पुन: जाग्रत करने के लिए देशभर में घूम-घूमकर लोगों को जगाने का कार्य किया था। उन्होंने देश की जनता को एक करने के लिए सबसे पहले बल इस बात पर दिया कि धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर देश के लोगों के विचार एक होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान पर बल दिया और भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण पलों को लोगों के सामने रखा। उन्हें अपने गौरवशाली संस्कृति का पुनः स्मरण कराया।

वस्तुतःआध्यात्मिकता का किसी धर्म, संप्रदाय या मत से कोई संबंध नहीं होता है। आप अपने अंतर में स्वयं कैसे हैं, आध्यात्मिकता इसके बारे में है। आध्यात्मिक होने का मतलब है, भौतिकता से परे जीवन का अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अनंत आनन्द का स्रोत होती है आध्यात्मिकता और यही हमारे वेद वेदान्तियों का परम ज्ञान है।इस ज्ञान से भिज्ञ होने वाले सतही भेदभावो से स्वत: ही ऊपर उठ जाता है। इन संतो ने इसी आध्यात्मिकत चेतना से जोड़ कर उसे राष्ट्र चेतना से जोड़ दिया था।

भारतीयता के अनिवार्य तत्व एवं आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता से भारतीयता के जागरण की इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का सफल प्रयोग करने वाले हमारे यह प्रज्ञा पुरुष आजादी के इस महोत्सव पर स्मरणीय भी है और स्तुत्य भी है। क्योंकि व्यकि जब अपने अंतर से जुड़ता है तब वह अपनी जड़ों से जुड़ता है और भारतीयता हमारी मूल है।भारतीयता से तात्पर्य उस विचार या भाव से है जिसमें भारत से जुड़ने का बोध होता हो या भारतीय तत्वों की झलक हो या जो भारतीय संस्कृति से संबंधित हो। भारतीयता का प्रयोग राष्ट्रीयता को व्यक्त करने के लिए भी होता है। भारतीयता के अनिवार्य तत्त्व हैं – भारतीय भूमि, जन, संप्रभुता, भाषा एवं संस्कृति। इन मेधावान साधु संतों ने बल प्रयोग से पहले आत्मबल प्रयोग किया ताकि सोई हुई गुलाम मानसिकता को जगा सके क्योंकि जागा हुआ ही संघर्ष कर सकता है।

भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य सांस्कृतिक विरासत के इस अमूर्त तत्व आध्यात्मिकता ने ऐसा कमाल दिखाया कि मृत हुई संवेदनाए भी प्राणवंत हो उठी और स्वतंत्रता एक मांग न हो कर लोगो के लिए आवश्यकता और जुनून बन गई जिसे समय समय पर इन सन्यासियों ने इन्हें अपना नेतृत्व व मार्गदर्शन भी प्रदान किया। भारत की अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत 5000 साल पुरानी संस्‍कृति एवं सभ्‍यता से चली आ रही है। इसी अमूर्त विरासत के बारे में इंगित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान डा. ए एल बाशम ने अपनी पुस्तक ”भारत की सांस्‍कृतिक विरासत’’ में लिखा है ”हालांकि सभ्‍यता के चार मुख्‍य उद्गम होते हैं जो पूरब से पश्चिम की ओर प्रस्‍थान करने वाले चीन, भारत, फर्टाइल क्रिसेंट तथा भूमध्‍य रेखा, विशेष रूप से ग्रीक और इटली हैं, परंतु भारत अधिक श्रेय का हकदार है क्‍योंकि भारत ने अधिकांश एशिया के धार्मिक जीवन को गहन रूप से प्रभावित किया है। भारत ने प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से विश्‍व के अन्‍य भागों पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है।”वास्तव में बाशम का आकलन सही है। भारत की आजादी में भी आध्यात्मिक चेतना का बम व सन्यासियों के योगदान की महत्वपूर्ण भूमिका रही है किंतु अब तक स्वतंत्रता संग्राम में साधु-संतों के योगदान पर न के बराबर लिखा गया है। कारण चाहे जो भी रहें हों क्योंकि उनके योगदान को भुलाया नही जा सकता है।

दो सौ वर्षों की गुलामी के अंधकार ने हमारी संस्कृति, शिक्षा,धर्म और सभ्यता के गौरव को नष्‍ट कर दिया था, भारतीयता बरेंग हो चुकी थी और इस ध्वस्त की गई सांस्कृतिक इमारत का यह संस्करण वही कर सकते थे जो स्वयं भारत की तेजो मय संस्कृति के मर्मज्ञ आचार्य थे अत:इन साधु,संतो,सन्यासियों द्वारा आध्यात्मिक चेतना की कलम से लिखी गई इस इबारत ने तत्कालीन भटके हुए लोगो को ऐसे शिक्षित किया कि वे स्वयं के अस्तित्व, धर्म, संस्कृति और हमारे गौरवपूर्ण प्राचीन इतिहास का बोध कराती गई और वे पुनर्जागृत हो कर उसी स्वतंत्रता और गौरव को पुनः प्राप्त करने लालायित हो उठे। तब भारत में इस औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन स्व, स्वयं की भावना से प्रेरित हो गया जिसकी उस दौर में पूर्ण अभिव्यक्ति स्वधर्म, स्वराज और स्वदेशी की त्रयी के रूप में पूरे देश में मंथन कर रही थी। इस आंदोलन में साधु-संतों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप आध्यात्मिक चेतना लगातार एक अंतर्धारा के रूप में निर्बाध बह रही थी।अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध विश्व इतिहास में एक अनूठा उदाहरण है। यह एक बहुआयामी प्रयास था जिसमें एक ओर विदेशी आक्रमण के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध किया जा रहा था और दूसरी ओर समाज को मजबूत बनाने के लिए विकृतियों को दूर कर सामाजिक पुनर्निर्माण का कार्य किया जा रहा था।

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना का मूल उद्‍येश्य ही समाज सुधार और देश को गुलामी से मुक्त कराना था। उन्होंने धर्मांतरित हो गए हजारों लोगों को पुन: वैदिक धर्म में लौट आने के लिए प्रेरित किया और वेदों का सच्चा ज्ञान दिया। स्वामीजी जानते थे कि वेदों को छोड़ने के कारण ही भारत की यह दुर्दशा हो गई है इसीलिए उन्होंने वैदिक धर्म की पुन:स्थापना की। स्वामी दयानंद ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन की 1857 में हुई क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वामी विवेकानंद के 20-25 वर्ष पहले ही उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांति को चिंगारी बता दी थी। भगतसिंह, आजाद भी स्वामीजी से प्रेरित थे। दयानन्द कहा करते थे कि -“कोई भी राज्य कितना भी सुराज क्यो न हो कभी भी ‘स्वराज्य’ से श्रेष्ठ नही हो सकता है।” लोकमान्य तिलक ने भी स्वामी दयानंद स्वराज का पहला संदेशवाहक कहा था। उन्होंने मुंबई की काकड़बाड़ी में 7 अप्रैल 1875 में आर्य समाज की स्थापना कर हिन्दुओं में जातिवाद, छुआछूत की समस्या मिटाने का भरपूर प्रयास किया। गांधीजी ने भी आर्य समाज का समर्थन किया था। उन्होंने कहा भी था कि मैं जहां-जहां से गुजरता हूं, वहां-वहां से आर्य समाज पहले ही गुजर चुका होता है। आर्य समाज ने लोगों में आजादी की अलख जगा दी थी। आर्य समाज के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आंदोलन का प्रारंभ हुआ था। लाखो लोग उनसे प्रेरित हो कर आजादी के आंदोलन से जुड़े।

स्वामी दयानंद की परम्परा के वाहक स्वामी श्रद्धानंद

धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाले युगधर्मी महापुरुष श्रद्धानंद के विचार तो आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके विचारों के अनुसार स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, वेदोत्थान, धर्मोत्थान को महत्व दिए जाने की जरूरत है इसीलिए वर्ष 1901 में स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान ‘गुरुकुल’ की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में ‘गुरुकुल विद्यालय’ खोला गया जिसे आज ‘गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय’ नाम से जाना जाता है। महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी स्वामी श्रद्धानंद ने देश को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अनेक कार्य किए। पश्चिमी शिक्षा की जगह उन्होंने वैदिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया। इनके गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर स्वामीजी ने आजादी और वैदिक प्रचार का प्रचंड रूप में आंदोलन खड़ा कर दिया था जिसके चलते गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी।

सन्यासियों के द्वारा क्रांति का सूत्रपात

अंग्रेजो द्वारा सर्वाधिक शोषित प्रान्त बंगाल को तो खंगाल कर देखा जाए तो जितने क्रांतिकारी, वीर, विद्वानों का खून वहां आजादी के लिए उबाल मार रहा था उतनी ही स्वतंत्रता की प्रचंड हिलोर बंगवासी सन्यासियों, साधु संतों वैरागियों, महर्षियों और संथालो के ह्रदयों में उमड़ी पड़ी थी।बंगाल के इतिहास में सारे पृष्ठ क्रान्तिकारो वीरो और सन्यासियों के योगदान से रंगे हुए मिलेंगे। बंगाल में आजादी के दीवाने साधु संतों की कतारें लगी पड़ी दिखती है जिसकी चर्चा वहां के साहित्य में भी खूब हुई है, चाहे वह संथाल विद्रोह हो, सन्यासी विद्रोह या फिर विवेकानंद हो या अरविंदो या फिर टैगोर।

देश में बंगाल में हुए आंदोलन की कड़ी में संन्यासियों के आंदोलन की चर्चा भी प्रमुखता से की जाती है। बंगाल में सबसे ज्यादा अत्याचार हिन्दुओं पर होता था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं को उनके तीर्थ स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था जिसके चलते शांत रहने वाले संन्यासियों में असंतोष फैल गया। बंगाल में हिन्दुओं का धर्मांतरण चरम पर था। गरीब जनता की कोई सुनने वाला नहीं था। अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1763 से 1773 तक चला संन्यासी आंदोलन सबसे प्रबल आंदोलन था।

आदिगुरु शंकराचार्य के दसनामी संप्रदाय ने एकजुट होकर भारतीय धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए शस्त्र युद्ध का बिगुल बजाया था। इतिहास प्रसिद्ध इस विद्रोह की स्पष्ट जानकारी बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंद मठ’ में मिलती है। इस विद्रोह को कुचलने के लिए वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्रवाई करनी पड़ी थी। उसने बेरहमी से संन्यासियों और हिन्दू जनता का कत्लेआम किया। इस आंदोलन के बाद देश का संन्यासी और भी अधिक जाग्रत हो गये।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रेरक अध्याय है जिसमें हिंदू सन्यासियों व मुस्लिम फकीरों ने हथियार उठाए और दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इसे भारत में सन्यासी-फकीर विद्रोह के रूप में जाना जाता है। यह 18वीं शताब्दी के दौरान बंगाल और बिहार के क्षेत्र में तीन दशकों तक चलने वाला बड़ा विद्रोह था। इस दौरान बंगाल में विनाशकारी अकाल भी आया जिसमें करीब एक करोड़ लोग मारे गए। भूख और प्राकृतिक आपदा ने लोगों का जीवन बर्बाद कर दिया। इसके बावजूद कंपनी सरकार ने अपनी दमनकारी नीति से जबरन टैक्स वसूलने शुरू किए थे। तब यह सन्यासी-फकीर विद्रोह उसी शोषणकारी नीति के खिलाफ आरम्भ हुआ था। इन संन्यासियों में उल्लेखनीय नेतृत्वकर्ताओं के नाम मोहन गिरि और भवानी पाठक तथा फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने कम्पनी का खजाना लूट लिया, भारी मात्रा में खून खराबा हुआ और दीर्घकाल तक चलने वाले इस विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजो के तीन दशक तक पसीने छूटे रहे।

गिरी संन्यासी विद्रोहियों ने अपनी स्वतंत्र सरकार बोग्रा और मैमनसिंह में स्थापित की थी। इनकी आक्रमण पद्धति गोरिल्ला युद्ध पर आधारित थी। संन्यासी विद्रोह बंकिम चंद्र के उपन्यास ‘आनंदमठ’ का मूल आधार है। यहाँ तक कि संन्यासी विद्रोह में अंग्रेजों के खिलाफ “वन्दहूँ माता भवानी” का जो नारा लगाया जाता था, वही आगे चलकर बंकिमचंद्र के “वन्देमातरम” का प्रेरणास्रोत बना जो आज हमारा राष्ट्र गीत भी है। इस ब्राह्मण योद्धा महाराज को इतिहास की पुस्तकों से योजनाबद्ध तरीके से गायब किया गया। हालाँकि आनंद भट्टाचार्य, जैमिनी मोहन घोष, कुलदीप नारायण, जगदीश नारायण, मैनेजर पाण्डेय, भोलानाथ सिंह जैसे इतिहासकारों एवं लोक-गायकों ने महाराज फतेह बहादुर शाही की वीरता के किस्सों को अपनी स्थानीय रचनाओं में जीवित रखा है। जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा।

नवीन शोध के अनुसार सिलीगुड़ी के बागडोगरा वाहन स्टैंड से लगभग पांच किलो मीटर की दूरी पर स्थिति बाऊकाली शिव मंदिर स्थान जंगल के मध्य कई एकड़ में स्थित है। यही वह मंदिर है जो सन्यासी आंदोलन का मूल केंद्र हुआ करता था। मंदिर संचालन कमेटी के अध्यक्ष सुकुरू सिंह और सचिव गोरानाथ पराडा और कुछ अन्य बुजुर्ग ग्रामवासियों के अनुसार इस इलाके में कई दशक पूर्व संन्यासी बाबा का रथ घूमता था। यह कोई नहीं जानता था कि सन्यासी बाबा कौन थे और कहां से आए है, लेकिन वह उन दिनों लोगों को देश की आजादी में भाग लेने और अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए गांव वालों को प्रेरित करते थे। उस समय इस स्थान पर बड़ा ही घनघोर जंगल था। गांव वालों के सहयोग से ही उन्होंने यहां शिव मंदिर की स्थापना की और पूजापाठ कर लोगों को धर्म की बातें बताते थे। कभी-कभी वह कई दिनों के लिए गायब भी हो जाते थे, बाद में अचानक आकर बताते थे कि अंग्रेजों से जबरदस्त संघर्ष देशवासियों का चल रहा था। कई बार अंग्रेज सिपाही आते थे लेकिन और बाबा के बारे में पूछताछ करके चले जाते थे। सिपाहियों की हिम्मत जंगल में जाने की नहीं होती थी। चूंकि गांव वाले संन्यासी बाबा के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे इसलिए वह सिपाहियों को कुछ उनके बारे में कुछ भी बता नहीं पाते थे। काफी दिनों बाद जब यह पता चला कि बाबा संन्यासी आंदोलन से जुड़े हुए तो उनके प्रति गांवों में सहानुभूति पैदा हो गई। फिर क्या गांव वाले उनकी खुलकर मदद करने लगे। लेकिन उनकी मृत्यु कब और कैसे हुई और कहां हुई यह गांव वालों को पता नहीं। बस उनकी स्मृति में गांव वालों ने एक छोटा सा मंदिर बनवा कर उनकी प्रतिमा उसी में स्थापित कर उनकी पूजा-पाठ शुरू कर दी। ऐसे न जाने कितने नाम सन्यासियों, वीरो आदि के हम ऋणी है अब तक हम नही जानते है।

क्रांतिकारी नेता महर्षि अरविंद एवं उनका गौरव बोध

महर्षि अरविंद पहले पहल एक क्रांतिकारी नेता थे लेकिन शीघ्र ही वे अध्यात्म की ओर मुड़ गए, क्योंकि उन्होंने यह जाना कि आध्यात्मिक उत्थान के बगैर भारत की स्वतंत्रता के सम्भव नहीं है इसीलिए उन्होंने भारत को आध्यात्मिक एकीकरण करने के लिए भारतीय ज्ञान की पताका विश्‍वभर में फैलाई ताकि भारतीयों में अपने ज्ञान के प्रति गौरव-बोध जाग्रत हो। गौरव-बोध के बगैर आजादी और स्वतंत्रता की अलख जगाना मुश्‍किल था। हमें अपने धर्म और ज्ञान पर गौरव होना चाहिए। यह गौरव-बोध तब आता है, जब हम वेद, उपनिषद और गीता को पढ़ें, अपनी संस्कृति को जाने। महर्षि अरविंद के गीता और अवतारवाद के विज्ञान को समझाया। बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविंद देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।

अरविंद ने कहा था कि चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे, पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रुकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा, जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं है कि 15 अगस्त को भारत की आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है। कोलकाता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया। उन्होंने 1902 में उनशीलन समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया। सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविंद ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा ‘वंदे मातरम्’ में प्रकाशित लेखों द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।

अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी। जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया तो जेल में अरविंद का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठरी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। अरविंद गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए। वहीं पर रहते हुए अरविंद ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है। अरविंद एक महान योगी और दार्शनिक थे। उनका पूरे विश्व में दर्शनशास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है। उन्होंने जहां वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों पर टीका लिखी, वहीं योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। महर्षि अरविंद ने कहा था – भारत को अपने लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए, मानवता के लिए जागना है। उनकी यह घोषणा तब सच साबित हुई जब भारत की आजादी दुनिया के दूसरे देशों के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा बनी। एक के बाद एक, सभी उपनिवेश स्वतंत्र हो गए, और ब्रिटेन का कभी न खत्म होने वाला सूरज हमेशा के लिए अस्त हो गया।

किसान आंदोलन के जनक दशनामी सन्यासी दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती

किसान आंदोलन’ के जनक स्वामी जी आदिशंकराचार्य संप्रदाय के ‘दसनामी संन्यासी’ अखाड़े के दंडी संन्यासी थे। 1909 में उन्होंने काशी में दंडी स्वामी अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहण कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने। काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्याडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोला। महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेज़ी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में किसान आंदोलन शुरू करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को ही जाता है। एक ऐसा दंडी संन्यासी जिसे भगवान का दर्शन भूखे, अधनंगे किसानों की झोपड़ी में होता है, जो परंपरानुपोषित सन्न्यास धर्म का पालन करने की बजाय युगधर्म की पुकार सुन भारत माता को ग़ुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़ता है, लेकिन अन्न उत्पादकों की दशा देख अंग्रेज़ी सत्ता के भूरे दलालों अर्थात देसी ज़मींदारों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष का सूत्रपात करता है। एक ऐसा संन्यासी, जिसने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया।

स्वामीजी को मूल रूप से किसान आंदोलन और जमींदारी प्रथा के खिलाफ किए गए उनके कार्यों के लिए जाना जाता है। महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। इस आंदोलन के माध्यम से वे भी भारतमाता को गुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़े। महात्मा गांधी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल हो गए। एक साल के भीतर ही वे गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और एक साल की कैद हुई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुए असहयोग आंदोलन के दौरान बिहार में घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। बाद में वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुट गए।

17 नवंबर 1928 को सोनपुर (बिहार) में उन्हें बिहार प्रांतीय किसान सभा का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने जमींदारों के शोषण से किसानों को मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की। अप्रैल 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। उनकी बढ़ती सक्रियता से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की छल और प्रपंच से प्राप्त सुविधाभोगी प्रवृत्ति को देखकर स्वामीजी हैरान रह गए। स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। तब उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी धड़े से हाथ मिलाकर किसानों के लिए कार्य किया। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए। आजादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ के जरिए हड़ताल करवाई थी। स्वामी सहजानंद ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम स्थापित किया, जो किसान आंदोलन का केंद्र बना तथा वहीं से वे पूरे आंदोलन को संचालित करते रहे। जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ते हुए स्वामीजी 26 जून1950 को मुजफ्फरपुर (बिहार) में महाप्रयाण कर गए। राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ के शब्दों में- ‘दलितों का संन्यासी चला गया।

स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार एवं राष्ट्र जागरण

‘स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना ने स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी कार्य के लिए शक्तिपुंज का कार्य किया. वहीं स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार भारत भर में सैकड़ों- हजारों राष्ट्रीय कार्यों के लिए प्रेरणा सूत्र बन गए। स्वामी विवेकानंद के विचारों तथा शिक्षा ने राष्ट्रीय जीवन व संस्कृति को काफी प्रभावित किया। भारतीय क्रांतिकारियों की अनेक पीढ़ियां 20वीं सदी के प्रारंभ से ही उनके जोशीले भाषण तथा लेखन से व्यवहारतः उठ खड़ी हुईं और दृढ़ बनी। सुप्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार- “भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय है, तो वह है विवेकानंद. फिर चाहे वो आन्दोलन अहिंसात्मक हो अथवा क्रांतिकारी. महर्षि अरविन्द को क्रान्ति व योग की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी ही थे. देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से लेकर जितने बड़े नेता हुए, जिन्होंने देश को सबकुछ माना, उनके जीवन की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द थे।”

क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने कहा था कि, “सन 1901 में उनकी ढाका यात्रा के दौरान जब युवाओं का एक समूह स्वामी जी से मिला और परामर्श लिया, तो उन्होंने कहा, “बंकिमचन्द्र को पढ़ो और देशभक्ति व सनातन धर्म का अनुकरण करो। सबसे पहले भारत को राजनैतिक रूप से स्वतंत्र कराया जाना चाहिए।”

आगे स्वामी जी ने कहा, “भारत का अतीत गौरवशाली था, निश्चित रूप से भारत का भविष्य और भी गौरवशाली होगा ……. ! आत्मा को झकझोरने वाले, मृत्यु को चुनौती देने वाले मन्त्र, “अभिः” (निर्भयता) से, गुलाम मानसिकता, अंधविश्वास और हीनभावना के सदियों पुराने अवशेष त्याग दो। विश्व के भौतिक रूप से विकसित अन्य राष्ट्रों के समकक्ष आने के लिए –हे युवा बंगाल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का अनेक प्रकार से अनुकरण करो, …और फिर मनोबल और दक्षता का आधुनिक मानक प्राप्त करके, विदेशी आक्रमणकर्ताओं को, उन्हीं की भाषा में उत्तर देकर अपने देश को विदेशी पंजों से मुक्त करो- पूर्वी संस्कृति के गढ़ की शरण लो। किन्तु यह निश्चित रूप से जान लो कि केवल नकल करके तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते”।

स्वामी जी कहा करते थे–“दुर्भाग्य है कि भारत की आजादी के बाद आज भी भारत आध्‍यात्मिक रूप से एक नहीं है। ऐसा कोई हिन्दू नहीं है तो वेद के मार्ग पर चलता हो। ब्रह्म को जाने बगैर, उपनिषदों को पढ़े बगैर यह संभव नहीं हो सकता है कि भारत वैचारिक रूप से एक हो। इस अखंडित विचारधारा के कारण ही भारत गुलाम बना था और आज इसी के कारण भारत में ढेर सारी जातिवादी, वामपंथी, तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी, प्रांतवादी, देशद्रोही समस्याएं खड़ी हुई हैं।” वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे।
अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-“नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।” और जनता ने स्वामी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। महात्मा गान्धी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा के स्रोत बने। भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन एक जन आंदोलन बन गया।

1901 में जब विवेकानंद ढाका गए तो घोष अपने मित्रों के साथ उनके मिले थे। अपने संस्मरण में वह लिखते है कि स्वामीजी ने उन्हें दो टूक निर्देश दिया थाः “भारत को पहले राजनीतिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि विश्व में कोई भी देश किसी औपनिवेशिक देश का न तो कभी सम्मान करेगा और न ही उसकी बात सुनेगा।”कई अन्य राष्ट्रवादी नेता भी विवेकानंद से प्रभावित रहे। हम यह भी देखते हैं कि अलग-अलग लोगों पर उनका अलग-अलग और बहुआयामी प्रभाव पड़ा था। ये लोग सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों के थे मगर प्रभाव राष्ट्र के लिए था, इतना अधिक था कि उन्हें भारत के लिए जीने और मरने की प्रेरणा मिली। 1897 में स्वामीजी ने कहाः “अगले 50 वर्षों के लिए हमारा एक ही ध्येय होना चाहिए – हमारी महान भारत माता।”और ठीक पचास वर्ष बाद भारत को स्वतंत्रता मिल भी गई।

महान क्रांतिकारी हेमचन्द्र घोष ने स्वामी पूर्णात्मानंद को बताया कि “भगिनी निवेदिता हमें बताया करतीं थीं: “भारत के प्रति स्वामीजी के मन में सर्वाधिक उत्कंठा थी। मानो भारत का ही विचार करने की एक धुन उन पर सवार थी। उनके ह्रदय में भारत ही धड़कता था। भारत उनकी रगों में दौड़ता था। …इतना ही नहीं। वे स्वयं भी भारत से एकाकार हो गए थे। वे मनुष्य के रूप में भारत का ही अवतार थे। वे भारत ही थे। वे भारत थे – उसकी आध्यात्मिकता, उसकी पवित्रता, उसकी बुद्धि, उसकी शक्ति, उसकी दृष्टि और उसके भाग्य के प्रतीक।” यही कारण था कि ब्रिटिश हुकूमत सदैव उन पर नज़रे गड़ाए रही। अंग्रेज़ पहले ही आशंकित हो चुके थे। अल्मोड़ा में पुलिस स्वामी जी की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी। 22 मई को श्रीमती एरिक हैमंड को भेजे अपने पत्र में भगिनी निवेदिता ने लिखा, “आज सुबह एक भिक्षु को यह चेतावनी मिली थी कि पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रख रही है –निसंदेह, हम सामान्य रूप से इस बारे में जानते हैं—किन्तु अब यह और स्पष्ट हो गया है और मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकती, यद्यपि स्वामी जी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं।”

स्वामी जी के शब्दों का प्रभाव कुख्यात ‘विद्रोह कमिटी’ की रिपोर्ट में देख सकते हैं। यह कहती है: उसके (स्वामी विवेकानंद के) लेखों और शिक्षाओं ने अनेक सुशिक्षित हिन्दुओं पर गहरी छाप छोड़ी है”। ब्रिटिश सीआईडी जहाँ भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाया करती थी, वहां उन्हें विवेकानंद जी की पुस्तकें मिलतीं थीं, इससे वह घबरा उठे थे। स्वामी जी ने कोई संगठन खडा नहीं किया, किन्तु उनके सतत प्रवास ने समाज में आत्मविश्वास पैदा किया और उनकी मृत्यु के तीन वर्षों के अन्दर अंग्रेजों को कलकत्ता से अपनी राजधानी हटाकर दिल्ली लाना पड़ा।

अल्मोड़ा में बद्रीसहाय बटुकधारी ने पूछा कि आप देशभक्ति की बात करते हो, किन्तु उसका उल्लेख वेद उपनिषद् में कहाँ है? स्वामी जी ने भारत भक्ति का वर्णन करतीं उपनिषदों की ऋचाएं उन्हें सुनाकर मंत्रमुग्ध कर दिया। स्वामी जी की प्रेरणा के पश्चात उन्होंने उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए संस्कृत सीखी और सुप्रसिद्ध “वैशिक शास्त्र” पुस्तक लिखी। सावरकर जी ने तो संघर्ष कर अंडमान जेल में भी जो लाईब्रेरी बनवाई उसमें विवेकानंद साहित्य रखवाया। अपने वृहत काव्य सप्तर्षि में सावरकर जी ने लिखा कि निराशा के क्षणों में उन्हें विवेकानंद के विचार ही प्रेरणा देते थे। 1901 में बेल्लूर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के समय तिलक जी लगातार आठ दिन तक विवेकानंद जी से नियमित मिलते रहे। तिलक जी के लेखों में उसके बाद ही दरिद्रनारायण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ ।

तिलक जी को स्वदेशी का विचार तथा गीता भाष्य की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी थे। हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रणेता राजनारायण बोस के साथ स्वामीजी वर्धमान में सात दिन रहे। रामकृष्ण मठ के स्वामी ब्रह्मानंद जी से प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासविहारी बोस की नजदीकी थी। मठों से अनेक क्रांतिकारी गिरफ्तार भी हुए। महर्षि अरविन्द को क्रान्ति व योग की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी ही थे। अनुशीलन समिति के सभी क्रांतिकारी, लाहिड़ी, सान्याल, लाला हरदयाल, चन्द्र शेखर आजाद आदि सभी अपने पास विवेकानंद साहित्य रखते थे।

इसलिए सुप्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने ठीक ही लिखा है कि-“भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय है, तो वह है विवेकानंद। फिर चाहे वो आन्दोलन अहिंसात्मक हो अथवा क्रांतिकारी। “विवेकानंद वह भगवा क्रांतिदूत थे जिसने अपनी आध्यात्मिक तेजपुंज से हजारों।लाखों क्रांति की मशालें एकसाथ रोशन कर दी। यही होता है आध्यात्मिकता का असल बासंती रंग जो मातृभूमि व राष्ट्रप्रेम को रग रग में बसा दे।

महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरबिंदो जैसे कई विद्वान भगवाधारी महापुरुषों की जलाई आध्यात्मिक अलख ने उन सभी के लिए मार्गदर्शक प्रकाश के रूप में काम किया जो आत्महीनता से ग्रस्त मनोरोगी हो चुके थे। यह भगवाधारियों का एक बहुआयामी क्रान्तिकारी प्रयास था जिसमें एक ओर विदेशी आक्रमण के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध किया जा रहा था और दूसरी ओर समाज को मजबूत बनाने के लिए विकृतियों को दूर कर सामाजिक पुनर्निर्माण का कार्य किया जा रहा था। जहाँ रियासतों के राजा अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे, वहीं उनके साधारण जीवन में अंग्रेजों के हस्तक्षेप और उनके जीवन मूल्यों पर हमले के खिलाफ जाति समाज जगह-जगह उठ खड़ा हुआ। जबकि बंगाल में राजनारायण बोस द्वारा आयोजित हिंदू मेले, महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक द्वारा गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव भारत की सांस्कृतिक जड़ों को पानी दे रहे थे, ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे समाज सुधारक महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने और वंचित वर्गों को सशक्त बनाने के रचनात्मक अभियान में लगे हुए थे। प्रच्छन्न बौद्ध कहे जाने वाले बीआर अंबेडकर ने समाज को संगठित करने और सामाजिक समानता हासिल करने के लिए संघर्ष करने का रास्ता दिखाया और यह सभी महान नेता आध्यात्मिक ज्योति से ही प्रेरित थे।

राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय का भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी, सती प्रथा व महिला अशिक्षा से लड़ने वाले अध्यात्म पुरुष थे। जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की। उनके आन्दोलनों ने जहाँ पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया।

इसी तरह आध्यात्मिक बंगाली केशोब चोन्दो सेन भी हिन्दू दार्शनिक, धार्मिक उपदेशक एवं समाज सुधारक थे जिन्होंने प्रारम्भ में ब्रह्मसमाज के अंतर्गत केशवचंद्र सेन के आगमन के साथ द्रुत गति से प्रसार पानेवाले इस आध्यात्मिक आंदोलन के सबसे ज्यादा गति दी और सुधार की अलख जगाई। सेन ने विश्व बन्धुत्व के वैदिक विचार को नवीनतम रूप में स्थापित करने का प्रयास किया और लोगो को समझाया कि-“हमारा विश्वास विश्वधर्म है जो समस्त प्राचीन ज्ञान का संरक्षक है एवं जिसमें समस्त आधुनिक विज्ञान ग्राह्य है, जो सभी धर्म गुरुओं तथा संतों में एकरूपता, सभी धर्मग्रंथों में एकता एवं समस्त रूपों में सातत्य स्वीकार करता है, जिसमें उन सभी का परित्याग है जो पार्थक्य तथा विभाजन उत्पन्न करते हैं एवं जिसमें सदैव एकता तथा शांति की अभिवृद्धि है, जो तर्क तथा विश्वास योग्य तथा भक्ति तपश्चर्या और समाजधर्म को उनके उच्चतम रूपों में समरूपता प्रदान करता है एवं जो कालांतर में सभी राष्ट्रों तथा धर्मों को एक राज्य तथा एक परिवार का रूप दे सकेगा।”यह सिलसिला यहीं नही रुकता अन्य अनेको नाम है जिन्होंने आध्यात्मिकता के बलबूते पर तत्कालीन भारतीय समाज को जागृत किया और स्वतंत्रता आंदोलन को नव गति और नई दिशा दी।

आत्माराम पाण्डुरंग एवं प्रार्थना समाज

बॉम्बे में प्रार्थना समाज की स्थापना कर आत्माराम पांडुरंग ने व्यापक सुधार आंदोलन से पश्चिमी भारत में सांस्कृतिक परिवर्तन और सामाजिक सुधार की कई प्रभावशाली परियोजनाओं का नेतृत्व किया है, जैसे कि महिलाओं और दलित वर्गों की स्थिति में सुधार, जाति व्यवस्था का अंत, बाल विवाह और शिशुहत्या का उन्मूलन, महिलाओं के लिए शैक्षिक अवसर और विधवाओं का पुनर्विवाह। इसकी सफलता एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान आरजी भंडारकर, आत्माराम पांडुरंग, नारायण चंदावरकर और महादेव गोविंद रानाडे द्वारा निर्देशित थी। महादेव गोविंद रानाडे के शामिल होने के बाद यह लोकप्रिय हो गया। मुख्य सुधारक बुद्धिजीवी थे जिन्होंने हिंदुओं की सामाजिक व्यवस्था में सुधार की वकालत की। यह प्रसिद्ध तेलुगु सुधारक और लेखक, कंदुकुरी वीरसलिंगम द्वारा दक्षिणी भारत में फैलाया गया था।

अनेको देशी विदेशी आध्यात्मिक नाम है जिन्होंने आध्यात्मिक बल पर स्वतंत्रता आंदोलन को गति और दिशा दी थी। एनी बीसेंट, मेंडम ब्लावट्स्की, भगिनी निवेदिता जैसे विदेशी भी भारतीय वेदांत, संस्कृति से अभिप्रेरित हो कर भरतीय स्वतंत्रता के लिए जागरण का योगदान देने लगे थे। यह कटु सत्य है कि भारत की स्वाधीनता के पुष्प वासंती माटी पर खिले थे जो सन्यासियों के तपोबल से सिंचित थी।

भारत के इतिहास में झांक कर देखा जाए तो केसरिया या गेरुआ या भगवा रंग का विशेष आध्यात्मिक महत्व है जिसे हमारे ऋषि मुनि सन्यासी और साधु संत पहनते है। हमारा प्राचीन इतिहास बताता है कि देश पर जब जब भी कोई संकट आता है तो भगवा केसरिया क्रांति करने को आतुर हो पड़ता है। यह क्रांति का परिचायक रंग है। हम हमारे गौरवशाली इतिहास में झांके तो प्राचीन काल मे जब शक, कुषाण, हुण और पार्थियन ने भारत को घेरा था तो 66 सम्प्रदायों के भगवाधारी उठ खड़े हुए थे।

चाणक्य, बुद्ध और महावीर के ओज में हम पुनः उठ खड़े हुए। मध्यकाल में जब अरबी, तुर्की, मंगोल आक्रमणकारियों ने हमे तहस नहस किया तो क्रांति की अलख जगाने पूर्व में चैतन्य महाप्रभु और श्रीमंत शंकर देव ने समाज को दिशा दी और लोगों को अपने लक्ष्य के प्रति केन्द्रित किया। पश्चिम में मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम, रामदास और नरसी मेहता, उत्तर में संत रामानन्द, कबीरदास, गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, श्री गुरु नानक देव ने यह बीड़ा उठाया। इसी प्रकार से दक्षिण में माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य और रामानुजाचार्य ने किया। भक्ति काल में मलिक मोहम्मद जायसी, रसखान, सूरदास, केशवदास और विद्यापति जैसी विभूतियों ने समाज को अपनी कमियाँ सुधारने के लिए प्रेरित किया।और भारत की अंतिम दो सौ वर्षीय पाश्चात्य दासता की।मुक्ति की अंतिम लड़ाई में भी भगवा या केसरिया का योगदान अनमोल ही है। इन विभूतियों के कारण ही स्वतंत्रता के इस संघर्ष को अखिल भारतीय रूप मिल पाया।

भगवा ने हर संकट में देश का साथ दिया, डटकर मुकाबला किया, जो ठाना वह पूरा कर दिखाने का हुनर भी उन्ही के संकल्प और प्रयासों से आया। क्योंकि भगवा अग्नि का रंग है जो बुराइयों को जला कर परिष्करण भी करती है और स्वयं जल कर दुसरो को रोशनी और ताप देने का हुनर भी रखती है। स्वयं का जीते जी पिंडदान कर सिर पर कफ़न बांध कर चलने वाले भगवाधारी साधु संत महासंकट में विकल्प नही खोजते वरन वह स्वयं महासंकल्प बन जाते हैं। अग्नि संपूर्ण संसार में हवा की तरह व्याप्त है लेकिन वह तभी दिखाई देती है जबकि उसे किसी को जलाना, भस्म करना या जिंदा बनाए रखना होता है।

संन्यासी का स्वभाव भी अग्नि की तरह होता है, लेकिन वह किसी को जलाने के लिए नहीं बल्कि ठंड जैसे हालात में ऊर्जा देने के लिए सूर्य की तरह होता है। संन्यासी का पथ भी अग्निपथ ही होता है। कटु सत्य यह है कि अग्नि बुराई का विनाश करती है और अज्ञानता की बेड़ियों से भी व्यक्ति को मुक्त करवाती है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इन भगवाधारी केसरिया करने तो आतुर महान नायकों और नायिकाओं की जीवन गाथा को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाए जाने की आवश्यकता है तभी हम अपनी अनमोल स्वतंत्रता का सच्चा मूल्य समझ सकेंगे और आजादी के इस अमृत महोत्सव को पूर्ण सार्थकता दे सकेंगे।

आलेख

डॉ नीता चौबीसा,
लेखिका, इतिहासकार एवं भारतविद, बाँसवाड़ा,राजस्थान

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